तौहीन-ए-रसूल को लेकर मुस्लिम जगत में फिर आया उबाल

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तनवीर जाफरी

डेनमार्क के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र जीलैंडस पोस्टेन में 30 सितंबर 2005 को संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुए हज़रत मोहम्मद के 12 आपत्तिजनक कार्टून सामने आने के बाद लगभग पूरी दुनिया में विशेषकर मुस्लिम बाहुल्य देशों में जिस प्रकार हिंसक प्रदर्शन किए गए थे उसे अभी दुनिया भूली नहीं है। खासतौर पर उन प्रभावित परिवारों के लोग तो उन भयावह हिंसक प्रदर्शनों को कभी नहीं भूल पाएंगे जिनके परिवार के सदस्य इन प्रदर्शनों के दौरान घटी हिंसक वारदातों में मारे गए थे। डेनमार्क के जीलैंडस पोस्टेन समाचार पत्र में हज़रत मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून के प्रकाशित होने की घटना ने उस समय भी कुछ बातें बिल्कुल साफ कर दी थीं। एक तो यह कि मुस्लिम समुदाय के लोग पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध किसी प्रकार की आपत्तिजनक या अपमानजनक बातें सुनना तो दूर वे इस प्रकार के बर्ताव की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे इसे सीधे-सीधे ईश निंदा का मामला मानते हैं और इस वर्ग के अनुसार ईश निंदा में शामिल व्यक्ति को मा$फी दिए जाने का कोई सवाल ही नहीं है। दूसरी बात यह सामने आई कि मुस्लिम समुदाय से जुड़े तमाम आतंकी संगठन ऐसे ही विस्फोटक क्षणों की प्रतीक्षा में रहते हैं जबकि आम मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं आहत हों और उस समय मौके की तलाश में बैठे यह मानवता विरोधी आतंकवादी इस मुस्लिम समुदाय की भीड़ में शामिल हो कर बड़ी से बड़ी हिंसक घटनाओं को अंजाम दे सकें।

डेनमार्क की उक्त घटना के बाद उम्मीद की जा रही थी कि शायद भविष्य में अब कहीं भी ऐसी गुस्ताखी किए जाने का समाचार नहीं आएगा जिसमें कि इस्लाम, पैगम्बर-ए-रसूल हज़रत मोहम्मद या कुरानशरीफ के विषय में कोई अपमानजनक या विवादित टिप्पणी की गई हो। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार इस्लाम धर्म के तमाम तथाकथित अनुयायी आतंकवादी संगठनों में शामिल होकर दुनिया के बड़े हिस्से में अपनी आतंकी गतिविधियां संचालित करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं ठीक उसी प्रकार अमेरिका व इज़राईल जैसे कई और देशों में भी तमाम ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जो जलती आग में घी डालने का काम करती रहती हैं। परिणास्वरूप आम मुस्लिम जगत में तो अमेरिका व इज़राईल के विरुद्ध रोष और अधिक फैलता ही है साथ-साथ अमेरिका व इज़राईल का विरोध करने वाले तमाम आतंकी संगठनों को भी अपनी अहिंसात्मक सक्रियता दिखाने का पूरा अवसर मिल जाता है। उदाहरण के तौर पर गत् वर्ष अमेरिका में एक चर्च के पादरी द्वारा कुरान शरीफ को सार्वजनिक रूप से जलाए जाने की घोषणा की गई थी। उसके बाद पूरी दुनिया में तनाव फैल गया था। और सबकी निगाहें इस संभावित घटना पर जा टिकी थीं। परंतु अंतिम क्षणों में अमेरिकी अधिकारी इस घटना को रोक पाने में सफल रहे अन्यथा उन दिनों ही दुनिया में काफी अराजकता फैलने की संभावना बढ़ गई थी।

अब एक बार फिर इस्लामी जगत में उबाल आया दिखाई दे रहा है। मुस्लिम जगत में इस बार आए गुस्से का कारण है कथित रूप से एक यहूदी समुदाय के इज़राईली नागरिक द्वारा अमेरिका में बैठकर विवादित फिल्म का बनाया जाना। ‘इन्नोसेंस आफ द मुस्लिम’नामक यह फिल्म कथित रूप से सैम बेसाईल नामक एक यहुदी व्यक्ति द्वारा निर्देशित की गई है। हालांकि इसके निर्माण में एक और व्यक्ति नकूला बेसले का नाम भी लिया जा रहा है जोकि मिस्त्र मूल का काप्टिक ईसाई है। बताया जा रहा है कि वर्तमान समय में केलिफोर्निया में रह रहा सैम बेसाईल एक रियल एस्टेट का व्यवसायी है तथा कथित रूप से वही इस फिल्म का निर्माता भी है। इस फिल्म को बनाने में पचास हज़ार डॉलर से ज़्यादा की रकम लगी है। जिसे कथित रूप से लगभग सौ यहूदियों से इकट्ठा किया गया है। इस फिल्म का निर्माण पहले अंग्रेज़ी भाषा में किया गया था जिसे अब अरबी भाषा में भी डब किया गया है। फिल्म के कथित निर्माता-निर्देशक सैम बेसाईल को हालांकि इज़राईली यहूदी नागरिक बताया जा रहा है परंतु इज़राईल उसकी नागरिकता से साफ़ इंकार करता है। इज़राईल के अनुसार इस नाम का कोई भी व्यक्ति इज़राईली नागरिक नहीं है। अमेरिका में निर्मित की गई दो घंटे की यह फिल्म हालांकि अभी रिलीज़ नहीं हुई है परंतु इसके ट्रेलर रूपी कुछ आपत्तिजनक दृश्य यू टयूब और फेसबुक पर लोड कर दिए गए हैं। इन्हें देखकर ही मुस्लिम जगत में गुस्से की लहर दौड़ गई है। फिल्म में जहां मिस्त्र में मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा काप्टिक ईसाईयों को सताने व उनपर ज़ुल्म ढाने व हिंसक कार्रवाईयां करने का दृश्य फिल्माया गया है। वहीं उसमें पैगम्बर हज़रत मोहम्मद को एक अय्याश व व्याभिचारी अरब नागरिक के रूप में भी दिखाया गया है। इस अय्याश चरित्र की भूमिका भी किसी अज्ञात अमेरिकी नागरिक द्वारा अदा की गई है। यहां तक कि इनोसेंस आफ द मुस्लिम नामक इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक सैम बेसाईल व केलिफोर्निया पुलिस द्वारा जांच के घेरे में लिए गए फिल्म के कथित मैनेजर नकूला बेसले का नाम भी लोगों को पहली बार सुनने को मिल रहा है। इन परिस्थितियों में इस बात की भी संभावना है कि कहीं ऐसी फिल्म का बनाया जाना एक सोची-समझी बड़ी साजि़श का हिस्सा तो नहीं है?

बहरहाल इस फिल्म के ट्रेलर रूपी अंश सार्वजनिक होने के बाद अब तक दुनिया के कई प्रमुख इस्लामी देश हिंसा व प्रदर्शन की चपेट में आ चुके हैं। इनमें दर्जनों लोगों के मारे जाने का समाचार भी है। मिस्त्र, लीबिया, यमन, काहिरा, सूडान, मोरक्को, टयूनिशिया, ईरान,इराक व बंगलादेश,लेबनान आदि देशों से लेकर भारत तक में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होने की खबरें हैं। इन प्रदर्शनों की शुरुआत सर्वप्रथम मिस्त्र में हुई। परंतु सबसे बड़ा हादसा लीबिया के बेनग़ाज़ी शहर में उस समय पेश आया जबकि प्रदर्शकारियों ने वहां अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर हज़ारों की संख्या में आक्रमण कर दिया। इनमें तमाम आक्रमणकारी ऐसे भी थे जो बमों,भारी स्वचालित हथियारों तथा रॉकेट जैसे शस्त्रों से लैस थे। इन हिंसक प्रदर्शनकारियों ने दूतावास परिसर में आग लगा दी। वहां तैनात लीबियाई सुरक्षाकर्मियों से प्रदर्शनकारियों की ज़बरदस्त मुठभेड़ भी हुई। परंतु प्रदर्शनकारियों की संख्या व उनके पास मौजूद भारी हथियारों के आगे दूतावास के सुरक्षाकर्मियों की नहीं चल सकी। नतीजतन अमेरिकी राजदूत क्रिस्टोफर स्टीफन सहित दूतावास में तैनात तीन और अमेरिकी नागरिक मारे गए। इस घटना में दस लीबियाई नागरिकों की भी मौत हो गई। बताया जा रहा है कि बेनग़ाज़ी में घटी इस घटना में अलकायदा से जुड़े लीबिया में सक्रिय आतंकी संगठन अंसार-अल-शरिया का हाथ है। क़ाहिरा व यमन व सूडान में हुए विरोध प्रदर्शनों में भी अलकायदा या उसके सहयोगी आतंकी संगठनों की सक्रियता के समाचार आ रहे हैं।

यह भी एक अजीब इत्तेफाक है कि बेनग़ाज़ी में अमेरिकी दूतावास पर अलकायदा समर्थित अंसार-अल-शरिया के सदस्यों ने प्रदर्शनकारियों की भीड़ में घुसकर अपनी हिंसक मंशा को 11 सितंबर के दिन उन्हीं क्षणों में अंजाम दिया जबकि अमेरिका न्यूयार्क पर 11 सितंबर को हुए विश्व के अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले की वर्षगांठ मना रहा था। ठीक उसी समय शोकाकुल अमेरिकावासियों को लीबिया में उनके उस राजदूत के मारे जाने की खबर मिली जोकि लीबियाई तानाशाह कर्नल गद्दाफी के सत्ता से हटाए जाने के हिंसक व तनावपूर्ण वातावरण का चश्मदीद गवाह व साक्षी था। इस घटना से तथा इस्लामी जगत में हो रहे अन्य प्रदर्शनों से एक बार फिर कई बातें उभरकर सामने आ रही हैं। एक तो यह कि ईशनिंदा जैसे मुद्दे पर गंभीर रुख अख्तियार करने वाले मुस्लिम समाज को बार-बार उकसाने का काम आखिर क्यों किया जाता है? किसी भी धर्म के किसी भी आराध्य का अपमान करना किसी दूसरे धर्म या विश्वास के लोगों के लिए इसलिए तो आसान हो सकता है क्योंकि या तो जन्म से ही वह व्यक्ति किसी धर्मविशेष के विरुद्ध सुनता आ रहा हो तथा उसे दूसरे धर्म के विरोध की शिक्षा-दीक्षा से ही संस्कारित किया गया हो। परंतु ऐसा कोई व्यक्ति जिसे अपने आराध्यों, पैगम्बरों, अवतारों या विश्वासों के विषय में सकारात्मक जानकारी दी गई हो, उनका मान-सम्मान करना सिखाया गया हो तथा उस समाज में महापुरुष के रूप में उसे मान्यता प्राप्त हो, मेरे विचार से किसी भी समुदाय का व्यक्ति अपने ऐसे आराध्य महापुरुषों के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करेगा।

ऐसे में बार-बार इस्लाम धर्म के महापुरुषों को निशाना बनाने का आखिर औचित्य क्या है? दूसरी बात यह भी है कि दुनिया यह बात भी भलीभांति समझती है कि आम मुसलमानों के सडक़ों पर उतरने व रैली व प्रदर्शन में उनके शामिल होने की आड़ में तमाम आतंकवादी व कट्टरपंथी संगठन सक्रिय हो उठते हैं। वे अपने हथियारों के बल पर तथा सोची-समझी साजि़श के तहत हिंसक घटनाओं को अंजाम देते हैं। परंतु ऐसी हिंसा की बदनामी पूरे मुस्लिम समाज के हिस्से में आती है। अब इसी से जुड़ा दूसरा सवाल यह भी उठता है कि पूरे मुस्लिम जगत को हिंसा भडक़ाने का जि़म्मेदार ठहराना भी कहीं एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साजि़श का हिस्सा तो नहीं? जो भी हो जहां इस फिल्म के बहाने तौहीन-ए-रसूल की कोशिश या इस्लाम को बदनाम करने के नापाक इरादे को मुस्लिम जगत द्वारा सहन नहीं किया जा सकता वहीं इनके विरोध में हो रहे हिंसक प्रर्दशनों तथा इसमें होने वाली बेगुनाहों की मौतों को भी कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। ज़रूरत है दोनों घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण व अध्ययन करने की कि ऐसी आपत्तिजनक फिल्म के निर्माण के पीछे छुपा गुप्त एजेंडा क्या है और यह भी कि आम मुसलमानों की भावनाओं की आड़ में आतंकी संगठन आखिर कैसे सक्रिय हो उठते हैं और उनकी सक्रियता भी कहीं एक पूर्व नियोजित साजि़श का हिस्सा तो नहीं? जो भी हो जहां किसी धर्म या विश्वास या अवतार व पैगबर को अपमानति करना निंदनीय है वहीं इसके विरोध के नाम पर बेगुनाहों का मारा जाना भी कम निंदनीय नहीं है।

2 COMMENTS

  1. वो रसूल आपकी कोम का है दुनिया का नहीं ……………….वैसे भी जो भी फिल्म में दिखाया गया है वो सब आपकी हदीसो में ही लिखा है सत्य बात तो ये है की जो मुल्ले दुसरे धर्मों की निंदा करते नहीं थकते वो सचाई नहीं सुनना चाहते है तथा विश्व को अपने हिंसक आन्दोलनों से डराना चाहते है पर यहूदी है जो डरते नहीं इनसे एवं १.५ करोड़ यहूदी १.५ अरब मुल्लो पर भरी पद रहे है …………

  2. ये ईसाइयत की ये सोची समझी साजिश है. अभी मुश्लिम धर्म पर फिल्म तो कभी हिन्दू देवी देवताओं का भद्दा चित्रण. एक बड़ा ही मौजूं सवाल है प्रेम और सहनशीलता की बुनियाद का धर्म (ईसाई धर्म) अपने मूल को भूल कर नफरत और असहनीय पीड़ा का धर्म बन चुका है और दूसरा शांति और भाई चारे के धर्म का तो क्या कहना ? इनको देख कर तो लगता है ये लोग कभी इन बातों के पास से भी गुजरे हैं क्या?

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