
केवल कृष्ण पनगोत्रा
राजनीति एक गंदा धंधा है या राजनीति जनकल्याण की तकनीक है। एक राय यह भी है कि आजकल भले लोगों को राजनीति से दूर ही रहना चाहिए। मगर प्रतिवाद तो यह भी है कि कमल को हासिल करने के लिए कीचड़ में जाना ही चाहिए।यह राजनीति की वर्तमान दशा पर आशा और निराशा की कशमकश से प्रस्फुटित कुछ ऐसे उद्गार हैं जिन में समाज का हर वर्ग उलझा हुआ है। मगर तस्वीर न आंखों को सुहाती है न ही दिल को लुभाती है। राजनीति शास्त्र के तकनीकी व्याख्याकार मानते हैं कि राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज+नीति। (राज मतलब शासन और नीति मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने कि कला) अर्थात् नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है। लेकिन राजनीति का मौजूदा उपयोग तो कुछ अलग ही तस्वीर दिखाता है। राजनीति के कई किस्से हैं, कई मान्यताएँ हैं, कई सिद्धांत हैं। लेकिन वर्तमान का परिदृश्य निराश करता है। वर्तमान की राजनीति धर्मों के रूप में प्रतिस्थापित जीने के रंग-ढंग और तौर-तरीकों पर हमलावर है। आज की राजनीति मानवता की संयुक्त संस्कृति पर हमलावर है। मानवता के मूल्यों को संरक्षित रखने के लिए धर्मों का परिचय, जोड़ने के अभिप्राय हेतु, पैगम्बरों, फकीरों और ऋषियों ने कराया था। राजनीति उन्हीं धर्मों से तोड़ने का कार्य कर रही है। मसलन, हिन्दू से मुसलमान भयभीत है और मुसलमानों से हिन्दू को भय का आभास कराया जा रहा है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने जो राजनीति की उसका उद्देश्य न तो हिंसा थी और न ही विभाजन। युद्ध की नौबत तो तब आई जब पांडवों को धोड़े की नाल बराबर अधिकार देने से कौरव इन्कार कर दिए। उसी महाभारत काल में शकुनि भी राजनीति के पासे फेंक रहे थे, मगर उद्देश्य पर आज तक भी प्रश्न चिन्ह ही लगते आ रहे हैं। वर्तमान में राजनीति का जैसा स्वरूप सामने आया है उसमें तो हर ओर शकुनि ही शकुनि नजर आते हैं जहां राजनीति के दिखावे में धर्म के पासे फेंकने की चतुर क्रीड़ा होती है। कहने का तात्पर्य यह हो रहा है कि राजनीति धर्मों को साधन बना कर अपनी महत्वाकांक्षा को साधने का प्रयत्न कर रही है। निश्चित तौर पर राजनीति का जो स्वरूप सामने आया है, वह तत्कालिक रूप से राजनीतिबाजों के लिए लाभदायक हो सकता है मगर दूरगामी परिणाम सुखद नहीं हो सकते।धर्म और राजनीति के मेल से पैदा हो रहे दुष्परिणामों को लेकर कमोबेश हर नागरिक चिंतित है फिर भी स्वार्थपरक मानसिकता से प्रेरित राजनीति धर्म तो क्या जीवन के साधारण तौर-तरीकों पर हमलावर है। मनुष्य जाति के वस्त्र तक नफरत की भेंट चढ़ रहे हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल के चलते विचित्र परिस्थितियाँ उत्पन्न होती जा रही हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है मगर वर्तमान स्वरूप काफी निराश करने वाला है। हम न केवल धर्म का बल्कि साधारण सी समस्या का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं। इस संबंध में अभिनेता सुधीर दलवी का अभिमत है- “भौतिकवादी जीवनशैली के चलते हम संस्कारों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक। निश्चित रूप से अब तक जो स्वरूप सामने आया है वह नकारात्मक है। इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को अलग रखें और धर्म को अलग तभी इंसानियत धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे। ……..जॉर्ज बर्नाड शॉ क्रिश्चियन थे, पर उन्होंने अपनी वसीयत में यह लिखा था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाए। यह उदाहरण अपने आप में इतनी सारी बातें कहता है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सबकुछ आ जाता है।”आश्चर्यजनक तो यह है कि राजनीति से पैदा हुए धार्मिक कट्टरवाद को यह कहकर न्यायोचित ठहराया जा रहा है कि पहले उनका कट्टरवाद समाप्त होना चाहिए, फिर हमारा भी हो जाएगा। जब लोग यह कहने लगें कि हम भी उतनी हिंसा करेंगे जितनी वो लोग करते हैं तो विचार करें हमारी नस्लें, जिन्हें हम बहुत प्यार करते हैं, कैसे खूनी माहौल में जीवन के पीछे भाग रही होंगी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-“राजनीति और धर्म के मेल से सांप्रदायिक राजनीति का प्रादुर्भाव होता है और यह सबसे खतरनाक मेल है तथा इसे समाप्त किया जाना चाहिए।”राजनीति कहां गंदी है। यह तो जन कल्याण की तकनीक है। फिर भी धर्म और राजनीति का घालमेल भारत जैसे देश के लिए विस्फोटक माहौल का निर्माण करता हुआ नजर आ रहा है।
इंसान महोदय,
सादर नमस्कार!
