भारतीय मुसलमान स्वयं को संभाले / मा. गो. वैद्य

3
110

गत ११ अगस्त को मुंबई के आज़ाद मैदान में ‘रजा ऍकॅदमी’ नाम की मुस्लिम संस्था ने एक निषेध सभा का आयोजन किया था. असम और म्यांमार में मुसलमानों पर जो तथाकथित अत्याचार किए गए, उनका निषेध करने के लिए यह सभा, या धरना आंदोलन था. इसके लिए संस्था ने सरकार से अनुमति ली थी; और करीब हजार-डेढ हजार कार्यकर्ता उपस्थित रहेंगे, ऐसा निवेदन दिया था. लेकिन, वास्तव में वहॉं पंधरा हजार से अधिक मुसलमानों की भीड इकट्ठा हुई और उन्होंने जमकर हिंसाचार किया. उनका मुख्य आघात-लक्ष्य पुलिस और प्रसार माध्यम थे, ऐसा दिखता है. सरकारी आँकड़ों के अनुसार, इस हिंसाचार में २ की मौत हुई, और ५४ लोग घायल हुए. उन ५४ में ४५ पुलीस कर्मचारी थे. उन्होंने दूरदर्शन के दो चॅनेल के वाहन भी जला डाले, और अनेक छायाचित्रकारों के साथ मार-पीट कर उनके कॅमेरे भी तोड़े. पुलीस की गाडियों को भी उन्होंने आग लगाई. बसेस की भी उन्होंने तोड-फोड की. नीजि वाहन भी उनके हिंसाचार से बच नहीं पाए.

हिंसाचार का कारण

मुसलमानों के ऐसे और इतना भडकने का कारण क्या? जिस हिंसाचार में मुसलमानों की अधिक हानि हुई, वह म्यांमार और सुदूर असम में हुआ था. म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्य है. ८९ प्रतिशत. मुसलमान केवल ४ या ५ प्रतिशत. एक मुसलमान ने बौद्ध लड़की पर बलात्कार किया, इस कारण वहॉं के बौद्धों ने मुसलमानों को पीटा. म्यांमार में की घटना का अधिक ब्यौरा भारतीय समाचारपत्रों में प्रकाशित या प्रसार माध्यमों में प्रसारित नहीं किया गया. इसका अर्थ, वह बहुत गंभीर होने की संभावना नहीं दिखती. असम के कोक्राझार और चिरांग इन दो जिलों में बोडो जनजाति के लोग और बांगला देश में से आये मुस्लिम घुसपैंठियों के बीच संघर्ष हुआ. अब, ऐसा प्रकाशित हुआ है कि, इस संघर्ष में स्थानिक मुसलमानों का भी काफी नुकसान हुआ है.

शुरुवात मुसलमानों ने ही की

इन दोनों स्थानों पर के संघर्ष में मुसलमानों को अधिक मार पड़ा, ऐसा दिखता है. अन्यथा, हमारे ‘सेक्युलर’ देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दौडकर असम नहीं जाते. उनका म्यांमार में जाना संभव ही नहीं था. कारण वह हमारे भारत का हिस्सा नहीं और शायद वहॉं, हमारे यहॉं जैसे विकृत सेक्युलॅरिझम का हो-हल्ला चलता रहता है, वह भी नहीं. यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि, उकसाने का काम पहले मुसलमानों की ओर से हुआ. म्यांमार मेंे और कोक्राझार में भी. असम के कोक्राझार जिले में प्रथम स्थानिक बोडो जनजाति के चार युवकों की मुसलमानों ने हत्या की. लेकिन, केवल इतने से ही उनका समाधान नहीं हुआ. उन्होंने शांति के साथ उनके पड़ोस मेें रहने वाले बोडो के भी घर जलाना शुरू किया. फिर इस पर बोडो की ओर से बहुत ही उग्र प्रतिक्रिया हुई. उन्होंने जैसे को तैसा प्रखर जबाब दिया. लाखों मुसलमान बेघर हुए. बोडो की भी हानि हुई. निर्वासित शिबिरों में उनकी संख्या भी लाखों में है. इस बारे में अधिक ब्यौरा ८ अगस्त के अंक में प्रकाशित इसी स्तंभ में आ चुका है. इस कारण, यहॉं उसकी पुनरावृत्ति नहीं करता हूँ.

नकारात्मक परिणाम

सामान्यत:, मुसलमानों की ओर से प्रारंभ होने वाले हिंसाचार में उनके विरोधियों की हानि अधिक होती है. कारण, वे योजनापूर्वक आक्रमण करते हैं इसलिए उन्हें उनके आघात-लक्ष्य पहले निश्‍चित करते आते हैं. जब प्रतिकार शुरू होता है, तब तक बहुत हानि हो चुकी होती है और फिर पुलीस और अन्य सुरक्षा-दल वहॉं उपस्थित होने के कारण हिंसाचार पर काबू किया जाता है. कोक्राझार और पडोस के चिरांग जिले में ऐसा नहीं हुआ. अब वहॉं पुलीस और अतिरिक्त सुरक्षा दल उपस्थित होते हुए भी हिंसाचार पूर्णत: थमा नहीं. लोग अभी भी निर्वासित छावनियों में हैं. पडोस में रहने वाले मुसलमानों की कृतघ्नता भोगने के कारण, बोडो अब उन्हें अपने पडोस में नहीं रहने देना चाहते.

परिवर्तन का अवसर

लेकिन प्रश्‍न यह है कि, असम या म्यांमार में के घटनाओं की हिंसक प्रतिक्रिया मुबंई के मुसलमानों में क्यों प्रकट हो? मुसलमानों पर कहीं भी ‘अत्याचार’ या ‘अन्याय’ हो, दुनिया में के मुसलमानों को क्रोध आता है, ऐसी एक धारणा है. फिर गुवाहाटी, कोलकाता, पटना, लखनौ, दिल्ली में उस पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं प्रकट हुई? (अब एक सप्ताह बाद लखनऊ और इलाहबाद में भी मुसलमानों नेहिंसक आंदोलन करने के समाचार है.) यह सब बड़े शहर, मंबई की अपेक्षा कोक्राझार या असम के समीप है. इन शहरों में कुछ घटित न हो और सुदूर मुंबई में हो, इसका क्या कारण है? ‘रजा ऍकॅदमी’ जैसी मुसलमानों की संस्थाएँ तो उन शहरों में भी होगी ही. मुझे विश्‍वास है कि जिस म्यांमार देश में की घटनाओं के निषेध में मुंबई में हिंसाचार हुआ, वह देश कहॉं है, यह भी, मुंबई में, पुलीस की गाडियॉं जलाने वाले, महिला पुलीस के साथ दुर्व्यवहार करने वाले और जनता के वाहन जलाने वाले नराधमों को पता नहीं होगा. म्यांमार की बात ही छोड़ दे. कोक्राझार कहॉं है, यह भी वे हिंसाचारी बता नहीं सकेंगे. इससे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि, मुंबई में का हिंसाचार पूर्वनियोजित था. यदि हम मान भी ले कि, ‘रजा ऍकॅदमी’ने उसकी योजना नहीं बनाई थी. लेकिन, उस संस्था को इन कुछ प्रश्‍नों के उत्तर देने ही होगे कि, उनके मंच से भड़काऊ भाषण क्यों दिए गए? ऍकॅदमी के नेताओं ने उन्हें क्यों नहीं रोका? कोक्राझार और म्यांमार में मुसलमानों पर अत्याचार हुए, उसके चित्र मुंबई कै से पहुँचे? अब स्पष्ट हुआ है कि, जो चित्र दिखाकर मुसलमानों की भीड को भडकाया गया, वे न कोक्राझार के थे, न म्यांमार के. ऐसा कहा जाता है कि, वह थे २००२ के गुजरात दंगों के. यह सच है कि, गुजरात में मुसलमानों को जो भोगना पड़ा वह अभूतपूर्व था. गुजरात में २००२ के पूर्व अनेक दंगे हुए हैं. हर बार शुरुवात मुसलमानों की ओर से ही हुई थी. २००२ में भी, मुसलमानों ने ही ५७ गुजराती कारसेवकों को, वे यात्रा कर रहे गाडी के डिब्बे को आग लगाकर, जिंदा जला दिया था. शांत स्वभाव के लिए विख्यात, गुजराती हिंदुओं में इस कांड की ऐसी अकल्पित कठोर प्रतिक्रिया हुई कि, जिसके तीव्रता की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

