असमानता की आजादी का जश्‍न!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

15 अगस्त, 2011 को हम आजादी की 65वीं सालगिरह मनाने जा रहे भारत में कौन कितना-कितना और किस-किस बात के लिये आजाद है? यह बात अब आम व्यक्ति भी समझने लगा है| इसके बावजूद भी हम बड़े फक्र से देशभर में आजादी का जश्‍न मनाते हैं| हर वर्ष आजादी के जश्‍न पर करोड़ों रुपये फूंकते आये हैं| कॉंग्रेस द्वारा भारत के राष्ट्रपिता घोषित किये गये मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के नेतृत्व में हम हजारों लाखों अनाम शहीदों को नमन करते हैं और अंग्रेजों की दासता से मिली मुक्ति को याद करके खुश होते हैं| लेकिन देश की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयॉं करती है|

संविधान निर्माता एवं भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने कहा था कि यदि मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों को भारत की सत्ता सौंपी गयी तो इस देश के दबे-कुचले दमित, पिछड़े, दलित, आदिवासी और स्त्रियॉं ब्रिटिश गुलामी से आजादी मिलने के बाद भी मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों के गुलाम ही बने रहेंगे| डॉ. अम्बेड़कर के चिन्तन को पढने से पता चलता है कि उनका मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों या कॉंग्रेस का सीधे विरोध करना मन्तव्य कतई भी नहीं था, अपितु उनका तात्पर्य तत्कालीन सामन्ती एवं वर्गभेद करने वाली मानसिकता का विरोध करना था, जिसे डॉ. अम्बेडकर के अनुसार गॉंधी का खुला समर्थन था, या यों कहा जाये कि ये ही ताकतें उस समय गॉंधी को धन उपलब्ध करवाती थी| दुर्भाग्य से उस समय डॉ. अम्बेड़कर की इस टिप्पणी को केवल दलितों के समर्थन में समझकर गॉंधीवादी मीडिया ने कोई महत्व नहीं दिया था, बल्कि इस मॉंग का पुरजोर विरोध भी किया था| जबकि डॉ. अम्बेड़कर ने इस देश के बहुसंख्यक दबे-कुचले लोगों की आवाज को ब्रिटिश सत्ता के समक्ष उठाने का साहसिक प्रयास किया था| जिसे अन्तत: तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री और मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन के बावजूद मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका|

आज डॉ. अम्बेड़कर की उक्त बात हर क्षेत्र में सच सिद्ध हो रही है| इस देश पर काले अंग्रेजों तथा कुछेक मठाधीशों का कब्जा हो चुका है, जबकि आम जनता बुरी तरह से कराह रही है| मात्र मंहगाई ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मिलावट, कमीशनखोरी, भेदभाव, वर्गभेद, गैर-बराबरी, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार, लूट, डकैती आदि अपराध लगातार बढ रहे हैं| जनता को बहुत जरूरी (मूलभूत) सुविधाओं का मिलना तो दूर उसके राशन कार्ड, ड्राईविंग लाईसेंस, मूल निवास एवं जाति प्रमाण-पत्र जैसे जरूरी दस्तावेज भी बिना रिश्‍वत दिये नहीं बनते हैं| आम लोगों को पीने को नल का या कुए का पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि राजनेताओं एवं जनता के नौकरों (लोक सेवक-जिन्हें सरकारी अफसर कहा जाता है) के लिये 12 रुपये लीटर का बोतलबन्द पानी उपलब्ध है| रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को बीड़ी-सिगरेट पीने के जुर्म में दण्डित किया जाता है, जबकि वातानुकूलित कक्षों में बैठकर सिगरेट तथा शराब पीने वाले रेल अफसरों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है|

अफसरों द्वारा कोई अपराध किया जाता है तो सबसे पहले तो उसे (अपराध को) उनके ही साथी वरिष्ठ अफसरों द्वारा दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है और यदि मीडिया या समाज सेवी संगठनों का अधिक दबाव पड़ता है तो अधिक से अधिक छोटी-मोटी अनुशासनिक कार्यवाही करके मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है, जबकि उसी प्रकृति के मामले में कोई आम व्यक्ति भूलवश भी फंस जाये तो उसे कई बरस के लिये जेल में डाल दिया जाता है| यह मनमानी तो तब चल रही है, जबकि हमारे संविधान में साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि इस देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा जायेगा और सभी लोगों को कानून का एक समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा| क्या हम इसी असमानता की आजादी का जश्‍न मनाने जा रहे हैं?

