भारत की ईंधन आपूर्ति की दूसरों पर निर्भरता कितनी सार्थक है ?

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत के लिए यह एक अच्‍छी बात है कि जब से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने हैं, विश्‍व स्‍तर पर देश पूर्व की अपेक्षा ओर अधिक शक्‍ति सम्‍पन्‍नता की दृष्‍टि से देखा जाने लगा है। विदेशी मुल्‍कों से जो अनुबंध इन दिनों हुए भी हैं तो वे ज्‍यादातर भारत के पक्ष में ही अधिक रहे हैं। अकेले पाकिस्‍तान को छोड़कर पड़ौसी मुल्‍कों से भी हमारे संबंध दिनों-दिन मधुर हो रहे हैं। इसी तारतम्‍य में बात करें तो अपने आपसी रिश्तों को नया आयाम देते हुए भारत और संयुक्त अरब अमीरात एक-दूसरे के और करीब आ रहे हैं। यूएई भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिहाज से तेल की आपूर्ति बढ़ाने को तैयार हो गया है। भविष्‍य में वह मंगलोर स्थित कच्चे तेल भंडार का आधा हिस्सा भरेगा। यानि कि अबू धाबी नेशनल ऑयल कारपोरेशन 60 लाख बैरल कच्चे तेल का मंगलोर में भंडारण करेगा।

गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भारत आए क्राउन प्रिंस शेख मुहम्मद बिन जायद अल नाहयान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच जो दोनों देशों के 14 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, उससे साफ है कि आगे दोनों देश मजबूत साझेदार बनेंगे। दोनों देशों के बीच जिन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, बताया यही जा रहा है कि इनमें रक्षा, सुरक्षा से लेकर व्यापार और समुद्री क्षेत्र तक शामिल हैं। देखा जाए तो इन सब के बीच रक्षा उपकरणों के निर्माण के लिए किया गया समझौता भी आज विशेष महत्‍व रखता है। इससे भारत को अपने रक्षा उपकरणों के लिए एक अहम बाजार मिलेगा। साथ ही अपनी सुरक्षा को नई धार देने में जुटे यूएई को पड़ोस से ही विश्वस्तरीय रक्षा उपकरण मिलने का रास्ता साफ हो गया है। परन्‍तु जो बात बार-बार ध्‍यान आ रही हैं और चुभ रही है, वह यही है कि हम अपनी ऊर्जा और ईंधन आवश्‍यकता की पूर्ति के लिए दूसरे देशों पर कब तक निर्भर रहेंगे ?

क्‍या भारत में ऐसा वक्‍त केंद्र और राज्‍य सरकारों के प्रयासों एवं जन सहयोग से कभी उत्‍पन्‍न होगा कि हम अपनी ईंधन आपूर्ति स्‍वयं अपने बूते पूरी कर सकेंगे। आज ऐसा नहीं है कि हम अपनी ईंधन पूर्ति करने में अक्षम है। वस्‍तुत: जो बात जरूरी है वह है स्‍वच्‍छता अभियान की तरह इस दिशा में जागरुकता लाने के लिए जोर-शोर से आवश्‍यक प्रयास किए जाने की ।

आज देश में न केवल जनता के स्‍तर पर बल्कि सरकारी स्‍तर पर भी जो व्‍यवस्‍था है वह हमें आवश्‍यकता से अधिक ईंधन खपत के लिए प्रेरित करती है। क्‍या हम इसके लिए जापान, चीन जैसे देशों से कुछ सीख सकते हैं ? जहां एक क्षेत्र या एक स्‍थान से दूसरे समान स्‍थान या उसके बीच के किसी स्‍थान तक पहुँचने के लिए लोग एक ही वाहन का इस्‍तमाल करते हैं। हर सरकारी अधिकारी को एक नहीं दो-चार गाड़िया उसके पद और हैसीयत के हिसाब से क्‍यों मिलना चाहिए ? यदि सचिवालय में कार्यरत चार अधिकारी एक ही कॉलोनी में रहते हैं और ऑफिस भी उन्‍हें एक ही स्‍थान पर जाना है तो क्‍यों नहीं चारों के लिए एक ही वाहन का सरकारी प्रावधान होना चाहिए।

