माननीयों के बढ़ते वेतन

increasing salaries of MPसंदर्भः-मध्यप्रदेश के विधायकों के वेतन में बढ़ोत्तरी

प्रमोद भार्गव

 

करीब 1 लाख 50 हजार करोड़ के कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश में विधायकों के वेतन बढ़ाने की स्वीकृति हैरानी में डालने वाली है। ये बढ़ोत्तरी इसलिए भी प्रदेशहित में कतई नहीं है,क्योंकि मध्यप्रदेश में रोजाना कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। उत्पादक कृषक समाज को नजरअंदाज करके अनुत्पादक समाज के वेतन बढ़ाने के उपाय अंततः गैरबराबरी की खाई और चौड़ी करेंगे। प्रदेश सरकार ने विधायकों के साथ-साथ मीसाबंदियों के वेतन बढ़ाने की भी घोषणा की है। इनकी वेतन की विसंगतियां भी दूर की जाएंगी। ये वेतनवृद्धियां इसलिए भी उचित नहीं हैं,क्योंकि पिछले तीन साल से प्रदेश सूखा और ओलावृष्टि की जबरदस्त चपेट में है। सरकार इस दौरान आमदनी बढ़ाने के भी कोई नए उपाय नहीं कर पाई है। बावजूद पिछले 15 साल के भीतर विधायकों के वेतन-भत्ते 11 गुने बढ़े हैं। इन 15 सालों में 13 साल से भरतीय जनता पार्टी की सरकार प्रदेश की सत्ता पर काबिज है। विधायकों और मीसाबंदियों के वेतन बढ़ाने से राजकोष पर करीब 40 करोड़ रुपए का सालाना आर्थिक बोझ बढ़ेगा। तय है,सरकार के पास करों में अनावश्यक वृद्धि व षराब की बिक्री बढ़ाकर इस धन को जुटाने के कोई दूसरे उपाय नहीं हैं।

इस बढ़ोत्तरी के लिए विधायकों का सरकार पर जबरदस्त दबाव था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी बिना किसी बहस के दे दी गई। विधानसभा में भी संषोधन विधेयक संभवतः बिना किसी बहस के पारित हो जाएगा। इसके पारित होते ही मुख्यमंत्री का वेतन 1.43 लाख से बढ़कर 2 लाख,मंत्री व नेता प्रतिपक्ष का 1.20 से बढ़कर 1.70 लाख,राज्यमंत्री का 1.3 से बढ़कर 1.50 लाख और विधायक का वेतन 71 हजार से बढ़कर 1.10 लाख हो जाएगा। जबकि 2001 में विधायकों को कुल 10 हजार रुपए मिलते थे। इन विधायकों में ऐसे विधायक भी शामिल हैं,जिनका करोड़ों-अरबों का सालाना कारोबार है और कुछ ऐसे भी विधायक है,जिनके पास सामंती घरानों के वंशज होने के कारण अरबों की अचल संपत्ति है,जो आमदनी का एक पुख्ता जरिया है। ये सभी विधायक राजनीति में आने का कारण समाजसेवा बताते हैं,लेकिन प्रदेश के 230 विधायकों में से एक भी ऐसा नहीं है, जो वेतन न लेता हो ? गोया,सवाल उठता है कि विधायक चाहे किसी भी विचारधारा के दल से चुने गए हो,उनका धन के प्रति मोह व लालच एक जैसा है। वेतन बढ़ाने के इस तरह के उपायों से समाज में गैर-बराबरी बढ़ रही है,जो अकसर समाज में अषांति, लूटपाट और राजनीतिक उथल-पुथल की वजह बनती है। धन संग्रह के ऐसे ही केंद्रीयकृत उपायों के चलते देश की गरीब जनता कर्ज के बढ़ते दुश्चक्र में उलझती जा रही है। नतीजतन देश के सभी प्रदेशों में कर्जदारों की संख्या में चिंताजनक इजाफा हो रहा है।

हाल ही में भारतीय समाज में कर्ज की स्थिति पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के चौकाने वाले नतीजे सामने आए है। इन आंकड़ों के मुताबिक वर्ष-2002 में जहां 27 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कर्ज के बोझ से दबे हुए थे,वहीं अब यह प्रतिशत बढ़कर 31 हो गया है। इसी आवधि में शहरी आबादी में कर्जदारों की संख्या 4 फीसदी बढ़ी है। 2002 में इनकी संख्या 18 फीसदी थी,जो बढ़कर 22 फीसदी हो गई है। इससे भी ज्यादा हैरानी में डालने वाला तथ्य यह है कि इसी आवधि में ग्रामीण कर्जदताओं के कर्ज में 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई है,जबकि शहरों में यह वृद्धि 600 फीसदी से भी ज्यादा है। इसे सरलता से यूं समझा जा सकता है कि वर्ष 2002 में जिस ग्रामीण पर 1 रुपए का कर्ज था,उस पर अब 300 रुपए का ऋण है। इसी तरह 2002 में जो शहरी नागरिक 1 रुपए के ऋण भार से दबा हुआ था। वह अब 600 रुपए के ऋण भार में दबा है। कुछ कर्जदार तो ऐसे भी है जिन पर अपनी कुल चल-अचल संपत्ति से कहीं ज्यादा कर्ज है। कमोबेष यही स्थिति मध्यप्रदेश सरकार की है,जो ‘आमदनी अठन्नी और खर्च रुपैया‘ वाली कहावत को चरितार्थ करने में लगी है। प्रदेश सरकार पर इस समय डेढ़ लाख करोड़ के कर्ज में डूबी है।