मुसलमानों का कर्तव्य

इसलिए, मुसलमान ध्यान रखे कि, गोध्रा हो या कोक्राझार या म्यांमार, अब भविष्य में जनता उनकी गुंडागर्दी नहीं सहेगी. मुसलमानों ने स्वयं को संभालना चाहिए. समझदार मुसलमानों की संख्या निश्‍चित ही गुंड प्रवृत्ति के उनके धर्म-बंधुओं से अधिक है. उन्होंने अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित करना चाहिए. इसी में संपूर्ण समाज का हित है. कल्पना करे कि, मुंबई में के मुसलमान गुंडों का अकारण हिंसाचार देखकर हिंदू भड़के और उस हिंसाचार को वैसा ही प्रत्युत्तर देने लगे, तो कैसा अनर्थ होगा? मुझे नहीं लगता कि, मुंबई में के मुसलमान ऐसा कुछ चाहते होगे. इसलिए, मुंबई में के हिंसाचार की सही में उन्हें शर्म आती होगी, तो हर गॉंव के मुसलमानों ने शांति मोर्चे निकालकर या मूक प्रदर्शन कर अपने समाज में के गुंडाईयों का निषेध करना चाहिए. उसी प्रकार, ईशान्य भारत में के जो लोग नौकरी या पढ़ाई के लिए मुंबई, पुणे, बंगलोर, चेन्नई आदि शहरों में रहते हैं, उनकी सहायता कर उन्हें दिलासा देना चाहिए. उन्हें विश्‍वास दिलाना चाहिए कि डरो मत. जो कोई उन्हें एसएमएस भेजकर या अन्य तरीके से धमका रहे हैं, उन्हें मुसलमानों ने उत्तर देना चाहिए और ईशान्य भारत में के लोगों की सुरक्षा के लिए हम सज्ज है, ऐसा दिखा देना चाहिए. अन्यथा, इस धमकाने को उनकी भी सम्मति है, ऐसा ही निष्कर्ष निकाला जाएगा.

पश्‍चिम एशिया का चित्र

म्यांमार या कोक्राझार में हुई जानो-माल की हानि से प्रक्षुब्ध होने के बदले भारतीय मुसलमानों ने पश्‍चिम एशिया में आज जो हो रहा है उसकी अधिक चिंता करनी चाहिए. क्या हो रहा है पाकिस्तान या अफगाणिस्तान में? अथवा इराक में? या येमेन और सिरिया में? वहॉं कौन किसे मार रहा है? मुसलमान ही मुसलमानों को मार रहे हैं! अभी का समाचार है. गुरुवार १६ अगस्त का. दूर म्यांमार में का नहीं. पड़ोस के पाकिस्तान में का. तीन बसेस से यात्री जा रहें थे. उन्हें रोका गया. उनमें से २२ को नीचे उतारा गया. उनकी पूछताछ की गई. उनमें १२ शिया पंथी निकले. उनकी गोलियॉं मारकर हत्या की गई! क्या अपराध था उनका? यहीं कि वे शिया थे! पर थे तो मुसलमान ही! यह कैसा तुम्हारा इस्लामी मजहब, जो अपनो में के ही एक विशिष्ट पंथ के लोगों को जीने का अधिकार भी नहीं देता? उसी दिन इराक में भी वही हुआ. वहॉं २२ लोगों की हत्या की गई. वे ‘काफीर’ नहीं थे. मुसलमान ही थे. आज इराक में बहुसंख्यीय शिया लोगों की सत्ता है. इसके पहले सद्दाम हुसेन इस सुन्नी पंथीय तानाशाह की सत्ता थी. इराक में शिया पंथियों की संख्या ६१ प्रतिशत है और सुन्नी ३१ प्रतिशत है. लेकिन, सुन्नी सद्दाम, फौज के दम पर, बहुसंख्य शिया पर अन्याय और अत्याचार करता था. अब अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण बहुसंख्य शिया की सत्ता स्थापन हुई है. यह सुन्नियों को पसंद नहीं. इसलिए वहॉं रक्तरंजित संघर्ष चलता रहता है. सीरिया में तो गृहयुद्ध ही चल रहा है. कौन किसकी हत्या कर रहा है? मुसलमान ही मुसलमानों की! जो सिरिया में वही येमेन में. वही अफगाणिस्थान में. वहॉं सत्ता से बेदखल हुए तालिबान सत्तारूढ मुसलमानों की जान ले रहे हैं. यह सब रक्तलांछित लांछनास्पद हिंसाचार, थोडा गंभीरता से सोचे, तो इस्लाम को ही लांछित कर रहा है. इसके विरुद्ध क्यों नहीं हुए निषेध प्रदर्शन?

