वासुदेव त्रिपाठी
आज जब समूचा भारतीय उपमहाद्वीप बेहद संवेदनशील दौर से गुजर रहा है और नाटो सेनाएँ अफ़ग़ानिस्तान से निकलने की तैयारी में हैं, पाकिस्तान के बदतर हालातों के बींच सफल लोकतान्त्रिक सत्ता हस्तांतरण एशियाई व वैश्विक परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। नवाज़ शरीफ के रेकॉर्ड तीसरी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने हैं और उनसे भारत समेत पश्चिमी देशों व अफ़ग़ानिस्तान को काफी आशाएँ हैं। इन आशाओं को स्वयं शरीफ ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान खाद पानी दिया था और कई बार भारत के साथ बेहतर सम्बन्धों को अपना एजेंडा भी बताया था। लेकिन 5-6 अगस्त की रात को जिस तरह से पाकिस्तानी सेना ने बार्डर एक्शन टीम के साथ भारतीय सीमा में घुसकर 5 जवानों का बर्बर तरीके से कत्ल कर दिया उसने नमाज़ शरीफ की नियत और क्षमता पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये हैं। ये घटना जनवरी 2013 की उस घटना की लगभग पुनरावृत्ति थी जिसमें हमारे दो जवान शहीद हुये थे और पाकिस्तानी सैनिक एक का सर काटकर ले गए थे। इसके अतिरिक्त पाकिस्तानी सेना द्वारा सीमा पर सीज़ फ़ाइर का उल्लंघन भी लगातार जारी है। अर्थात मियां शरीफ के आने के बाद बहुत कुछ नहीं बदला।
भारत को एक के बाद एक ऐसे अपमानजनक दुर्व्यवहारों के बाद एक सम्पूर्ण समीक्षा एवं इन घटनाओं के निहितार्थ और भविष्य की संभावनाओं/आशंकाओं को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। समय आ गया है कि सरकार वार्ता व क्रिकेट रोक देने और फिर शुरू कर देने से आगे की रणनीति पर भी गौर करे। निश्चित रूप से वार्तालाप वैश्विक राजनीति का अहम हिस्सा है किन्तु तभी तक जहां तक उससे निष्कर्ष की कोई संभावना हो! अतः हमें संभावनाओं और हालातों को बारीकी से समझना होगा।
निकट भविष्य में भारत की सीमाओं और कश्मीर क्षेत्र में शांति व्यवस्था को पाँच कारक प्रभावित करेंगे। नाटो की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी, चीन का रुख, पाकिस्तानी सेना/आईएसआई, आतंकवादी संगठन और खुद नमाज़ शरीफ की सरकार.! महत्वपूर्ण बात यह है कि नाटो सेना को छोड़कर बाकी चारों की गतिविधियां भारत को केंद्र में रखकर ही आकार लेंगी, हाँलाकि अमेरिका भी अपनी सेनाओं की वापसी के बाद कश्मीर से प्रभावित होने वाली स्थिति पर गौर किए हुये है। सबसे पहले तो हमें नमाज़ शरीफ के नवनिर्वाचन से पैदा होने वाली संभावनाओं को परखना होगा जिसे लेकर भारत सरकार काफी सकारात्मक व उत्साहित रुख दिख रही है।
नवाज़ शरीफ पाकिस्तानी राजनीति के कद्दावर नेता हैं जिन्होंने देश से निष्कासन जैसी हालत से उबरकर पुनः प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का कारनामा कर दिखाया है। शरीफ भले ही इस बार भारत के साथ बेहतर सम्बन्धों पर ज़ोर देते नजर आ रहे हों लेकिन ये उनकी राजनैतिक विवशता अधिक है न कि उनकी नियत.! शरीफ ने इस बार सत्ता संभालते ही ऐसा पाकिस्तान विरासत में पाया है जिसके अंदरूनी हालात ऐतिहासिक रूप से बिगड़े हुये हैं। चाहे वह सरकार के नियंत्रण से बाहर पश्चिमोत्तर का हिस्सा हो, या पंजाब से सिंध तक हर रोज होते आतंकी बम धमाके हों या फिर अमेरिका के ड्रोन हमले, पाकिस्तान हर ओर से त्रस्त और बदहाल है। ऐसे में शरीफ के लिए आवश्यक था कि वे अपने देश को कोई बड़ा सकारात्मक आश्वासन दे सकें अतः उन्होने भारत के साथ बेहतर सम्बन्धों व कश्मीर समस्या के समाधान को एक ऐसी आशा के रूप में प्रस्तुत किया जिससे पाकिस्तान की एक पुरानी उलझन