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

5 COMMENTS

  1. मीनाजी का उदेश्य एकबार फिर जातिवाद के नाम पर देश का विभाजन करना है

  2. डाक्टर मीणा,,मैं तो हमेशा कहताआया हूँ की मेरा अध्धयन और विचार एक आम आदमी का विचार है.जहाँ तक संविधान का प्रश्न है,इसकी पूर्ण रूप रेखा महात्मा गाँधी के जीवन काल में ही तैयार हो गयी थी और महात्मा गांधी ने इसका खुलकर विरोध भी किया था,पर जवाहर लाल नेहरु और डाक्टर आम्बेडकर का सम्मिलित विरोध उनपर भारी पड़ा था.
    रही बात आरक्षण की तो उसके बारे में मेरे विचार दूसरों से भिन्न हैं और उसको मैं पहले भी प्रकट कर चुका हूँ ,अतः उसके बारे में चुप्पी ही ठीक है.

  3. आदरणीय श्री आर सिंह साहब,
    नमस्कार!
    इस लेख पर पहली टिप्पणी के लिए आपका आभार|

    पहली नज़र में आपकी निम्न पंक्ति पर असहमति का कोई कारण नहीं हो सकता!

    “”सत्ता का विकेंद्रीकरण (प्रशासनिक और आर्थिक दोनों) गांधी के सिद्धांत का केंद्र विन्दु था और इसको न नेहरू ने माना और न अम्वेड़कर ने.डाक्टर अम्वेड़कर का दोष मैं ज्यादा इसलिए मानता हूँ ,क्योंकि भारतीय संविधान संरचना में उनकी प्रमुख भूमिका थी.”

    लेकिन विनम्रता पूर्वक इसमें केवल इतना ही जोड़ना चाहूँगा की प्रमाण इस बात के साक्षी हैं की “गांधी कहते कुछ थे और करते कुछ और थे!” सारी दुनिया में गांधी को दलितों के हितेषी के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन जब दलित, आदिवासियों और पिछड़ों के उत्थान के लिए उनको, उनका मौलिक हक देने का सवाल उठा तो इस बात का सर्वाधिक और भयंकर विरोध केवल गांधी ने ही किया था! मरने के लिए तैयार हो गए थे, जिसके दुष्परिणाम हम आज तक “आरक्षण” के रूप में भुगत रहे हैं! “आरक्षण” गांधी ने जबरन थोपा था, ताकि निचले तबके हमेशा दीन-हीन और अपाहिज बने रहें! आज देश में जैसे और जो भी हालत हैं, उनके लिए प्रथम गांधी और द्वितीय भारत के सभी सत्ताधारी दल जिम्मेदार हैं! क्योंकि सभी को सत्ता में रहने के अवसर मिल चुका है, लेकिन किसी ने भी आज तक “आरक्षण” और इसके अच्छे-बुरे परिणामों के बारे में कभी भी ईमानदारी से नहीं सोचा! सभी ने वोट और तुष्टिकरण की नीति अपनाई और आरक्षित वर्गों का केवल वोट बैंक के रूप में उपयोग किया! “आरक्षण” के बारे में बिठाये गए आयोगों और समितियों की रिपोर्टों को उसी प्रकार से उठाकर नहीं देखा, जैसे भारतीय रेलवे के अफसर रेल दुर्घटनाओं की जाँच रिपोर्टों को उठाकर भी नहीं देखते!

    इसलिए मुझे नहीं लगता की संविधान निर्माण होने तक यदि गांधी जिन्दा भी रहे होते तो भी वे ग्राम को केंद्र में रखने के लिए वैसी भूख हड़ताल करते, जैसी उन्होंने दलित-आदिवासियों के “सेपरेट इलेक्ट्रोल” के लिखित में स्वीकार कर लिए गए हक को वापस छीनने के लिए की थी? या पाकिस्तान को धनराशी वापस करने के लिए की थी! इसलिए कम से कम देश के कमजोर लोगों के सन्दर्भ में तो गांधी के आदर्श और यथार्थ में बड़ा भारी अंतर है!

    जो गांधी शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने के मामले में जानबूझकर अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं करने के लिए अनेक अधिकृत लोगों द्वारा दोषी ठराया जाता रहा है! जो गांधी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान व्यक्ति का विरोध करता रहा हो, वह कैसा व्यक्ति रहा होगा? जो व्यक्ति देश के विभाजन को रोकने के बजाय नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लालायत रहा हो, उसके सत्य के प्रयोगों और अहिंसा के वक्तव्यों के बारे में केवल कल्पना ही की जा सकती है!

