ग्यारहवीं – बारहवीं में भारतीय भाषाओ की अनिवार्यता

शिक्षा

कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाले एनसीईआरटी के नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क कमिटी की इस सिफारिश की तारीफ की जानी चाहिए जो उन्होंने 11वीं 12वीं कक्षाओं में दो भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता बताई है । यह नई शिक्षा नीति का शायद सबसे व्यवहारिक और प्रभावी कदम होगा। मनुष्य बाकी जीवो से अपनी भाषा के कारण ही अलग है ।हजारों भाषाएं दुनिया के हजारों समुदायों, देशों में बोली जाती है ।यह मनुष्य का एक स्वाभाविक लक्षण है। शिक्षा उसे और परिमार्जित करती है। बेहतर बनाती है। कुछ कुछ मानक भी। लेकिन विदेशी दासता में रहे अधिकतर देशों का यह दुर्भाग्य कहा जाएगा कि वह गुलामी की उस भाषा को छोड़ नहीं पा रहे। भारतीय महाद्वीप पर इसका बहुत गहरा असर हुआ है । सबसे बुरा असर तो शिक्षा पर होता है जो किसी भी देश को बदलने के लिए सबसे प्रभावी हथियार होता है।

 आजादी  की लडाई के समय महात्मा गांधी और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं ने  भारतीय भाषाओं की आजादी के समानांतर ही वकालत की थी लेकिन दुर्भाग्यवश आजादी के बाद अंग्रेजी लगातार हावी होती गई। चाहे कोठारी कमीशन ने अपनी भाषाओं की बात की हो या प्रोफेसर यशपाल कमेटी ने या दूसरे विद्वानों ने। मगर सत्ता पर एक ऐसा वर्ग हावी रहा जो अंग्रेजी के बूते ही अपनी धौंस जमा सकता था । वह मजे से सत्ता का सुख भोगता रहा ।नतीजा बार-बार की सिफारिशों के बावजूद और शिक्षा की लगातार गिरती स्थितियों में भी भारतीय भाषाएं आगे नहीं बढ़ पाई।

मौजूदा सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं।नई शिक्षा नीति में बार-बार इस बात को दोहराया गया है की यथासंभव अपनी भाषा में शिक्षा दी जाए प्राथमिक स्तर पर तो प्रादेशिक भाषा बोली को प्राथमिकता दी ही गई है उसके आगे स्कूली शिक्षा में भी इसे जरूरी माना है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी इस बीच कुछ कदम उठाए हैं। जून 2023 में उन्होंने विश्वविद्यालयों को आदेश दिया है कि जहां अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई दी जाती है लेकिन उसमें पढ़ने वाले यदि अपनी प्रादेशिक भाषा में उत्तर देना चाहे तो उसे उसकी छूट दी जाए । मेडिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा भी शुरू हो गई है और उसके लिए पुस्तकें भी तैयार की जा रही हैं । इसीके समानांतर नौकरियों में भी अपनी भाषा धीरे-धीरे प्रवेश कर रही है । हालांकि गुलामी में पले और सामंती संस्कारों के अधिकारी अपनी विशिष्टता के लिए अभी भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे।

लेकिन मौजूदा कदम शायद सबसे प्रभावी साबित होगा ।75 साल में स्थिति यह हो गई है कि 11वीं 12वीं में अंग्रेजी तो अनिवार्य है भारतीय भाषाएं कम से कम उत्तर भारत से तो बिल्कुल ही गायब हो गई है ।निजी स्कूलों में तो उसकी कोई जगह ही नहीं है। दिल्ली नोएडा गाजियाबाद गुड़गांव के निजी स्कूलों की बात करें तो वहां नवी कक्षा से ही हिंदी या कोई भी भारतीय भाषाएं मुश्किल से ही पढ़ाई जाती है ।अंग्रेजी के साथ इन अमीरों के लिए जापानी फ्रेंच दुनिया भर की विदेशी भाषाये उपलब्ध हैं लेकिन भारत की भाषाएं नहीं। थोड़ी बहुत बची है तो सरकारी स्कूलों में।और सरकारी स्कूल जो लगभग 90% शिक्षा में मौजूद थे 50% भी नहीं बचे हैं ।यानी कि भारतीय भाषाएं की अंतिम उम्मीद भी गायब। जब केवल अंग्रेजी को अहंकार और प्रतिष्ठा का पर्याय मान लिया गया हो वहां न लोक और लोक भाषा के लिए कुछ बचता और न लोकतंत्र के लिए।