हिंदू धर्म का उदाहरण

यह आपसी संघर्ष इस्लाम को केवल लांछित ही नहीं कर रहा, तो वह इस्लाम का भविष्य ही खतरे में डाल रहा है. इस इस्लाम को कौन बचा सकेगा? मेरी अल्पमति के अनुसार भारतीय मुसलमान ही, ठान ले, तो यह मुष्किल काम कर सकेगे. भारतीय ही क्यों? क्योंकि उनके सामने हिंदू धर्म का उदाहरण है. हजारों वर्षों की यात्रा में यहॉं कई पंथों का उदय हुआ और वे सब अभी भी जीवित है और सम्मान से जीवन जी रहे हैं. वेदों का प्रमाण्य न मानने वाले बौद्ध और जैन हैं. वैदिक हिंदू और बौद्ध या जैनों के बीच कभी हिंसक दंगे हुए? हॉं, ‘शास्त्रार्थ’ हुए? लेकिन ‘शस्त्रार्थ’ नहीं हुआ. ‘गीतगोविंद’ का रचियता कवि जयदेव लिखता है, ‘‘निन्दसि यज्ञविधेरहहू श्रुतिजात्म | सदयहृदय दर्शितपशुघातम् |’’ मतलब हे दयाशील बुद्ध, यज्ञ में की हिंसा देखकर तुमने सब श्रुती की निंदा की. लेकिन उस बुद्ध को भी हिंदुओं ने अपना ९ वा अवतार माना. जयदेव कहता है, तू बुद्ध शरीर धारण किया केशव मतलब कृष्ण ही है. हिंदूओं में बहुसंख्य लोग मूर्तिपूजक हैं. लेकिन आर्य समाजी और सिक्ख मूर्तिपूजा नहीं मानते. पहले अग्निपूजा मानते है, तो दूसरे ग्रंथसाहब. चल रहा है न उनका अस्तित्व! फिर मुसलमानों में वहाबी, सुन्नी, शिया, खोजा, बोहरा, कादियानी यह सब क्यों नहीं चलता? पाकिस्तान ने तो कादियानियों को गैरमुस्लिम घोषित किया है. ऐसा असहिष्णु, हिंसा को प्रोत्साहन देने वाला इस्लाम नए जमाने में टिक सकेगा?

