क्या भारत और अमेरिका के रिश्ते एक नए अंजाम की ओर?

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india-and-usaआलोक कुमार

1947 में भारत के आजाद होने के बाद, भारत और अमेरिका के सम्बंधो में ढुलमुल रवैया देखने को मिला. क्योकि भारत अपनी विदेश नीति में तटस्तथा की नीति अपनाई. वहीँ दूसरी तरफ पकिस्तान ने अमेरिका का दोस्त बनाने में ज्यादा तरजीह दी. इसके एवज में, अमेरिका ने पाकिस्तान भारी मात्रा में आर्थिक व सैन्य सहायता मुहैया कराने लगा. जहाँ इस सहायता को लेकर, भारत ने समय-समय पर पुरजोर विरोध भी किया.
एक तरफ भारत जहाँ पाकिस्तान से सुरक्षा का खतरा महसूस कर रहा था. वहीँ दूसरी तरफ अमेरिका लगातार पाकिस्तान को हर संभव मदद कर रहा था. इसका प्रभाव यह हुआ है कि आज भी पाकिस्तान के एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक हथियार बहुत ही आसानी से उपलब्ध हैं.
आज़ादी के समय भारत भयावह आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा था. उसके पास लोगो को बुनियादी चीज़े मुहैया कराने के लिए संसाधनों की भारी कमी थी. इस हालात में सुरक्षा क्षेत्र में, अधिक पैसा नहीं खर्च किया जा सकता था. लेकिन पकिस्तान के साथ तनाव व संघर्ष की स्तिथि होने के कारण भारत का ज्यादातर बजट का हिस्सा, मजबूरी में सुरक्षा क्षेत्र में खर्च करना पड रहा था. जोकि दिन पे दिन भारत के लिए दर्दनाक साबित होता जा रहा था.

सबसे पहले कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान युद्ध सन 1947 को हुआ. उस समय अमेरिकी सरकार में अंडर सेक्रेटरी रहे, रोबर्ट लोवेट ने कहा कि ‘न तो हम पाकिस्तान का समर्थन करेंगे और न ही भारत का’ लेकिन बाद में अमेरिका को महसूस हुआ कि कश्मीर मुद्दा उसके लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. अंततः अपने हितों ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन करने का निर्णय लिया.

सन 1950 से लेकर 1962 तक भारत को खतरा सिर्फ पाकिस्तान के साथ था. लेकिन 1962 में चीन ने जब भारत पर आक्रमण कर दिया. तब भारत का एक और पडोसी देश एक बड़ा दुश्मन बनकर उभरा. जब इस युद्ध में, भारत ने रूस और अमेरिका दोनों से सहायता मांगी. तब रूस ने तटस्थता का रुख का अख्तियार किया, जबकी अमेरिका ने भारत को सहायता देने वादा किया. इसके बाद से ही भारत-अमेरिका के संबंधो में सुधार आना शुरू हुआ.
यह पहली बार ऐसा हो रहा था जब अमेरिका खुलकर भारत को हर संभव मदद देने का आश्वासन दिया था.
इससे पहले अमेरिका ने, 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन को समर्थन करने से मना कर दिया था, उस समय अमेरिका पूरे विश्व में लोकत्रांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की वकालत कर रहा था. अगर उस समय अमेरिका भारत का समर्थन कर देता तो भारत सन 1942 में ही आजाद हो जाता. परन्तु अमेरिका ने अपने हितो का ध्यान रखते हुए ब्रिटेन का विरोध करना उचित नहीं समझा.

आनंद गिरिधर दास (2005) अपने लेख “जे.के.फे. फेस्ड इंडिया-चाइना दिएलेमा” में लिखते है… सुरक्षा मीटिंग में इस बात पर बनी कि अगर चीन भारत पर दुबारा आक्रमण करेगा तो अमेरिका चीन पर परमाणु आक्रमण भी कर सकता है. जब पाकिस्तान को इस बात का पता चला तो पाकिस्तान ने इस अमेरिकन मदद का खुलकर विरोध किया.