मध्यप्रदेश सरकार ही विधायकों के वेतन-भत्ते की गफलत से घिरी हो ऐसा नहीं है,देश की ज्यादातर राज्य सरकारें यही गलती दोहरा रही हैं। दिल्ली के विधायकों को फिलहाल 88 हजार रुपए वेतन,भत्तों सहित मिल रहे थे, इसे आनन-फानन में बढ़ाकर 2 लाख 36 हजार रुपए कर दिया गया। मसलन एक झटके में एक मुश्त एक लाख 48 हजार रुपए प्रतिमाह बढ़ा दिए गए। आम आदमी के हितों के सरंक्षण का दावा करने वाली अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार यही नहीं ठहरी,बल्कि विधायकों को जो वार्षिक यात्रा भत्ता 50 हजार रुपए मिलता है,उसे भी बढ़ाकर तीन लाख रुपए कर दिया गया। यानी छह गुना बढ़ोत्तरी। साथ ही विधायकों को यह सुविधा भी दे दी गई कि वे चाहें तो इस धनराशि से विदेश जाकर भी मौज-मस्ती कर सकते हैं। गोया जो राशि अब तक केवल विधानसभा क्षेत्र की सीमाओं में बुनियादी समस्याओं की जानकारी जुटाने के लिए सुनिश्चित थी,उससे अब विधायक विदेश जाकर गुलछर्रें उड़ाएंगे। घोर राजनैतिक अनैतिकताओं व अनियमिततों से भरा यह विधेयक बहुमत से इसलिए पारित हो गया था,क्योंकि 70 सदस्यीय विधानसभा में आप के 67 विधायक हैं। निहायत विसंगतिपूर्ण यह फैसला उस आम आदमी पार्टी का है,जिसने आम आदमी के हक और युवाओं को रोजगार देने के अरमान जगाए थे। किंतु सत्तारूढ़ होने के बाद इस दिशा में कुछ करने की बजाए जनता के जले अरमानों पर नमक छिड़कने का काम जरूर कर दिया है।

केंद्र सरकार भी सांसद व मंत्रियों के वेतन-भत्ते बढ़ाने की फिराक में है। सांसदों की समिति ने सांसदों के वेतन-भत्ते दो गुना करने का प्रस्ताव केंद्रीय मंत्रीमंडल को दिया है। उम्मीद तो यही है कि देर-सबेर इस प्रस्ताव को हरी झंडी मिल जाएगी। तब ये वेतन 1,40,000 रुपए से बढ़कर 2,80,000 हो जाएंगे। इसके अलावा घर, दूरभाष, फर्नीचर, हवाई-यात्रा, रेल यात्रा और बिजली पानी की सुविधाएं मुफ्त में मिलेंगी। मसलन इस राशि का कुल जोड़ चार लाख से भी ऊपर बेठैगा। साफ है, अब राजनेता राजनीति में समाजसेवा की भावना से काम नहीं कर रहे हैं। जबकि एक समय ऐसा था जब हमारे सांसद-विधायक नाम मात्र के वेतन-भत्ते व अन्य सुविधाएं लेते थे। साथ ही शिक्षा का स्तर कम होने के बावजूद वे क्षेत्र व राष्ट्र की बुनियादी समस्याओं पर गहरी पकड़ रखते थे। लेकिन अब सांसद व विधायकों का शैक्षिक स्तर तो बढ़ा है,लेकिन सदनों में कामकाज के घंटे घटे हैं। अव्वल तो संसद व विधानसभाओं में जरूरी विधेयक पारित ही नहीं हो रहे हैं और जो हो भी रहे हैं,वे बिना किसी बहस-मुवाहिसा के पारित हो रहे हैं। ऐसे में जनप्रतिनिधियों की सदनों में उपस्थित औपचारिक खानापूर्ति भर रह गई है।

ऐसी स्वार्थ-सिद्ध भावनाएं प्रकट होने से जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता का भरोसा टूटता है। जनप्रतिनिधि को लेकर जनमानस में जो आवधारणा है,वह खंडित होती है। सच्चा जनसेवक वह है,जिसकी सुविधाएं,जनसुविधाओं से जुदा न हों। लेकिन वेतन-भत्ते बढ़ाने के उपायों के चलते आज आय के विभाजन की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि देश की करीब 70 फीसदी आबादी तो 50-55 रुपए रोज की आमदनी से ही अपना गुजारा करने को विवश है,जबकि सांसद और विधायकों को अभी भी सभी सुविधाएं जोड़कर पांच हजार रुपए रोज मिल रहे थे,जो कई प्रदेशों व केंद्र में बढ़कर 8 से 10 हजार रुपए रोजाना हो गए हैं। बावजूद तनख्वाह बढ़ाने के विधेयक पारित हो रहे हैं तो यह स्थिति शर्मनाक है। हैरानी इस बात पर भी है कि संसद और विधानसभाएं जब ठप रहती हैं,तब भी ये सुविधाएं बहाल रहती हैं। गोया,बिना कोई काम किए भी सुविधाएं बरकरार रहती हैं। यहां यह विचार भी गौरतलब है कि सांसद और विधायकों की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी का अधिकार इन्हीं सदस्यों की बनी समितियों को है। अपनी सहूलियतों में इजाफे का फैसला खुद ये समितियां लें, यह किसी भी दृष्टि से तर्कसम्मत नहीं है ? कोई स्वयात्त आयोग जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए ? जब तक ऐसी स्थिति सामने नहीं आती तब तक जनप्रतिनिधियों पर पक्षपातपूर्ण तरीके से स्वहित साधने के आरोप लगते रहेंगे ?

1 COMMENT

  1. मध्य प्रदेश हो या महाराष्ट्र, दिल्ली हो या हो हरियाणा,- माननीय महोदय कहीं से भी हों – पैसे की कमी से सभी को सताती है – आखिर जन सेवा खाली पेट तो हो नहीं सकती ……………….

Leave a Reply to बी एन गोयल Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here