आशा

इसलिए उसने हिंदूओं से सीख लेनी चाहिए. इसके लिए उपयुक्त वचन पवित्र कुरान में हैं. महंमद साहब बताते है, ‘‘आप जिसकी उपासना करते है, उसकी उपासना मैं नहीं करता; और मैं जिसकी उपासना करता हूँ, उसकी उपासना आप नहीं करते. आपका मजहब आपके लिए. मेरा मेरे लिए है.’’ एक अन्य स्थान पर वे कहते है, ‘‘हे अल्लाह, दुनिया में ऐसे लोग है जो तेरे अस्तित्व पर विश्‍वास नहीं करते. लेकिन उन्हें सहन कर. उन्हें शांति प्रदान कर. उन्हें उनकी भूल समझ आएगी.’’ पवित्र कुरान में की निश्‍चित सुरा और आयत तो मैं नहीं बता सकता. कारण, इस समय मेरे पास पवित्र कुरान नहीं है. लेकिन ऊपर उद्धृत वचन पवित्र कुरान में के ही हैं. ऐसा व्यापक दृष्टिकोण स्वीकार किया, तो शिया-सुन्नी या सुन्नी-वहाबी, या कादियानी अथवा अन्य हिंसक विवाद ही इस्लाम में शेष नहीं रहेगे. चर्चा अवश्य होनी चाहिए लेकिन हिंसा नहीं. एक बार यह प्रक्रिया शुरु हुई तो फिर इस्लाम और अन्य मतों के बीच भी संवाद शुरु होगा. गन्तव्य स्थान एक होते हुए भी, वहॉं तक जाने के मार्ग अनेक हो सकते हैं, यह भी वे मान्य करेगे. जब कोई भी धर्म चलते रहता है, तब समयानुकूल उसमें परिवर्तन की आवश्यकता होती है, यह भी वे जान जाएगे और शाश्‍वत क्या, युगधर्म क्या, और आपद्धर्म या अपवादभूत आचरण क्या इसका विवेक वे कर सकेगे. कोई भी विचार, या भावना, विशिष्ट काल-बिंदु के पास यथास्थिति रुकी नहीं रहती. उसमें परिवर्तन करना ही पड़ता है. जो एक काल-बिंदु के पास थम जाते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं, यह सनातन नियम है. इस दृष्टि से इस्लाम की कालानुरूप व्याख्या करते आनी चाहिए. हिंदूओं ने ऐसा ही किया इसलिए अनेक जानलेवा आपत्तियॉं सहने के बाद भी उनका धर्म जीवित बचा रहा. इस संदर्भ में मूल शब्द बदलने की आवश्यकता नहीं होती. उन शब्दों का आशय अधिक सखोल और व्यापक करने की आवश्यकता होती है. हिंदू धर्म के विकास का इस प्रकार अध्ययन करना, भारतीय मुसलमानों के लिए सहज संभव है. उन्होंने वह किया, तो ही वे इस्लाम को जीवित रख सकेगे. इतना ही नहीं कालोचित भी सिद्ध कर सकेगे. आज पश्‍चिम एशिया में के मुस्लिम राष्ट्र मार-काट में ऐसे उलझे है कि वे अपने साथ इस्लाम को भी समाप्त करेगे. क्या भारतीय मुसलमान यह आव्हान स्वीकार करेगे? वे स्वयं को सही तरीके से संभालेगे और अपने में के अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को दूर रखेगे तथा आवश्यकतानुसार कठोरता स्वीकार कर उन्हें नियंत्रण में रखने की हिम्‍मत करेगे?

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

3 COMMENTS

  1. आज जो देश की विषम परिस्थित है , उसकी पूर्ण जिम्मेदारी उस शीर्ष नेतृत्व की है जो सत्ता सिघासन में बैठी है!! यह लोग चाहते ही नहीं है की मुस्लिम- हिन्दू एक साथ बैठें !
    चूँकि यदि इनका मेल मिलाप हो गया तो वोट की राजनीती समाप्त समझो, और यह सत्ता से विमुख हो जाएगें , यह जितना भी दो फार कर चलेगें वाही इनको सत्ता तक पहुचने का
    सही मार्ग है !! यह बात न तो हिन्दू को समझ आती है न मुसल्मा को!!

