पश्चिम बंगाल में सियासी रंग लेता ढहा पुल

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पश्चिम बंगाल में सियासी रंग लेता ढहा पुल
demolished pool
ढहा पुल

प्रमोद भार्गव

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अब तक तृणमूल कांग्रेस और उसकी मुखिया ममता बनर्जी की स्थिति बेहतर नजर आ रही थी,लेकिन निर्माणाधीन उपरगामी पुल के अचानक ढह जाने से उनके अरमानों पर पानी फिर सकता है। वाम-मोर्चा सरकार के कार्यकाल में 2009 में शुरू हुए इस पुल का निर्माण 8 साल बाद भी अधूरा तो था ही,इसके ढह जाने से जानलेवा लापरवाही ने अनेक नए सवाल खड़े कर दिए हैं। लिहाजा इस त्रासदी ने पश्चिम बंगाल सरकार और उसकी तेज-तर्रार मृख्यमंत्री ममता को प्रशासनिक लपरापाही व भ्रष्टाचार के मोर्च पर असहज स्थिति में ला दिया है। ठीक चुनाव के वक्त हुई इस दुर्घटना से विपक्ष खासतौर से भाजपा को ममता सरकार में भ्रष्टाचार और इससे पहले वाममोर्चा सरकार की प्रशासनिक अराजकता पर हमलावर होने का अवसर दे दिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक अपनी चुनावी सभाओं में पश्चिम बंगाल में अवरुद्ध विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तृणमूल और इसके पहले पश्चिम बंगाल में सत्ता पर 35 साल काबिज रही वाममोर्चा पर आक्रामक प्रहार करते रहे हैं। साफ है,आने वाले दिनों में यह हादसा चुनाव की सियासी बिसात के मौजूदा रंग को बहुरंगों में बदलने वाला है। याद रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनाया जा रहा उपरगामी पुल भी ढहा था। हालांकि इसके गिरने पर कोई बड़ी मानव-त्रासदी नहीं हुई थी,बावजूद इस घटना को भ्रष्टाचार से जोड़कर भाजपा और आम आादमी पार्टी ने ऐसा सियासी रंग दिया कि कांग्रेस की करारी हार तो हुई ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की विकास-उन्मुखी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी धूल चटा दी थी।

आठ साल में भी पूरा नहीं होने वाले पुल के यकायक ढह जाने से इसमें कोई दो राय नहीं कि पश्चिम बंगाल में संस्थागत भ्रष्टाचार और अराजकता के विपक्षी दलों द्वारा लगाए जा रहे,आरोपों की पुष्टि हुई है। बावजूद पांच साल के शासनकाल में ममता बनर्जी भ्रष्टाचार के व्यक्तिगत आरोपों से न केवल मुक्त हैं,बल्कि सत्ता से मिलने वाले भौतिक सुख-सुविधाओं से भी उन्होंने पर्याप्त दूरी बनाए बनाए रखी है। सत्ता से यह निर्लिप्ता उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती है। देश की वर्तमान राजनीति में जितनी भी सक्रिय महिला शख्सियतें हैं,इस नाते उनकी ममता से कतई तुलना नहीं की जा सकती है ? मां,माटी और मानुष का नारा बुलंद करके पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुई ममता को मायावती,जयललिता,सुषमा स्वराज,शीला दीक्षित और महबूबा मुफ्ती की तरह वैभव और मायामोह कभी नहीं लुभा पाया है। भारतीय राजनीति ऐसे चरित्र अब दुर्लभ ही है।