    डॉ. अम्बेडकर के ग्राम, गरीबी, दमित, दलित, किसान, आदिवासी, पिछड़े और कमजोरों के उत्थान के लिए क्या सोच थी, क्या विचार थे? इस बारे में वे संविधान में क्या प्रावधान करना चाहते थे, इसे जानने के लिए हमें संविधान सभा की चर्चा को पढना चाहिए| जिससे ये ज्ञात हो सके की देश के निम्न और उच्च तबके के लोगों की की कौन कितनी वकालत कर रहा था और कौन कितना विरोध कर रहा था? इसे जानने के बाद अनेक तथाकथित महान चेहरों की सच्ची हकीकत सामने आ जायेगी!

  4. मीणा जी ! आपकी बात से सहमत हूँ कि हम असमानता और अन्याय के बीच जीने के लिए बाध्य हैं . किन्तु इसके लिए आपने एक वर्ग विशेष को उत्तरदायी इंगित कर दिया है …यह बिंदु विचारणीय है. मेरे कुछ प्रश्न हैं जिनके मैं आपसे उत्तर चाहता हूँ –
    १- क्या गांधी के उत्तराधिकारी इसलिए दोषी नहीं हैं कि उन्होंने गांधी के स्वप्न को साकार करने की दिशा की विपरीत दिशा में गमन किया ? यदि हाँ तो इसके लिए गांधी को दोष कैसे दिया जा सकता है ?
    2- स्वतन्त्र भारत की राजनीति में क्या संविधान निर्माण से लेकर अन्य सभी कार्यों तक में दलितों / आदिवासियों आदि को अपनी भागीदारी का अवसर नहीं दिया गया है ? जबकि आपके ही किसी लेख में मैंने पढ़ा था कि आदिवासी नेताओं ने ही आदिवासियों का सर्वाधिक अहित और शोषण किया है. फिर कौन है जिसे आप उनके हितों के लिए विश्वसनीय मानते हैं ?
    3- सारा अन्याय, उत्पीडन , महंगाई , भुखमरी , बलात्कार, रिश्वतखोरी …आदि क्या किसी वर्ग विशेष के लिए ही है या भारत के सभी लोग इससे पीड़ित हैं ? यदि सभी लोग पीड़ित हैं तो आप बार-बार क्यों इसके लिए किसी वर्ग विशेष को ही दोष देते हैं ?
    4-बलात्कार और उत्पीडन आदि क्या सवर्णों के साथ नहीं होता है ? यदि हाँ तो कौन करता है यह सब ?
    5- आप अन्याय, उत्पीडन , बलात्कार आदि को केवल एक ही वर्ग के साथ जुड़ा हुआ क्यों देख पाते हैं …….समदृष्टि क्यों नहीं है ? यदि अन्याय पीड़ितों के प्रति हमारी समदृष्टि नहीं होगी तो हम न्याय के मामले में समदृष्टि कैसे रख सकेंगे ? ६- बन्धु डॉक्टर मीणा साहब जी ! सभी शोषकों की सिर्फ एक ही जाति होती है …वह न सवर्ण होता है, न पिछड़ा, न आदिवासी और न दलित . जब तक आप इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक सामाजिक समानता की बात के साथ सम्यक न्याय भी नहीं कर सकेंगे .

  5. डाक्टर आंबेडकर ने महात्मा गांधी के अनुयायिओं या वंशजों(ऐसे महात्मा गाँधीके किसी वंशज का शायद ही आज के शासन में कही भागीदारी हो )के बारे में जो कहा था,उस पर मतभेद हो सकता है,पर भारत को वर्तमान दशा में पहुंचाने में मैं डाक्टर आंबेडकर को नेहरु के बराबर या उससे कुछ अधिक ही दोषी मानता हूँ.भारत को वर्तमान दर्दशा में पहुचने के कारणों में से सबसे बड़ा कारण मैं समझता हूँ की स्वतन्त्रता के बाद ही हमगांधी की आर्थिक नीतिओं को भूल गयेऔर भारतीय संविधान में उसका समावेश ही नहीं किया.अगर डाक्टर आंबेडकर संविधान संरचना के प्रमुख थे तो इसका दोष भी सर्वप्रथम उन्ही को जाता है.आज शायद आप सब सोचने का भी कष्ट नहीं कर रहेहैं की अगर हमारे विकास का केंद्र गाँव होता तो हमारे हालात कुछ और होते.सत्ता का विकेंद्रीकरण (प्रशासनिक और आर्थिक दोनों) गांधी के सिद्धांत का केंद्र विन्दु था और इसको न नेहरू ने माना और न अम्वेड़कर ने.डाक्टर अम्वेड़कर का दोष मैं ज्यादा इसलिए मानता हूँ ,क्योंकि भारतीय संविधान संरचना में उनकी प्रमुख भूमिका थी.

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