  2. बहुतेरी प्रभाव रखने वाली, इस्लामी जनता का मस्तिष्क “पर्फ़ेक्ट प्रोग्राम्ड” है।
    (१) वह “खून का बदला खून से”—का प्रोग्राम है।
    एक आंख के बदले दो आंखे,
    फोडकर अंधा बनाने का धंधा,
    बनाकर रहेगा, सभी को अंधा।
    (२) जो बाहरी अन्य धर्मों वाले लोगों के साथ किया जाता है, वही आपसी अलग अलग सम्प्रदायों के बीच भी चलता है, चलेगा। इतिहास यही कहता है।
    (३) वहाँ सुधार करने कोई आगे, बढे तो वह भी बिचारा शत्रु बन जाता है।
    (४) इसी लिए वे आपस में भी शान्ति से रहेंगे (असंभव?) —कम से कम कठिन तो है ही।
    (५) मैं ने एक मेरे “इसलाम सुधारक” मित्र का साप्ताहिक मस्जिद की प्रार्थना से ही बहिष्कृत होते देखा है। वह भी एक प्रश्न (सवाल) पूछने पर।
    (६)अब ऐसे में क्या कहें, कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?
    (७)सारे के सारे पक्ष भी वोट के लुभावने चक्कर में, उन्हें कोई सहायता नहीं करेंगे। सभी की वोट के टुकडे पर “दूम हिलावन” वृत्ति कुछ न्यूनाधिक मात्रा में हर पार्टीमें देखी जा सकती है।

    (८) नया पैगम्बर आ नहीं सकता, और आया तो माना नहीं जाएगा, तो नया पैगाम कौन देगा?
    (९)प्रवक्ता के इसलामिक लेखक प्रबुद्ध अवश्य हैं. लेखन भी उनका हितकर होता है।
    (१०) मेरे विश्लेषण में,लगता है, कि वे भी दिङ्मूढ ही अनुभव करते होंगे। सोचते अवश्य होंगे, कि क्या किया जाए?
    पर, इस समस्या का सरल सुलझाव दिखाई नहीं देता।