यही वजह है कि एबीपी न्यूज और नीलसन का जो सर्वे आया है,उसके अनुसार आज भी पश्चिम बंगाल की 58 प्रतिशत जनता ममता के कामकाज से संतुष्ट है और 62 फीसदी लोग उन्हें ही फिर से मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। शारदा चिटफंड घोटाला और रोस वैली कांड में तृणमूल के नेता सीधे-सीधे लिप्त हैं। चुनाव की घोषणा के ठीक बाद नारद स्टिंग आॅपरेशन में तृणमूल के सांसद,विधायक मंत्री व अन्य नेता घूस लेते व जेबों में ठूंसते टीवी के पर्दे पर दिखाए जा गए हैं,बावजूद त्रिकोणीय मुकाबले में ममता सबसे आगे हैं। पश्चिम बंगाल की 295 सदस्यीय विधानसभा में तृणमूल को 178 सीटें मिलने की उम्मीद जताई है। यहां वाममोर्चा और कांग्रेस अपने को ममता दीदी के प्रभाव के चलते कितना असहज और कमजोर महसूस कर रहे हैं,इसका पता इस बात से चलता है कि वाममोर्चा सत्ता पर काबिज होने की गरज से, तो कांग्रेस अपने गढ़ के बचे अवशेष बचाने की उम्मीद से गठबंधन करने को मजबूर हुए हैं। बावजूद सर्वे इस गठबंधन को केवल 110 सीटें दे रहा है। साफ है,माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी 33 साल बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु कर करिश्माई कार्य-संस्कृति के जादू को जमीन पर उतारने का भरोसा मतदाता में बिठा नहीं पा रही है। वहीं राहुल गांधी का तो अब बंगाल ही नहीं पूरे देश में उनके राजनीतिक असर को कोई अनुभव ही नहीं कर रहा है। कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी का पुत्र-मोह अंततः कांग्रेस का दायरा ही सिकोड़ रहा है। इस गठबंधन के धर्मनिरपेक्षता के दावे भी अब जानता को एकपक्षीय लगने के साथ सांप्रदायिक धु्रवीकरण का कारण भी लगने लगे हैं। इसलिए मजबूत विकल्प के अभाव में मुस्लिम मतदाता ही उनके प्रति आकर्षित होता है। साफ है,इस गठबंधन के बंगाल में दिए जा रहे नारे ‘तृणमूल कांग्रेस हटाओ,बंगाल बचाओ‘ व ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ‘ मतदाता पर विशेष प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में जो मोदी-लहर चली थी, उसके प्रवाह में पश्चिम बंगाल के मतदाता भी आ गए थे। नतीजतन भाजपा वहां 16.84 प्रतिशत मत पाने और बाबुल सुप्रियो को जिताने में कामयाब रही थी। लेकिन अब सर्वे के मुताबिक भाजपा का मत-प्रतिशत घटकर महज 5 फीसदी रह गया है और उसे केवल एक सीट मिलने का अनुमान लगाया गया है। साफ है,भाजपा को बंगाल में सम्मानजनक स्थिति हासिल करना भी मुश्किल है। हालांकि पुल के ढहने से भाजपा को भ्रष्टाचार और अराजकता के मोर्चों पर तृणमूल पर हमला बोलने का नया अवसर जरूर मिला है,लेकिन इस पुल के ढहने से उठे धूल के गुबार से वह बहुमत के लायक आंकड़ा जुटा लेगी,यह कहना न केवल जल्दबाजी होगी,बल्कि पूर्वाग्रही मुर्खता भी होगी। क्योंकि अमित शाह तो पहले से ही भ्रष्टाचार व अराजकता जैसे मुद्दे उठाने के साथ ममता के राज में बम-उद्योग के फलने-फूलने की बात भी दमदारी से कह रहे हैं।

भ्रष्टाचार और अराजकता के अलावा सत्तारूढ़ तृणमूल को पर्याप्त औद्योगिक निवेश न होने के कारण प्रदेश की अर्थव्यवस्था चरमराने के लिए भी दोषी ठहराया जाता रहा है। इस कारण षिक्षा स्वास्थ्य और खेती बद्तर हाल में पहुंच गए हैं। इससे उबरने के लिए वाम-कांग्रेस गठबंधन मतदाताओं को भरोसा दे रहा है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो अदालत में विचाराधीन नंदीग्राम व सिंगूर मामलों को वापस लिया जाएगा और इन ग्राम पंचायतों की कृषि-भूमि अधिग्रहण करके टाटा व अन्य उद्योगपतियों को दी जाएगी। जिससे प्रदेश में नए उद्योग लगें और युवाओं को रोजगार मिलें।

दूसरी तरफ ममता उद्योग और औद्योगिक निवेश से बेपरवाह हैं। ममता ‘टू-टका चावल,‘ मसलन 2 रुपए किलो चावल के नारे को बुलंद करके गरीब मतदाताओं को लुभा रही हैं। करीब 70 फीसदी आबादी को खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में लाने के उपाय को ममता अपनी बड़ी उदपलब्धि मान कर तो चल ही रही हैं,इस सुविधा को गेमचेंजर भी मान रही है। दरअसल बंगाल की बड़ी आबादी आज भी अकाल, भूख और गरीबी से दो-चार हो रही है। रोटी का यही संघर्ष पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान बड़े मुद्दे के रूप में उभरता है। इसीलिए दूरदृश्टि से काम लेते हुए ममता बनर्जी ने राज्य में खाद्य सुरक्षा का दायरा 3.5 करोड़ की आबादी से बढ़ाकर 7.70 करोड़ की आबादी के लिए कर दिया है। इस पहल से प्रदेश की 70 प्रतिशत आबादी 2 रुपए किलो चावल व 2 रुपए किलो गेहूं खरीदने की पात्र हो गई है। साफ है,सर्वे के मार्फत जो 62 प्रतिशत मतदाता ममता को फिर से मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं,उनमें बड़ी संख्या इन्हीं मतदाताओं की है। सियासी पुल हादसा चुनावी रंग भले ही ले ले,वह गरीब मतदाता पर असर डाल पाएगा,मुश्किल ही है ?

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