प्रमोद भार्गव

मध्य-प्रदेश देश का ऐसा प्रमुख राज्य हैं, जिसने शिवराज सिंह चौहान की सरकार के दौरान उत्तरोत्तर कृषि में प्रगति करते हुए एक मुकाम हासिल किया और लगातार पांच बार कृषि कर्मण सम्मान भी प्राप्त किए। बावजूद न तो किसान कर्ज से उबरा और न ही कृषि फायदे का सौदा बन पाई। कर्ज में डूबे किसान की आत्महत्याएं भी जारी रहीं। शिवराज सरकार इन आत्महत्याओं की हकीकत जानने की बजाय सतही लोक-लुभावन घोषणाओं में लगी रही। नतीजतन भावांतर जैसी योजनाएं नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो गईं। जाहिर है, किसान के लिए कल्याणकारी योजनाएं उसी तरह जुमला साबित हुईं, जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने 15 लाख रुपए देश के नागरिक के खाते में डालने की घोषणा की थी। किंतु अब मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ ने अपने एक साल के कार्यकाल में किसान कर्जमाफी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर दिखाया है। प्रदेश के राष्ट्रीय और सहकारी बैंकों का किसानों पर करीब 56000 करोड़ रुपए कर्ज है। इस कर्ज-माफी से 36 लाख किसानों का अल्पकालिक फसल ऋण माफ होने जा रहा हैं। इसमें किसानों के 31 मार्च 2018 तक के कर्ज शामिल हैं। 21 लाख किसानों के 50 हजार रुपए तक के कर्ज अब तक माफ कर दिए हैं। अब दूसरे चरण में 50000 से एक लाख रुपए तक के कर्ज माफ किए जाएगें। तीसरे चरण में किसानों के व्यावसायिक बैंकों से लिए कर्ज माफ किए जाएंगे। इन किसानों की संख्या 15 लाख हैं। यही नहीं सरकार ने यंत्रों पर सब्सिडी को बढ़ाकर 50 प्रतिशत किया हैं। गेहूं पर 160 रुपए बोनस प्रति क्ंिवटल दिया जाएगा। कमलनाथ सरकार यह तब कर रही है, जब 55 लाख किसान अतिवर्षा से प्रभावित हुए हैं और केंद्र सरकार ने 6621 करोड़ की जगह महज 1000 करोड़ रुपए ही बतौर राहत राशि दी है। जबकि प्रदेश में कुल नुकसान 13000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का हुआ है।
फिर भी किसान को खुशहाल बनाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। प्रदेश में अभी भी 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। खेती और किसानी से ही गुजर बसर करती है। यदि कमलनाथ सरकार यांत्रिक खेती को नियंत्रित करते हुए छोटी जोत के किसानों को देशज उपायों और हल-बैल से खेती करने को प्रोत्साहित करे तो ग्रामों में खुशहाली बढ़ेगी तथा पलायन थमेगा। पिछले एक दशक के भीतर बड़ी संख्या में शीतालय बने हैं, इस कारण फल व सब्जियों का भंडारण बढ़ा है और इनकी बर्बादी रुकी है। बावजूद टमाटर, कद्दु और प्याज का जब अधिक उत्पादन होता है तो इनके वाजिब दाम किसान को नहीं मिलते हैं। नतीजतन किसान इन्हें बर्बाद करने के लिए विवश हो जाते है, यदि इन उत्पादों की बिक्री की व्यवस्था को प्रदेश सरकार सीमांत प्रदेशों में कर दे, तो ये फसलें बर्बाद नहीं होंगी और किसान को भी इनका उचित मूल्य मिलेगा। प्रदेश में फिलहाल कृषि आधारित प्रसंस्करण संयंत्रों की कमी है, यदि ये संयंत्र तहसील व विकासखंड स्तर पर लगा दिए जाएं और इनमें उत्पादित वस्तुओं के विक्रय का प्रबंध सरकार करे तो प्रदेश के किसान की खुशहाली दिन दुनी, रात चैगुनी बढ़ने का मार्ग खुल जाएगा। खेती को लाभ का धंधा बनाने और किसान की आय दुगनी करने का ये उपाय बड़ा माध्ययम बन सकते हैं।
