काशी से भारत को एक नई पहचान मिलेगी

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-ललित गर्ग-

काशी विश्वनाथ मंदिर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण काशी के विकास, पुनरुद्धार और विस्तार से समूची दुनिया में काशी को एक नई पहचान मिलेगी। राष्ट्रीयता का प्रतीक बनकर यह सशक्त भारत का आधार बनेगा। इससे न सिर्फ वहां जाने वाले श्रद्धालुओं को काफी सुविधा मिलेगी, बल्कि संकीर्ण दायरों में सिकुड़ते गए एक आस्था और सभ्यता के प्रतीक को भी गरिमा प्राप्त होगी। इससे केवल काशी ही नहीं, बल्कि समूचा देश एक उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर होगा। इस परिसर के पहले चरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भव्य एवं शालीन तरीके से करते हुए प्रत्येक भारत को स्व-आस्था, स्व-संस्कृति एवं स्व-अस्तित्व का अहसास कराया है। भारत का सांस्कृतिक वैभव दुनिया में बेजोड़ रहा है, लेकिन तथाकथित राजनीतिक स्वार्थों एवं संकीर्णताओं के चलते इस वैभव को दुनिया के सामने लाने की बजाय उसे विस्मृत करने की कुचेष्टाएं एवं षड़यंत्र लगातार होते रहे हैं। सुखद स्थिति है कि अब हमारी जागती आंखो से देखे गये स्वप्नों को आकार देने का विश्वास जागा है तो इससे जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित करने एवं नया भारत निर्मित करने का माहौल एवं मंशा देखने को मिल रही है, जो शुभ है, नये एवं समृद्ध भारत के अभ्युदय का द्योतक है। अब अहसास होने लगा है हमारी स्व-चेतना, स्व-संस्कृति, राष्ट्रीयता एवं स्व-पहचान का। जिसमें आकार लेते वैयक्तिक, सामुदायिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक अर्थ की सुनहरी छटाएं हैं।
यह सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी का अयोध्या, मथुरा और काशी के तीन धर्म-स्थलों के पुनरुद्धार का वादा बहुत पुराना रहा है, मगर काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के विस्तार और पुनरुद्धार को केवल राजनीतिक दृष्टि से देखने की मानसिकता देशहित में नहीं है। यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इसलिए इसी दृष्टि से इस आयोजन की व्याख्या अधिक हो रही है या इसे राजनीतिक रंग देने के प्रयास भी बढ़-चढ़ कर हो रहे हैं। मगर इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कर सकता कि काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास जिस तरह का अतिक्रमण एवं अवैध कब्जे से इस धार्मिक एवं आस्था-स्थली की गरिमा दिनोंदिन कम होती गयी है, जिस तरह धीरे-धीरे इतने मकानों और दुकानों ने जगह घेर ली थी, धीरे-धीरे व्यावसायिक दबाव की वजह से जिस तरह से विश्वनाथ धाम की उपेक्षा बढ़ती जा रही थी, जैसे-जैसे वहां पहुंचने की गलियां संकरी होती जा रही थीं, वैसे-वैसे काशी का आकर्षण भी कहीं न कहीं प्रभावित हो रहा था। उन गलियों से गुजरना अकेले आदमी के लिए भी मुश्किल काम हुआ करता था। बेशक काशी अपनी गलियों के लिए विख्यात है और कई लोगों को उसी में उसकी सुंदरता नजर आती है, मगर सुरक्षा की दृष्टि से वहां की गलियां उचित नहीं कही जा सकती थीं। धाम की ओर जाने वाली गलियों का चौड़ीकरण एवं सौन्दर्यकरण नामुमकिन लगता था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दृढ़ संकल्प एवं नेक इरादों से यह काम आसान हुआ। उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि यदि सोच लिया जाए, तो असंभव कुछ भी नहीं है।
प्रधानमंत्री की इस परियोजना के मार्ग में कई अड़चनें थीं, दुकानों, लोगों को विस्थापित किया गया, दृढ़ता के साथ कुछ धर्मस्थल भी हटाए गए, चंद लोग तो आज भी राजनीतिक कारणों से विरोध जता रहे हैं, लेकिन एक भव्य मंदिर परिसर के रूप में परिणाम दुनिया के सामने है। एक बार उस क्षेत्र में बम विस्फोट भी हुआ था, तब से सुरक्षा के लिहाज से काशी विश्वनाथ मंदिर को जाने वाली गलियों को खतरनाक माना जाने लगा था। अब न केवल इन खतरों से मुक्ति मिली है, बल्कि काशी को जो गरिमा दी गयी है, वह एक चमत्कार है, अजूबा है, आश्चर्य है, जिसे नरेन्द्र मोदी जैसे जीवट वाले व्यक्ति एवं शासक के लिये ही यह करना संभव कहा जा सकता है।
एक संकल्प लाखों संकल्पों का उजाला बांट सकता है यदि दृढ़-संकल्प लेने का साहसिक प्रयत्न कोई शुरु करे। अंधेरों, अवरोधों एवं अक्षमताओं से संघर्ष करने की एक सार्थक मुहिम हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वर्ष 2014 में शुरू हुई थी। उनके दूसरे प्रधानमंत्री के कार्यकाल में सुखद एवं उपलब्धिभरी प्रतिध्वनियां सुनाई दे रही है, कुछ समय पूर्व हमने मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के मन्दिर के शिलान्यास का दृश्य देखा। अभी काशी में विश्वनाथ धाम का जो विकास हुआ है, उसे देखा। मोदी ने अपने अब तक के कार्यकाल में जता दिया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति वाली सरकार अपने फैसलों से कैसे देश की दशा-दिशा बदल सकती है, कैसे कोरोना जैसी महाव्याधि को परास्त करते हुए जनजीवन को सुरक्षित एवं स्वस्थ रख सकती है, कैसे महासंकट में भी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त होने से बचा सकती हैं, कैसे राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए पडौसी देशों को चेता सकती है, कैसे स्व-संस्कृति एवं मूल्यों को बल दिया जा सकता है। इसलिये काशी, अयोध्या, केदारनाथ जैसे धर्मस्थलों और तीर्थों के विकास की किसी भी पहल की भी प्रशंसा होनी ही चाहिए। काशी की जो चमत्कारपूर्ण एवं विलक्षण आभा सामने आयी है, इसके लिये नरेंद्र मोदी को पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए।