इसी प्रकार सरकार लगातार शताब्‍दी गाड़ि‍यों से लेकर दुरंतों, चेयरकार गाड़ियों का किराया बढ़ाती जा रही है। इससे हो यह रहा है कि जो परिवार इन गा‍ड़ि‍यों में सफर करते हैं, उन्‍हें टिकिट महंगी मिलने के कारण ये लोग 200 से 1000 किलोमीटर के सफर के लिए निजि वाहनों का उपयोग कर रहे हैं जो उन्‍हें सस्‍ता पड़ता है, किंतु इस बीच देखा जा रहा है कि सरकार की गाड़ि‍या जो जनता के लिए चलाई गई हैं वे खाली चल रही हैं, रेलवे आगे घाटे का रोना रोती है । तो क्‍यों नहीं इन गाड़ि‍यों में रेल किराया या कहना चाहिए सार्वजनि‍क वाहनों में सरकार क्‍यों नहीं ऐसी व्‍यवस्‍था लागू करती कि लोग अपने वाहनों से यात्रा करने से अधिक से अधिक बचे और सार्वजनिक वाहन सेवा का ज्‍यादा से ज्‍यादा उपयोग करने के लिए प्रेरित हों। इससे निश्‍चित ही ईंधन की खपत कई हजार लीटर प्रतिदिन बचेगी। देश का धन भी विदेश जाने से बचेगा।

इतना ही नहीं तो अपनी ईंधन आपूर्ति के आज कई उपाय उपलब्‍ध हो गए हैं, आवश्‍यकता अब इस बात की है कि सरकार उन्‍हें प्रोत्‍साहित करे, जिससे कि लोगों की ईंधन तेल के प्रति नि‍र्भरता कम से कम हो सके। यह जो ईंधन आपूर्ति के लिए हमारे अनुबंध हैं वे अपनी जगह हैं, अच्‍छा तो तभी है कि हम अपने और सरकारी प्रयासों से प्रेरित होकर ईंधन के प्रति अपनी विदेशी निर्भरता कम से कम कर दें । इससे देश की राष्‍ट्रीय संपत्‍ति‍ धन तो बचेगा ही आत्‍मनिर्भरता के बीच विश्‍व में हम और पहले से अधिक सीना तानकर चल सकेंगे।

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  1. मुझे कभी कभी लगता है कि ऐसे तकनीकी विषय पर मयंक चतुर्वेदी जैसे हिन्दीदां को क्यों कलम उठानी पड़ रही है या मेरे जैसे अधकचरे ज्ञान वाले लोग इस पर टिपण्णी करने के लिए क्यों वाध्य हैं?क्यों नहीं कोई विशेषज्ञ इस पर लिखता या टिपण्णी करता.चलिए,मयंक जी को मैं भी कुछ सहयोग देने का प्रयत्न करता हूँ.पहली बार विश्व ने या यों कहिये कि पेट्रोलियम पदार्थ आयात करने वाले देशों ने उस समय यह झटका महसूस किया था,जब १९७२-७३ में तेल निर्यात करने वाले अरब देशों ने इजराइल से शिकस्त खाने के बाद कच्चे तेल के दामों में एक बारगी करीब ८०% की वृद्धि कर दी थी.इस झटके ने बहुत देशों को पेट्रोल यह यों कहिये कि ईंधन के मामले में आत्म निर्भरता की ओर खीचा था. भारत में भी उस समय इस तरफ कुछ शुरुआत हुई थी,पर जैसा की यहाँ अक्सर होता है,जोश में कुछ काम अवश्य हुए,पर बाद में टाएं टाएं फ़ीस. बहुत वर्षों बाद फिर २००४ में मन मोहन सिंह ने कहा था कि हमलोगों को पेट्रोल और डीज़ल पर निर्भरता और उनका आयात कंम करने की जरूरत है,पर इस दिशा में क्या प्रयत्न हुए ,मुझे नहीं मालूम. अब फिर चतुर्वेदी जी ने इस प्रश्न को उठाया है,तो क्यों न सरकार के साथ साथ हमलोग भी विचार करें कि आत्मनिर्भरता के लिए क्या कदम उठाने चाहिए.अच्छा हो,प्रवक्ता.कॉम इस पर एक परिचर्चा आयोजित करें और अच्छे सुझावों को सरकार तक पहुँचाया जाये.

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