दूर हो जाएगी। जल्दबाज़ी में शायद भारत सरकार ने शरीफ के पाकिस्तानियों को दिये इस आश्वासन को भारत को दिया आश्वासन समझ लिया जबकि दोनों में बड़ा फर्क है.! पाकिस्तानियों के लिए कश्मीर समस्या के समाधान का मतलब है उसके पक्ष में निर्णय और भारत के लिए इसका मतलब है कि पाकिस्तान इसे भारत का हिस्सा मान ले। अतः इस समस्या का शरीफ कोई समाधान कर पाएंगे ऐसा बिलकुल नहीं लगता और इस समस्या के बरकरार रहते भारत-पाकिस्तान संबंध सामान्य होंगे ऐसी संभावना स्वयं पाकिस्तान कई बार नकार चुका है।
और भी महत्वपूर्ण यह है कि नमाज़ शरीफ का अतीत ऐसा नहीं रहा है जिससे कि हम बहुत आश्वस्त हो सकें! नमाज़ शरीफ न सिर्फ एक कट्टरवादी इस्लामिक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं वरन भारत के खिलाफ सम्पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक नीति में भरोसा करते हैं। भारत द्वारा पोखरण परीक्षण किए जाने के बाद शरीफ ने कहा था कि वे भारत को माकूल जबाब देंगे और फिर जबाब में पाकिस्तान ने अपना परमाणु परीक्षण किया बावजूद इसके कि बेहद खराब आर्थिक स्थितियों से जूझते उनके देश में ही कई लोग इसके पक्ष में नहीं थे। अतः अपने से कहीं बड़े और सक्षम देश भारत की प्रतिस्पर्धा का पाकिस्तानी रवैया इस बार भी शरीफ के कार्यकाल में जारी ही रहेगा और विश्वास बहाली की संभावनाएं नहीं बन सकेंगी.! इसके अतिरिक्त हमें यह भी याद रखना होगा कि इन्हीं मियां नमाज़ के दूसरे कार्यकाल में भारत को शान्ति प्रयासों के जबाब में कारगिल झेलना पड़ा था। शरीफ दावा करते हैं कि कारगिल पर मुशर्रफ ने उन्हें अंधेरे में रखा और यह मुशर्रफ की एकतरफा कार्यवाही थी। यह आधकचरा झूठ है क्योंकि सेना द्वारा इतने बड़े युद्ध की साजिश रची जाए और उसे अंजाम दिया जाए और देश के प्रधानमंत्री को भनक न लगे, यह एक बचकाना तर्क है। सच यह है मुशर्रफ ने शरीफ को कारगिल के कठिन हालातों व वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं दी और शरीफ समझ बैठे थे कि बैठे बिठाये कारगिल को हथिया लेंगे। जनरल कियानी समेत अन्य कई पाकिस्तानियों के वक्तव्य इसी ओर इशारा करते हैं। अन्यथा यदि शरीफ वाकई शरीफ थे तो कम से कम युद्ध शुरू हो जाने के बाद पूरे मामले में पाकिस्तानी सेना के षड्यंत्र को क्यों नहीं स्वीकारा व इसे रोकने के प्रयास क्यों नहीं किए.?? शरीफ के झूठ को एक और घटना स्पष्ट करती है, कारगिल के समय पाकिस्तानी वायुसेना के दो फाइटर जेट भारतीय सेना ने इंटरसेप्ट किए थे, तब तत्कालीन पाकिस्तानी वायुसेना प्रमुख जनरल परवेज़ मेहंदी ने प्रधानमंत्री नमाज़ शरीफ को जिम्मेदार ठहराते हुये कहा था कि ये मेरी जानकारी के बिना किया गया। स्पष्ट है वायुसेना मुशर्रफ नियंत्रित नहीं कर रहे थे।
भविष्य मे देखें तो 2014 में नाटो सेनाओं के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और मुखर, बेलगाम व सशक्त हो जाएगा तथा पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठनों के हौसले बुलंद होंगे, परिणामस्वरूप अफ़ग़ानिस्तान के साथ साथ पाकिस्तान में आतंकी हमलों में कई गुना बढ़ोत्तरी होगी। ये बात शरीफ भी समझते हैं और पाकिस्तानी सेना व आईएसआई भी.! अतः शरीफ की कोशिश होगी कि आतंकवाद के जिस सँपोले को पाकिस्तान ने पैदा किया है उसके जहर से उसे बचाया जा सके। चूंकि आतंकी संगठनों की जड़े पाकिस्तान और उसके लोगों के बींच इतनी गहरी हैं कि उसे ताकत से दफन कर देना सरकार या सेना के वश की बात नहीं रहा अतः शरीफ का प्रयास होगा कि उनसे किसी तरह की डील हो जाए। चूंकि नमाज़ शरीफ कट्टर इस्लामी सोच के पोषक रहे हैं और उन्होने शरीयत को संवैधानिक बनाने के प्रयास करके जिआ-उल-हक के कामों को आगे बढ़ाया है जिनके वे राजनैतिक उत्पाद हैं, अतः कट्टरपंथी संगठनों की सहानुभूति भी उनसे है जोकि चुनावों में भी दिखी। अब नमाज़ इन आतंकी संगठनों से समझौता करने के प्रयास में हैं और इसी क्रम में उन्होने जमात-उद-दावा, जोकि लश्कर का छद्म नाम और हाफिज़ सईद का संगठन है, को जून महीने में 620000 डॉलर की सहायता भी दी है, जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के हवाले से पता चला। शरीफ इन संगठनों या इनमें से किसी एक-दो से भी यदि डील में सफल होते हैं तो उन्हें जिहाद के लिए एक नया ठिकाना देना होगा, और स्वाभाविक रूप से कश्मीर से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता है.! हाँलाकि शरीफ, सेना व आईएसआई के इन प्रयासों से पाकिस्तान में आतंक के धमाके कम होंगे ऐसा नहीं लगता क्योंकि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे संगठन अपने मुल्क में पूरी तरह शरीयत लागू करना चाहते हैं और अपनी नज़रों में वो पाकिस्तान के हक में लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान का अंतिम महत्वपूर्ण व मजबूत पहलू सेना व आईएसआई है और दोनों के भीतर एक भाग पर कट्टरपंथियों का दबदबा हो चुका है। यदि नमाज़ शरीफ अन्य प्रायोगिक पहलुओं व अंतर्राष्ट्रीय दबाब को ध्यान में रखकर ईमानदारी से भारत से संबंध बहाली के प्रयास करते भी हैं तो सेना व आईएसआई ऐसा नहीं होने देंगे। शरीफ अपनी एकछत्र स्वामित्व की इच्छा के लिए जाने जाते हैं और अतीत में जो भी सेनाप्रमुख उनके रास्ते में आया उन्होने उसे किनारे लगाने का काम किया है। जनरल जहाँगीर करामात से लेकर राष्ट्रपति तक के पर उन्होने कतरे और यही कोशिश मुशर्रफ पर भी की लेकिन दांव उल्टा पड़ गया था। इसलिए सेना में शरीफ को लेकर विश्वास नहीं है। यदि नमाज़ शरीफ भारत से संबंध मजबूत करते हैं तो ये उनकी छवि के लिए अच्छा होगा और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वो मजबूत होंगे जोकि सेना नहीं चाहेगी। ऐसी स्थिति में सेना कश्मीर में आतंकियों की मदद से अपनी कार्यवाही तेज कर देगी और शरीफ के प्रयासों को किनारे कर देगी। इस ताजा मामले को हम इस नजरिए से भी देख सकते हैं। भारत के लिए दोनों ही परिस्थितियों में शान्ति और संबंध बहाली की कोई संभावना नहीं है, चाहे नमाज़ शरीफ चाहें या न चाहें। हाँलाकि सच यही है कि मियां नमाज़ भारत से संबंध बहाली के लिए आतंकवादी संगठनों पर कार्यवाही करने की न तो स्थिति में हैं और न ही मूड में.!
अतः भारत सरकार को समझना होगा कि उसके लिए पाकिस्तान में शराफत की उम्मीद निरर्थक है, चाहे फिर वह शरीफ की सरकार हो या भारतीय सीमा घुसकर हमारे सैनिकों की हत्या करने वाली सेना या सेना के वर्दी में आतंकी.! क्योंकि ये तीनों ही एक दूसरे की जरूरत भी हैं और मजबूरी भी.!! 26/11 हमले से लेकर 2012 के 93 व 2013 के 57 सीज़ फ़ाइर उल्लंघन व सेना के जवानों की रात में कायरतापूर्ण घुसपैठ कर हत्या तक किसी भी मामले में कार्यवाही न करके पाकिस्तान भी बार-बार यही स्पष्ट करता आ रहा है। किन्तु दुर्भाग्य से हमारे विदेशमंत्री, प्रधानमंत्री व सरकार अभी भी कह रही है कि हम इसकी कड़े शब्दों में निंदा करते हैं लेकिन इससे शान्ति वार्ता को धक्का नहीं लगेगा.!! यही राग चीन की घुसपैठ पर भी सरकार का रहा है जोकि भारतीय सीमा शान्ति व सुरक्षा के लिए अगला सबसे बड़ा खतरा है और पाकिस्तान को लगातार भारत के खिलाफ हिम्मत दे रहा है।