काशी हो या अयोध्या या ऐसे ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्रांति के परिदृश्य- ये अजूबे एवं चौंकाने वाले लगते हैं। काशी से नरेन्द्र मोदी ने जो संदेश दिया है, उसे केवल चुनावी नफा-नुकसान के नजरिये से नहीं देखना चाहिए, बल्कि एक सशक्त होते राष्ट्र के नजरिये से देखा जाना चाहिए। उनका यह कहना खास मायने रखता है कि सदियों की गुलामी के चलते भारत को जिस हीनभावना से भर दिया गया था, आज का भारत उससे बाहर निकल रहा है। यह स्थिति विशेष रूप से गौरवान्वित करती है। वाकई यहां अब कोई संदेह शेष नहीं है कि यह सरकार देश व समाज को बदल रही है, लोगों का जीवनस्तर उन्नत कर रही है। मोदी अपने आलोचकों को खूब जानते हैं, अतः उन्होंने उचित ही कहा है कि आज का भारत सिर्फ सोमनाथ के मंदिर का सौंदर्यीकरण ही नहीं कर रहा, अयोध्या में श्रीराम के मन्दिर के सदियों पूराने सपने को आकार ही नहीं दे रहा है, बाबा केदारनाथ धाम का जीर्णाेद्धार ही नहीं कर रहा, बाबा विश्वनाथ धाम को भव्य रूप ही नहीं दे रहा है बल्कि सीमाओं की सुरक्षा भी बेखूबी कर रहा है, समुंदर में हजारों किलोमीटर ऑप्टिकल फाइबर भी बिछा रहा है, हर जिले में मेडिकल कॉलेज भी बना रहा है, गरीबों को पक्के मकान भी बनाकर दे रहा है, रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा की अनूठी व्यवस्थाएं भी कर रहा है। मतलब वर्तमान शासन-नायकों को विरासत और विकास की समन्वित चिंता है। हिंदुत्व की चिंता है, तो विकास की भी पूरी फिक्र है। अब सुधार, सुशासन, स्व-संस्कृति, स्व-पहचान के दीपक जल उठे हैं, तो उसकी रोशनी तमाम देशवासियों को नया विश्वास, सुखद जीवनशैली देगी।
काशी विश्वनाथ मंदिर आस्था का केंद्र होने के अलावा स्थापत्य की दृष्टि से भी एक बेजोड़ नमूना है। जैसाकि मोदी ने कहा है कि काशी तो काशी है! काशी तो अविनाशी है। काशी में एक ही सरकार है, जिनके हाथ में डमरू है, उनकी सरकार है। जहां गंगा अपनी धारा बदल कर बहती हों, उस काशी को भला कौन रोक सकता है।’ इसलिए काशी का विकास एवं पहचान दुनिया को आकर्षित करेंगी, वहां विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में आएंगे। इस काशी को मोदी से पहले रानी अहिल्याबाई ने, विभिन्न रियासतों के राजाओं ने सांस्कृतिक वैभवता प्रदत्त की। दुनिया के तमाम विकसित और अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति संवेदनशील देश अपनी धरोहरों के संरक्षण और उन तक पर्यटकों की पहुंच सुगम बनाने संबंधी नीतियों पर गंभीरता से ध्यान देते रहे हैं। जबकि इस मामले में हमारी सरकारें अक्सर उदासीन नजर आती रही हैं। शासन की इस विडम्बना एवं विसंगति को दूर किया जा रहा है, यह समय की मांग भी है और राष्ट्रीय विकास की बड़ी जरूरत भी है। जिसमें हम जीते हैं, वह है सभ्यता और जो हममें जीती है वह है संस्कृति। संस्कृति ने अपने जीने का सबसे सुरक्षित स्थान मानव मस्तिष्क, मानव मन एवं मानव शरीर चुना और मानवीय मूल्यों का वस्त्र धारण किया, पर आज मानव यानी तथाकथित राजनीतिक लोग उन मूल्यों को अनदेखा कर रहा है, तोड़ रहे हैं। मात्र संकुचित स्वार्थ के लिए, वोटों के लिये। इसी कारण देश का चरित्र नहीं बन पाया है। अब राष्ट्रीय चरित्र निर्मित करने के प्रयास हो रहे हैं एवं यह एक बड़ी भूल का सुधार है तो इसका स्वागत होना चाहिए। एक नई किस्म की वाग्मिता लगातार संकीर्ण राजनीतिक कारणों से पनपती रही है जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों के आधार पर टिकी थी। जिसमें सभी नायक बनना चाहते थे, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी सामाजिक व्यवस्था किस के हित में होती? सब अपना बनाते रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में एकता की संस्कृति का नाम सुनते ही हाथ बंदूक थामने या देश को तोड़ने को मचल उठते थे। तभी मनुष्यता क्रूर, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गई थी। बहस वे नहीं कर सकते थेे, इसलिए बंदूक उठाते थे। संवाद की संस्कृति के प्रति असहिष्णुता की यह चरम सीमा थी। अब संवाद भी है और संस्कृति उद्धार भी है, यह सशक्त एवं नये भारत का जन्म है।

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