भंवरी ,गीतिका व् मधुमिता : खोती हुयी गरिमा व् भौतिकवाद के दुराहे पर आधुनिक भारतीय नारी
देश दुःखी है क्योंकि एक और औरत गीतिका शर्मा ने आत्मग्लानि में आत्महत्या कर ली. अपने आखिरी लेख में उसने हरियाणा के गृह मंत्री कांडा व एक अन्य औरत अरोरा को जिम्मेवार ठहराया है. मीडिया को मसाला मिल गया . देश कांडा का खून मांगने लगा .किसी मृत्यु पर क्षोभ होना आवश्यक है और जनता का आक्रोश उचित है. कठोर कार्यवाही की मांग, जिससे ऐसी घटनाएँ ना हों , भी उचित है
परन्तु कहीं यह सवाल दब गया कि गीतिका कि मौत के लिए कौन जिम्मेवार है?
जब नवयुवती गीतिका को छः साल में कंपनी का डायरेक्टर बना दिया तो नहीं किसी ने यह कहा कि यह अनुचित है .जब उसने कांडा से घर व मर्सिडीज कार ली तो उसे नहीं पता था कि यह उसकी काबिलियत के लिए नहीं है . जब उसके व कांडा के परिवार छुटियाँ मानाने जाते थे तो उनको नहीं पता था कि यह कृपा क्यों बरस रही है .जब गीतिका का गर्भ पात कराया तो उसे नहीं क्षोभ हुआ अपने जीवन पर . अंत में जब आत्मग्लानी ने जोर मारा तो उसने आत्महत्या कर ली.
नैना साही ने तो देह कि दूकान लगा रखी थी. मधुमिता भी अति मह्त्वाकांक्षा का शिकार बनी और अपनी जान गँवा बैठी . भंवरी देवी तो विडियो बना के ब्लैकमेल करने का धंधा करने लगी .
अति आधुनिकता की दौड में नारी अब ना तो अबला बची है ना देवी. जब शर्लिन चोपडा और पूनम पाण्डेय हर बात पर कपडे उतरने लगती हैं . जब बार में रंगीनियाँ कर निकलती हैं तो गौहाटी कांड तो होना ही है. जैन लड़की तो अपने प्रोडूसर से फिल्म में रोले ना देने के सौदे टूटने पर बलात्कार का आरोप लगाती है जैसे एक वैश्या कीमत ना मिलने पर स्वेच्छा से बनाये संबंधों को बलात्कार कह दे.
देवियों को आज भी देवता मिल जाते हैं .
परन्तु पुनम पाण्डेय को ना देवता मिल सकते ना उनके कपड़ों की सुरक्षा समाज की जिम्मेवारी है.
भारतीय नारी को यह जानना होगा कि उसका पारंपरिक आदर उसके पारंपरिक व्यवहार पर निर्भर है. अगर बराबरी की दौड है तो बराबरी ही मिलेगी . प्रकृति में भोजन व सुरक्षा किसी मादा का जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है. यह उसे अपने प्रयासों से पाना होता है. नारी इसका अपवाद नहीं हो सकती .
आवश्यकता है कि हम अपनी लड़कियों को सही परवरिश कर एक अच्छी लड़की बनायें लड़का नहीं . क्योंकि लड़की लड़का नहीं होती. उसके पारंपरिक गुण ही उसकी वास्तविक पहचान हैं .
महिला आयोग को भी सीखना चाहिए कि वह औरतों कि ट्रेड यूनियन नहीं है . नारी का सही मार्गदर्शन भी उसका कर्तव्य है. अभी तो वह अभिवावक कम और वोट बैंक के बिगडेल नेता जैसा व्यवहार ज्यादा कर रहा है.
सबसे ज़रूरी है कि हम सच बोलने कि ताकत रखे मात्र बहाव में बहना जिंदगी नहीं है.
याद रखें की मीडिया भी ऐसे ही मामलों को उछालता रहता है क्योंकि इससे भी उसकी टी आर पी बढ़ती है या अ फी कंही ड्रेस कोड का मामला हो अथवा कोई ऐसा मामला जिसमे कोई सुन्दर महिला लिप्तायी हुई है जैसे लन्दन ओलाम्पिक्मे गयी महिला -(यदि वह लाल कपड़ों में और सुन्दर नहीं ही कोई कली या आदिवासी होती तो किसी का ध्यान शायद ही जाता)
लेख अच्छा है और बीनू और मीना के एतिपानी भी.
अक्सर नारी अपने पतन के लियें ख़ुद ज़िममेदार होती है।अच्छा लेख।
लेख की सबसे शानदार टिप्पणी :
“महिला आयोग को भी सीखना चाहिए कि वह औरतों कि ट्रेड यूनियन नहीं है . नारी का सही मार्गदर्शन भी उसका कर्तव्य है. अभी तो वह अभिवावक कम और वोट बैंक के बिगडेल नेता जैसा व्यवहार ज्यादा कर रहा है. सबसे ज़रूरी है कि हम सच बोलने कि ताकत रखे मात्र बहाव में बहना जिंदगी नहीं है.”
लेखक को साधुवाद!