सन 1962 से लेकर 1965 तक भारत और अमेरिका के संबंधो में थोडा सुधार आया. लेकिन सन 1971 में, भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत-अमेरिका सम्बन्ध सबसे निचले पायदान पर पहुँच गए क्योकि अमेरिका भारत को डराने के लिए वह अपना जहाजी बेडा बंगाल की खाडी तक भेज दिया था. जोकि भारत के लिए बहुत बड़ी चुनौती था. लेकिन तभी यू.एस.एस.आर. ने भारत को खुलकर सैनिक सहायता देने का फरमान जारी कर दिया जो कि अमेरिका के लिए सबसे बड़ा चुनौती था और हालात ऐसे बन गए गए कि अब तीसरा विश्व युद्ध होने वाला ही है.

इस सम्बन्ध में, दुनिस कुक्स अपनी किताब “इंडिया एंड द यूनाइटेड स्टेट्स: एस्त्रन्जेड डेमोक्रेसीज़ १९४१-१९९१” में लिखते है कि “अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी मात्रा में सैन्य व आर्थिक सहायता प्रदान की. इसमें कुछ हथियार इतने खतरनाक थे. जो भारत में भारी तबाही मचा सकते थे. तमाम अंतरराष्ट्रीय दबाव होने के कारण, अमेरिका भारत के खिलाफ़ कार्यवाही नहीं कर सका. और पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने नयी पहचान ‘बांग्लादेश’ के रूप में आज़ाद हो गया और वहीँ कुछ सालो बाद अमेरिका ने ‘बांग्लादेश’ को एक संप्रभु राष्ट्र भी मान लिया.

सन 1971 में, जब भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने भारत पर आर्थिक पाबंदिया लगा दी. लेकिन कुछ ही दिनों में ये पाबंदिया हटा ली गयी. सन 1979 में जब यू.एस.एस.आर. ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, तो अमेरिका ने इसका खुलकर विरोध किया लेकिन भारत ने इस मुद्दे पर डिप्लोमेटिक स्टैंड लिया, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने यू.एस.एस.आर. का विरोध किया और जब यही मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में आया, तो भारत इस पर मौन रहा.
तब अमेरिकी लोगो में यह सन्देश गया कि भारत अप्रत्यक्ष रूप से यू.एस.एस.आर. का समर्थन करता है और एक बार फिर भारत और अमेरिका के संबंधो में संसंशय का घेरा छा गया.
सन 1990 में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक नया मोड़ आया. जब यू.एस.एस.आर. का साम्यवादी एम्पायर धराशायी हो गया और अमेरिका का विश्व पटल पर एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभार हुआ. उस समय भारत के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में, आपने आप को कहा रखे.
तब भारत बड़ी सूझ-बूझ के साथ उदारवाद की नीति को अपनाकर अपनी विदेश नीति में परिवर्तन किया. और अमेरिका के साथ-साथ अन्य उदारवादी देशो से अपने सम्बन्ध सुधारने की कोशिश करने लगा. सन 1991 से 1997 भारत और अमेरिका के संबधों में काफी सुधार आया लेकिन वहीँ जब भारत ने दोबारा सन 1998 में परुमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने कडा रुख अपनाते हुए भारत के खिलाफ आर्थिक पाबंदिया लगा दी. लेकिन यह 1971 का भारत नहीं था, 1998 में भारत विश्व के बाज़ार में एक बड़ी पहचान बना चुका था.
इसलिए अमेरिका ने, सन 2000 आते-आते उभरते बाज़ार व उसके भू-राजनीतिक महत्त्व को समझते हुए भारत के खिलाफ़ खिलाफ़ लगाए गए लगभग सभी पाबंदियों को अपने आप हटाने पर मजबूर होना पड़ा.
इस परिपेक्ष्य में, सन 2000 में, उस समय के तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा करते हुए कहा कि “हम” (भारत और अमेरिका) दोनों देश के प्रजातान्त्रिक मूल्यों को आगे बढ़ाएंगे, आर्थिक रिश्तो को भी मज़बूत करेंगे और आतंकवाद के खिलाफ़ मिलाकर लड़ेंगे.
सन 1947 से लेकर 2002 तक, दोनों देशो के संबंधो के इतिहास में यह पहला मौका था. जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने दोनों देशो की समस्यायों के लिए “हम” शब्द का प्रयोग किया था. अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने आपसी रिश्तों को और भी मजबूती देने का काम किया.
क्योंकि इन दोनों ने विज्ञान, प्रौद्गिकी, आर्थिक उन्नति और शिक्षा क्षेत्र में तमाम समझौते किये. इन समझौतों के साथ ही सबसे अहम् मुद्दा था ‘सिविल न्यूकलियर डील’ इसको लेकर दोनों देशों के बीच तमाम तरीके का वाद-विवाद हुआ. दोनों देशो ने अपने-अपने पक्ष रखे, इसके बाद 18 जुलाई 2006 को दोनों देशो ने ‘सिविल न्यूकलियर डील’ पर हस्ताक्षर किये.
इस समझौते के बाद न केवल साउथ एशिया बल्कि पूरेविश्व में यह सन्देश गया कि ये दोनों देश अपने रिश्तो को मजबूती से आगे बढ़ाना चाहते है. लेकिन पाकिस्तान इस समझौते से कतई खुश नहीं था. क्योकि अमेरिका पाकिस्तान का काफी वक़्त से करीबी दोस्त रहा था. और वह चाह रहा था कि अमेरिका को परुमाणु समझौता भारत के साथ न करके पाकिस्तान के साथ करना चाहिए था.

यह समझौता भारत की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता थी, इसके साथ ही अमेरिका ने भारत के साथ रक्षा क्षेत्र में समझौते किये. जैसे कि ‘न्यू फ्रेम वर्क डिफेंस अग्रीमेंट 2005’, ‘न्यू फ्रेम वर्क मेरीटाइम अग्रीमेंट 2006’ और कई मेमोरंडम साइन किये गए.
अगर हम ओबामा और मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल को देंखे तो हम पाते है कि इन दोनों ने पहले कार्यकाल में दोनों देशो के रिश्तों पर अधिक जोर दिया और मजबूती से इस रिश्तों को आगे बढ़ाने का काम किया. लेकिन दूसरे कार्यकाल में दोनों रिश्तो में थोड़ी शिथिलता देखने को मिली. जिन क्षेत्रो में समझौते हुए थे. उनको तेजी से अमल में नही लिया गया.
लेकिन यह दौर उस समय ख़त्म हुई, जब भारत में नए प्रधानमत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभाला. सितम्बर 2014 में, मोदीजी ने अमेरिका गए, तब ‘न्यू फ्रेम वर्क डिफेंस अग्रीमेंट 2005’ की पुनः शुरुआत की और इसके साथ रक्षा क्षेत्र में ‘डिफेंस टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनिशिएटिव’ की भी शुरुआत हुई. जिसके तहत अमेरिका ने भारत को रक्षा क्षेत्र की महत्वपूर्ण टेक्नोलॉजी देने का वादा किया. जो कि दोनों देशो के रिश्तों को जमीनी हकीकत देने के लिए सबसे जरूरी था.

जब भी भारत-अमेरिका के रिश्तों की बात होती थी तो लोग यह आरोप लगाते थे कि दोनों देशो के रिश्ते हकीकत से ज्यादा काल्पनिक है. लेकिन रक्षा और परमाणु क्षेत्र में अमेरिका के अहम् सहयोग ने दोनों देशो के रिश्तों को काल्पनिक से हकीकत में बदल दिया.

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  1. भावना और उधार के आश्वासन की बजाए यथार्थ और अधिकतम देशो के साथ आपसी हितों का समन्वय हमारे सम्बन्धो के मार्ग को प्रशस्त करे.

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