नई सरकार को किसान को कर्ज देने की सरल प्रक्रिया से भी बचना होगा। दरअसल जब भी प्रदेश सरकार ने किसान को कम ब्याज पर कर्ज देने के प्रावधान किए हैं, तो वह उसे कुछ इस ढंग से प्रचारित करती है कि जैसे खैरात दे रही हो ? ऐसे में जिन किसानों को कर्ज की जरूरत नहीं होती है, वे भी कर्ज के लालच में आ जाते हैं और फिर ब्याज एवं चक्रवृद्धि ब्याज के जाल में फंसकर अपना चैन खोकर आत्महत्या तक को विवश हो जाते हैं। जबकि सरकार को कर्ज देने के उद्देश्य को भी परिभाषित करने की जरूरत है। ट्रेक्टर और कृषि यंत्रों के विक्रेता तथा बैंकों के एजेंट एक ही कृषि भूमि पर मूल दस्तावेजों में हेराफेरी करके कई मर्तबा किसान को कर्ज दिला देते हैं। इससे किसान कर्ज के जाल में तो फंसता ही है, दस्तावेजों में कूटरचना का भी दागी बन जाता है। पटवारी भी असिंचित भूमि को सिंचित भूमि दिखाकर किसान को ठगने का काम करते हैं। इस प्रक्रिया में राजस्व महकमे का पूरा अमला शामिल रहता है। जाहिर है, ऐसा कर्ज किसान को डुबोने का ही काम करेगा। ऐसी ही वजह रही हैं कि मध्य-प्रदेश में 2015-16 में किसानों का जो कर्ज 60,977 करोड़ था, वह एक साल के भीतर 2016-17 में 33 प्रतिशत बढ़कर 81000 करोड़ से भी अधिक हो गया था। साफ है, इस तरह की गलत नीतियों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के चलते किसानों के भीतर कर्ज लेने और मुफ्तखोरी की संस्कृति पनपी है। इस कार्य संस्कृति ने जहां किसानों की आत्महत्याओं को बढ़ाया, वहीं बैंकों को भी डूबोने का काम किया। लिहाजा कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही निवेश संवर्धन नीति में संशोधन के तहत उद्योगों को सरकारी छूट पर 70 फीसदी स्थानीय लोगों को रोजगार देना अनिवार्य कर दिया है। इस लिहाज से सरकार कृषि आधारित उद्योगों को छूट देने के साथ यह भी बाध्यकारी शर्त रखे कि उद्योग ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में लगें। कृषि आधारित उद्योगों में उच्च शिक्षित होने की शर्त भी बाध्यकारी नहीं होनी चाहिए।
भाजपा की काट के लिए नरम हिंदुत्व और गाय सरंक्षण की पहल करते हुए कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही ग्राम पंचायत स्तर पर गौशाला खोलने के लिए योजना बनाने की मंजूरी दे दी है। गौशलय बनना शुरू भी हो गई हैं। कांग्रेस के वचन-पत्र में इस योजना को लागू करने का वादा किया गया था। इस योजना में यदि पशुधन को आरक्षित वनों व राष्ट्रीय उद्यानों में घास चरने की छूट दे दी जाए, तो पशुपालक और पशुधन का बड़ा कल्याण होगा। इन सुरक्षित जंगलों में घास-फूस या तो सूखकर नश्ट होता है, या फिर उसे वन अमला जलाकर नष्ट करता है। इससे कभी-कभी जंगल आग की चपेट में भी आ जाते हैं। आरक्षित वनों में पशुधन को चरने की छूट इसलिए भी दी जानी आवश्यक है, क्योंकि वनकर्मी रिष्वत लेकर बड़ी संख्या में मवेशियों को इन्हीं जंगलों में घास चरने की छूट देते हैं। राजस्थान से जो रेवाड़ी ऊंट और भेड़ों के दल लेकर आते हैं, उनसे तो घास चराई की बड़ी रकम वसूली जाती है। इस रकम के बंटवारें में आला वनाधिकारी भी शामिल रहते हैं। जंगलों में पशुधन के प्रवेश से वह पशुधन भी बेमौत मरने से बचेगा, जो सड़क मार्गों पर आराम करते समय दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं।