निष्क्रिय और तमाशबीनों की बढ़ती संख्या

केवल कृष्ण पनगोत्रा

कुछ दिन पहले की ही बात है. गुना में एक महिला अपने टीबी के मरीज पति को अस्पताल ले गई थी. उस महिला के पास पर्ची कटवाने के पांच रुपये तक नहीं थे. पूरी रात अपने मासूम बच्चे और पति के साथ जिला अस्पताल के सामने रात भर तीनों पड़े रहे. आखिरकार उसके पति की मौत हो गई.
देश ऐसी खबरों से भरा पड़ा है, जहां दवाई और सुविधा के अभाव में गरीब दम तोड़ रहे हैं. करोना से होने वाली मौतों के लिहाज से देखें तो भारत की स्थिति बंगला देश, पाकिस्तान और श्रीलंका से भी बदतर होती जा रही है लेकिन लोग खुश इस बात पर हैं कि सरकारें गिर रही हैं, सरकारें बन रही हैं, राफेल आ गया है, मंदिर बन रहे हैं बगैरा-बगैरा. हैरानी इस बात की है कि जनता अभाव में मरने को तैयार है, लेकिन सवाल उठाने या नाराजगी जाहिर करने को तैयार नहीं है.
सोशल मीडिया पर एक आदमी लिख रहा है कि पांच अगस्त को जब अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होगा तो वह घी का दिया जलाएगा. एक नहीं सौ दिया जलाइये मगर उस दिन पर भी जरूर दुख भरा रोना-धोना और हौ-हल्ला कीजिये जिस दिन यह खबर मिलती है कि किसी अस्पताल में कोई इसलिए मर गया कि उसके पास पर्ची कटवाने के लिए पांच रुपये नहीं थे. उस दिन को भी मुबारक दिन मानें जिस दिन खबर मिलती है कि कोई मुख्यमंत्री किसी निर्माण में बजट से कम राशि खर्च करके 50 करोड़ बचा लेता है. उस मनुष्य की शान में भी दो-चार कसीदे लिख-बोल लें जो मज़हब का बाना छोड़ कर इन्सानियत की बात करता है. उन लोगों का समर्थन भी करें जो किसी अभाव,अनियमितता और अन्याय के विरुद्ध संविधान के दायरे में रहकर प्रदर्शन पर उतरते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की जीवन से भी कुछ सीखिए जिन्होंने मानवीय मूल्यों की रक्षा करते हुए हर उस इन्सान की तारीफ की जो उन्हें किसी भी लिहाज से योग्य लगा.
हमारे देश में निष्क्रिय और तमाशबीनों की संख्या बढ़ती जा रही है. मैं दावे से कह सकता हूं कि ऐसे लोग गरीब लोगों को अभाव में मरता देख सकते हैं लेकिन पूछ नहीं सकते.
इन लोगों की सवाल पूछने वाली ग्रंथियां निष्क्रिय हो चुकी हैं और गाली देने वाली सक्रीय हो गई हैं. क्या मजाल है कोई यह कह दे कि केजरीवाल ने  दिल्ली में फंला-फंला जनहितार्थ काम कर दिया. क्या मजाल है नेहरू-इंदिरा, राहुल, केजरीवाल या किसी विरोधी दल या संस्थान की तारीफ़ में कोई उदाहरण प्रस्तुत कर दे. बेशक माननीय अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहते हुए भी जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी की संसद में तारीफ की. नरसिम्हा राव से उनके रिश्ते अच्छे थे और राजीव गांधी की तारीफ करने में भी उन्होंने कभी कंजूसी नहीं की. अगर आज वाजपेयी जिंदा होते तो नि:संदेह केजरीवाल को भी शाबासी देते. केजरीवाल के कार्यकाल में कई अप्रत्याशित काम हो रहे हैं। उनका अगर संपूर्ण उल्लेख किया जाए तो अच्छी पुस्तक बन सकती है.
अभी जुलाई के अंतिम सप्ताह में समाचार मिलता है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सरकार ने दिल्ली स्थित शास्त्री पार्क फ्लाईओवर का निर्माण कर रही है जिसकी लागत करीब 303 करोड़ रुपये थी, लेकिन यह करीब 250 करोड़ रुपये में बनकर तैयार हो जाएगा. लेकिन बिहार से खबर मिलती है कि 264 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला गोपालगंज स्थित एक पुल एक महीना भी नहीं चला. पिछले महीने सीएम नीतीश कुमार ने इस पुल का उद्घाटन किया था.
जुलाई के अंत में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने बड़ा फैसला लेते हुए राजधानी में डीजल के दाम 8 रुपए 36 पैसे प्रति लीटर घटा दिए हैं. डीजल पर लगने वाले वैट में 30 फीसदी की कमी की गई है. अब दिल्ली में डीजल की कीमत 82 रुपए प्रति लीटर से घटकर 73.64 रुपए रह गई है.
दिल्ली में शिक्षा को लेकर स्थिति संतुष्टजनक है. भारत में चिंतक शिक्षाविदों की मांग रही है कि बजट का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाए, मगर दिल्ली में 25 प्रतिशत खर्च किया जा रहा है. नतीजे काफी सकारात्मक निकले हैं. अगर ऐसे कार्यों का अंधविरोध देखने को मिले तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है.
मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक चारू मजुमदार की मौत पर भी अटल ने सार्वजनिक रूप से उन्हें श्रद्धांजलि दी थी. अटल ने एक बार कहा था कि वो 1952 से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन कभी किसी पर कीचड़ नहीं उछाला. उन्हें राजनीति में भी मानवीय मूल्यों का पक्षधर माना जाता था. लेकिन आज मानवीय मूल्यों के अलावा अच्छे को अच्छा और सही को सही कहने की प्रवृत्ति का समय ही नहीं रहा.
वरिष्‍ठ पत्रकार किंशुक नाग ने अपनी किताब ‘अटल बिहारी वाजपेयी- ‘ए मैन फॉर ऑल सीजन’ में 1977 की एक घटना का जिक्र किया है जिसके मुताबिक 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो जब कार्यभार संभालने के लिए साउथ ब्‍लॉक के अपने दफ्तर पहुंचे तो उन्‍होंने गौर किया कि वहां पर लगी पंडित नेहरू की तस्‍वीर गायब है. उन्‍होंने तुरंत अपने सेकेट्री से इस संबंध में पूछा. पता लगा कि कुछ अधिकारियों ने जानबूझकर वह तस्‍वीर वहां से हटा दी थी. वो शायद इसलिए क्‍योंकि पंडित नेहरू विरोधी दल के नेता थे. लेकिन वाजपेयी ने आदेश देते हुए कहा कि उस तस्‍वीर को फिर से वहीं लगा दिया जाए.
न्यूज 18 हिन्दी, (16 अगस्त 2018) में प्रकाशित अंकित फ्रांकिस की रिपोर्ट में जिक्र है कि 1971 में जब भारत-पाकिस्तान का युद्ध ख़त्म ही हुआ था और बांग्लादेश के रूप में एक नया राष्ट्र बना था. इस दौरान अटल विपक्ष के नेता थे और इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री. अटल ने विपक्ष के नेता के तौर पर एक कदम आगे जाते हुए इंदिरा को ‘दुर्गा’ करार दिया था. 1971 के युद्ध में पाक के 90,368 सैनिकों और नागरिकों ने सरेंडर किया था.
अटल बिहारी वाजपेयी ने सदन में कहा था कि जिस तरह से इंदिरा ने इस लड़ाई में अपनी भूमिका अदा की है, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ है. सदन में युद्ध पर बहस चल रही थी और वाजपेयी ने कहा कि हमें बहस को छोड़कर इंदिरा की भूमिका पर बात करनी चाहिए जो किसी ‘दुर्गा’ से कम नहीं थी.
इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 1987 में अटल बिहारी वाजपेयी किडनी की समस्‍या से जूझ रहे थे. हालांकि आर्थिक साधनों की तंगी के चलते अमेरिका जाकर इलाज कराना उनके लिए संभव नहीं था. हुआ यूं कि तत्कालीन पीएम राजीव गांधी को किसी ने अटल की इस समस्या की सूचना दे दी. राजीव ने तुरंत अटल को बुलावा भेजकर अपने ऑफिस में बुलाया और कहा कि वे उन्हे संयुक्‍त राष्‍ट्र में न्‍यूयॉर्क जाने वाले भारत के प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं और वे इस मौके का लाभ उठाकर वहां अपना इलाज भी करा सकते हैं.
मशहूर पत्रकार करण थापर ने अपनी हाल में प्रकाशित किताब ‘द डेविल्‍स एडवोकेट’ में भी बताया है कि साल 1991 में राजीव गांधी की हत्‍या के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने उनको याद करते हुए इस बात को पहली बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘मैं न्‍यूयॉर्क गया और इस वजह से आज जिंदा हूं.’ दरअसल न्‍यूयॉर्क से इलाज कराकर जब वह भारत लौटे तो इस घटना का दोनों ही नेताओं ने किसी से भी जिक्र नहीं किया. कहा जाता है कि इस संदर्भ में उन्‍होंने पोस्‍टकार्ड भेजकर राजीव गांधी के प्रति आभार प्रकट किया था.
साल 1993 में जिनेवा में मानवाधिकार सम्मेलन का आयोजन किया गया. तब तत्कालीन पीएम पीवी नरसिम्हा राव देश ने विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र संघ में देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेज दिया था.
अंकित फ्रांकिस की रिपोर्ट में बताया गया है कि नरसिम्हा राव के इस फैसले से देश ही नहीं दुनिया के नेता भी हैरान रह गए थे. दरअसल साल 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी और अटल विदेश मंत्री बने तो तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अंतरराष्ट्रीय मंच से हिंदी में भाषण दिया गया हो, नरसिम्हा राव अटल की इस पहल से खासा प्रभावित हुए थे और उन्होंने ये फैसला लेकर सबको चौंका दिया.
आज भारत में ऐसे लोगों की एक अच्छी-खासी नस्ल पैदा हो गई है जिनके मुखारबिंद से काम करने वाले और योग्य विरोधी दलों के लोगों के लिए ऐसी गालियां प्रस्फुटित हो जाती हैं जिसे श्रवण करके दुनिया का नामी-गिरामी बेशर्म भी शर्म से पानी-पानी हो जाए. सवाल किसी राजनैतिक दल पर भी नहीं है और न ही किसी व्यक्ति/व्यक्तियों का है. सवाल पतित होती मानसिकता और बिगड़ रही व्यवस्था का है.

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