अच्छा हुआ कि मौजूदा सरकार ने इस रोग को सही पकड़ा है ।दक्षिण भारत में कम से कम दसवीं तक भारत की भाषाएं हैं । महाराष्ट्र कर्नाटक केरल में तो 2 से ज्यादा भारतीय भाषाएं विद्यार्थियों के सामने उपलब्ध रहती हैं। इसीलिए विज्ञान गणित रसायन शास्त्र जैसे पढ़ने वाले विद्यार्थी 11वीं बारहवीं में भी अपनी भाषा के साथ-साथ माध्यम भी भारतीय भाषाओं का चुनते हैं। क्या भारतीय भाषाओं को पढ़ने से दक्षिण भारत पीछे रह गया है ? क्या विकास के सभी पैमानों पर वहां बेहतर स्थिति नहीं है. यहां यह रेखांकित करना इसलिए जरूरी है कि उत्तर भारत के अंग्रेजी के मारे अमीर बार-बार विकास का पर्याय अंग्रेजी को मानते हैं. जबकि हकीकत इससे उल्टी है ।उत्तर भारत में अंग्रेजी इतनी हावी होती जा रही है कि लाखों बच्चे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा में हिंदी में फेल होते हैं और इसी अनुपात में उनकी शिक्षा की समझ में गिरावट आई है। यह याद रखने की बात है कि यदि एक बार समझ पैदा हो गई और जो अपनी भाषा में ज्यादा आसान होती है , उसके बाद कोई भी विदेशी भाषा सीखना भी उतना ही आसान होता है। यह दुनिया भर के शिक्षाविदों के अनुभव और निष्कर्ष हैं। और इसीलिए पूरे यूरोप चीन जापान से लेकर दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ अपनी भाषा में शिक्षा नहीं दी जाती हो । यही कारण है वे वैज्ञानिक उपलब्धियों , नई खोजों रचनात्मकता के विकास में ,समाज की बेहतरी में सबसे आगे हैं। पिछले दिनों जो अध्ययन सामने आए हैं उनमें से कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जिनकी शिक्षा अपनी भाषा में ना होती हो।
कुछ लोग विज्ञान गणित आदि की शिक्षा अपनी भाषा में देने का विरोध दुरूहता के नाम पर करते हैं। यह भ्रामक अवधारणा है। गणित का उदाहरण लीजिए। यदि व्यवहार में गुणा भाग करने की जरूरत पड़े तो सभी उसे अपनी भाषा में दोहराते हैं यानी कि मस्तिष्क का तंत्रिका तंत्र मातृभाषा के अनुरूप विकसित होता है और इसीलिए दुनिया को समझने कि उसकी शक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती है और फिर वही रचनात्मकता नवोन्मेष को आगे बढ़ाती है ।फिर शिक्षा वैसा बोझ नहीं बनती जैसा कि भारत जैसे देश में हो रहा है और अंग्रेजी के दबाव में इंजीनियरिंग कॉलेज मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं ।स्कूली स्तर पर सर्वेक्षण बताते हैं कि सबसे ज्यादा स्कूल छोड़ना सिर्फ अंग्रेजी के कारण होता है।

11वीं 12वीं में भारतीय भाषाओं के पढ़ाने के बहुत दूरगामी परिणाम होंगे । उस भाषा में सोचने अभिव्यक्ति की सामर्थ्य पैदा होगी और फिर यही लौटकर उनको अपनी भाषाओं में विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि की किताबें लिखने को प्रेरित करेगी । क्या एक सच्चे प्रशासक, न्यायाधीश को जनता की भाषा नहीं आनी चाहिए ? और क्या लोक का यह अधिकार नहीं है कि जो न्याय दिया जा रहा है, जो कलेक्टर साहब या दूसरे अधिकारी उनसे जो कह रहे हैं वह उसी भाषा में होना चाहिए। यदि उसी आंचलिक बोली भाषा के शब्द हों तो और भी अच्छा। आप किसी भी महानगर में सर्वेक्षण कर लीजिए सबसे ज्यादा बोलने वाले वहां की प्रादेशिक भाषा के होते हैं। चाहे बेंगलुरु हो दिल्ली हो तमिलनाडु हो और उसके बाद संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का क्रम आता है। आसाम से लेकर गुजरात, केरल, कश्मीर तक आप टूटी-फूटी हिंदी में बात कर सकते हैं। अंग्रेजी में नहीं ।लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे कुछ अमीरों ने ऐसा भ्रम फैलाया है कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता। उनका कुतर्क देखिए जब वे यह वकालत करते हैं कि विदेश में सिर्फ अंग्रेजी ही समझी जाती है। यह कितना बड़ा झूठ है !क्या चीन जापान फ्रांस में अंग्रेजी से काम चलता है ?नहीं! और दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष कि पहले हम अपने देश व उसके समाज की भाषा सीखेंगे कि विदेश जाने वाली किसी पनडुब्बी में डूब कर मरने के लिए पैदा हुए हैं ?सबसे प्रभावी कदम सरकार का 11वीं 12वीं में भारतीय भाषाओं का पढ़ाने का होगा! निश्चित रूप से इससे शिक्षा की पूरी तस्वीर बदल सकती है और शिक्षा से पूरे देश की ।

प्रेमपाल शर्मा
( लेखक शिक्षाविद हैं और भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं)

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