आपके विचार से पूर्णतः सहमत हूं। समस्या तब भी थी, समस्या आज भी है। वर्तमान इतना विषाक्त हो गया है कि भविष्य हमारी भावी नस्लों के लिए शुभ होगा क्या? मुद्दा समस्या भी है और बड़ा सवाल भी।
टिप्पणी दे कर मेरे प्रयास को सार्थक किया।
हार्दिक आभार
(के के पनगोत्रा)
नहीं महाशय जी, आप मुझसे सहमत नहीं बल्कि कल के “वर्तमान” आप मेरी पीठ पर बैठ भविष्यमयी वर्तमान में सेंध लगाते दिखाई देते हैं| यदि आप डॉ. अजय खेमरिया जी का आलेख पढ़ते तो आप स्वयं आपके प्रयास को निरर्थक होते भी देखते|
युगपुरुष नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व के अंतर्गत कांग्रेस-मुक्त भारत में आपके विषाक्त “वर्तमान” को दूर भगा भारत-पुनर्निर्माण ही एक प्रभावशाली प्रतिविष है जिसके लिए प्रधान-मंत्री ने सभी नागरिकों को मिल विकास की ओर बढ़ने के लिए उनका आह्वान किया है|
यदि आप जागे हैं तो अवश्य ही आपके विषाक्त “वर्तमान” की “कल तक भावी नस्लें” भारत छोड़ विदेश जा बसने को लालायित हैं| क्यों? आज की भावी नस्लों को देखते उनके भविष्य हेतु आपकी भर्त्सना नहीं—हिंसा को देख कुशल न्याय व विधि व्यवस्था को दुहाई दें न कि बीच सड़क के खड़े राष्ट्रीय शासन की राजनीति को पीटें!—आपके पुरुषार्थ की आवश्यकता है|
लेखक का “वर्तमान” पिछले सत्तर वर्षों से तो मैं देखते आया हूँ लेकिन अचम्भा तो यह है कि उनके “वर्तमान” की छाया प्रवक्ता.कॉम के इन्हीं पन्नों पर प्रस्तुत डॉ. अजय खेमरिया जी के आलेख, “प्रतिबद्ध अफसरशाही और इस्लामोफोबिया का सियासी खेल” में प्रतिबिंबित हुई आज भी दिखाई दे रही है!
भारत के वर्तमान इतिहास में १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी बहादुर शाह ज़फर और आज कांग्रेस-मुक्त भारत पुनर्निर्माण के अग्रणी युगपुरुष नरेन्द्र मोदी द्वारा राष्ट्र में एक अरब अड़तीस करोड़ भारतीय, जिनमें सभी धर्मावलम्बी कदम से कदम मिला विकास की ओर अग्रसर हैं, सचमुच धर्म और राजनीति का घालमेल ही है जो कभी फिरंगियों के और आज मृत्यु-शय्या पर पड़ी उनके प्रतिनिधि कार्यवाहक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या बना हुआ है!