  3. भारत के मुसलमानों के सम्बन्ध में श्री गुरूजी का समाधान विचार नवनीत में दिया है. उनके अनुसार भारत के मुसलमानों को स्पष्ट रूप से बताया जाये की वो भी हिन्दू पुरखों की संतानें हैं. अतीत में मुस्लिम शाशकों के दबाव,छल प्रपंच के कारन उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया था. लेकिन अब परिस्थितियां बदल गयी हैं. और उन पर कोई दबाव नहीं है अतः अब उन्हें सम्मान पूर्वक अपने मूल धर्म में वापस आ जाना चाहिए. मुसलमानों को अपने को शेष भारत से अलग समझने कि प्रविर्ती को छोड़ना होगा. हेदराबाद स्थित भारत के प्रतिष्ठित सेंटर फॉर सेलुलर एंड मोलिक्यूलर रिसर्च ने देश के विभिन्न हिस्सों से विभिन्न मतावलंबियों और विभिन्न जातीय लोगों के रक्त के नमूने लेकर उनका डी एन ए टेस्ट किया और ये निष्कर्ष प्रकाशित किया कि देश के विभिन्न भागों में रहने वाले विभिन्न जातीय और पंथिय समूहों के लोगों का डी एन ए एक ही है. अर्थात देश के सभी लोगों का आदि पुरुष एक ही है. सभी एक ही पिता माता की संतान हैं. ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के लोगों को इसकी जानकारी नहीं है. कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में श्री सुन्दर लाल पटवा जी कि सर्कार थी और कुंवर महमूद अली जी राज्यपाल थे. वो एक बार उज्जेन के प्राचीन देवी मंदिर के दर्शन के लिए गए तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि वो मुस्लमान होकर भी देवी के मंदिर में क्यों आये हैं जबकि मुस्लमान तो मूर्ति पूजा (बुत परस्ती) के विरोधी होते हैं. इस पर गवर्नर कुंवर महमूद अली जी ने जवाब दिया कि “सवाल बुत परस्ती या बुत शिकनी का नहीं है. ये मंदिर यहाँ के परमार राजपूत राजाओं कि कुलदेवी का मंदिर है. और मैं परमार राजपूत राजाओं का वंशज हूँ. अतः मैं तो अपने पुरखों की कुलदेवी के मंदिर के हालात का जायजा लेने आया हूँ”.इसी प्रकार कुछ साल पहले मेरे घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा था.राज मिस्त्री मुस्लमान थे और दूर गाँव के रहने वाले थे. उनमे से कुछ लोग रात्रि में यहीं पर रुक जाते थे.एक दिन शाम को एक बुजुर्ग मिस्त्री कहने लगा कि ‘ हमारे पुरखों ने अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ लडाई लड़ी थी.’ मैंने पूछा कि तुम तो मुस्लमान हो तो खिलजी से लडाई क्यों हुई. तो उसने कहा कि ‘हम राजपूत हैं. और हमारे बाप दादा अलाउद्दीन खिलजी से लड़ने गए थे तथा ये कह गए थे कि शाम को अगर सफ़ेद झंडा लहराता दिखाई दे तो समझना कि हमारी पराजय हो गयी है.और सभी राज्पूतानियाँ जौहर करके सती हो जाएँगी. लेकिन अगर केसरिया झंडा दिखाई दे तो समझना कि हम जीत गए हैं.इस लडाई में राजपूत सेना विजयी हुई. लेकिन गलती से किसी ने केसरिया कि जगह सफ़ेद झंडा लहरा दिया जिसे दूर से राजपूतानियों ने देखा तो ये समझकर कि राजौत सेना कि पराजय हो गयी है उन्होंने जौहर करके सती हो गयीं.राजपूत सेना ने वापस आने पर जब हजारों चिताएं जलती देखि तो उनका अफ़सोस और गम के कारण मनोबल टूट गया.और वो सर पकड़ कर बैठ गए.अलाउद्दीन के जासूसों ने उसे सूचना देदी कि राजपूत इस समय टूटे हुए हैं. और अलाउद्दीन ने तेजी से पुनः हमला कर दिया तथा राजपूतों को हराकर बंदी बना लिया तथा उन्हें मुस्लमान बना लिया.इस प्रकार हम मुस्लमान बने’ इन दो उदाहरणों के अतिरिक्त भी ऐसे अनेक उदहारण हैं जिनमे मुसलमानों के द्वारा ये कहा जाता है कि वो तो अमुक हिन्दू जाती के हैं. जैसे हरियाणा के मूले जाट मुस्लमान या कश्मीर के बकरवाल गुजर मुस्लमान. अतः खुलकर स्पष्ट रूप से ये बात कहनी चाहिए कि अपने मूल घर में वापिस आ जाओ.और जो वापस न आयें तो उन्हें भी यहाँ के कानूनों और परम्पराओं का पालन करना ही होगा. इस सम्बन्ध में ऑस्ट्रेलिया की प्रधान मंत्री जूलिया गिलार्ड ने जो नीति अपनाई है और जिसे समस्त पश्चिमी देशों ने भी सही माना है, वाही नीति यहाँ भी अपनाई जा सकती है. लेकिन ये काम समझौतावादी नेताओं के द्वारा नहीं हो सकता. और केवल हिंदुत्वनिष्ठ प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्ति ही ये काम कर पायेगा. दुर्भाग्यवश पूर्व में जिन्हें प्रखर राष्ट्रवादी माना गया था उन्होंने भी कोई द्रढ़ता नहीं दिखाई. और सम्झौतेवाद का सहारा लिया. हिंदी की उपन्यासकार मृदुला गर्ग ने अपने एक उपन्यास में कहा है की यदि आदर्शवादी व्यक्ति किसी आपदधर्म के रूप में समझौता करता है तो वो स्वीकार्य हो सकता है लेकिन जब बार बार समझौतों का सहारा लिया जाये तो आदर्शवाद के स्थान पर समझौतावाद ही उसका आदर्श बनकर रह जाता है. अतः ऐसा व्यक्ति सामने आना चाहिए जो समझौतावादी न हो.और आदर्शों पर टिका रहे. नुकसान उठाने का जोखिम लेकर भी.इस देश की मुस्लिम समस्या का यही एक मात्र स्थायी हल है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,719 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress