अरहर और मक्का की अंतर्वर्ती खेती

अमित कुमार मौर्य, विन्नी जॉन एवं उत्कर्ष सिंह राठौर

अंतर्वर्ती पद्धति खेती क्या है? मिश्रित अथवा अंतरवर्ती खेती है कि, किसी फसल के बीच में दूसरी फसल को उगाने की विधि को सहफसली शस्यन अथवा अंतर्वर्ती फसल पद्धति कहते हैं। जब दो या दो से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलग अलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. इस विधि से प्रथम फसल के बीच खाली स्थान का उपयोग दूसरी फसल उगाकर किया जाता है। इस प्रकार पहले उगाई जाने वाली फसल को मुख्य फसल तथा बाद में उगाई गई फसल को गौड़ फसल कहते हैं। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही मिश्रित खेती हमारी कृषि प्रणाली का एक अभिन्न अंग रहा है। मिश्रित खेती की परिकल्पना मौसम की विपरीत परिस्थितियों में खेती में अनिश्चितता को कम करने की दृष्टिकोण से की जाती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो या दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं, तो यह सम्भावना होती है कि यदि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाये तो दूसरी अथवा तीसरी फसल से उसकी भरपाई हो जाये और इस प्रकार उस खेत से लाभ प्राप्त किया जा सके। यह सुरक्षा केवल मिट्टी की नमी के दृष्टिकोण से ही नहीं वरन् कीट व रोगों के प्रकोप की स्थिति में भी मिश्रित खेती के द्वारा लाभ प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश में लगातार बढ़ती जनसंख्या विस्फोट के कारण जोत का आकार दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है। अतः खेती योग्य भूमि का लगातार जिस प्रकार दोहन हो रहा है उससे खेत की उर्वराशक्ति का ह्रास हो रहा है, साथ ही प्रति इकाई उत्पादन भी घटता जा रहा है। एकल फसल पद्धति की अपेक्षा मिश्रित फसल पद्धति से मृदा स्वास्थ्य को भी बनाये रखने में मदद मिलेगी। अंतरवर्ती फसल उत्पादन से किसान चाहे तो वर्ष भर आवश्यकतानुसार आमदनी प्राप्त कर सकता है। इससे किसान को प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिल सकती है। आज हमारे देश में किसानों के द्वारा मिश्रित फसल पद्धति बहुत तेजी से ज़ोर दिया जा रहा है। परन्तु फिर भी इसके अतिरिक्त कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं होने के कारण सफलता नहीं मिली है, जितनी किसान को आवश्यकता है। आज आधुनिकता का दौर है, जिसको मशीनीकरण का दौर भी कहा जाता है, यदि मशीनों के इस दौर में मशीनों का उपयोग कर अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाया जाये तो निश्चित तौर पर कम लागत में अधिक मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। खेती में जिस प्रकार दिन-प्रतिदिन बढ़ती लागत को लेकर किसान हैरान परेशान हैं। उसको देखते हुये यदि, उपलब्ध संसाधनों में अंतरवर्ती फसल उत्पादन प्रणाली को अपनाया जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक मुनाफा प्राप्त किया जा सकता है। अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन के लाभ अंतर्वर्ती फसल पद्धति यानि सह फसली खेती में मुख्य रूप से दूर-दूर कतारों में बोई गई फसलों के मध्य स्थित रिक्त स्थान, प्रकाश के स्थानीय वितरण, पोषक तत्व, मृदा जल आदि संसाधनों के कुशल उपयोग की अवधारणा निहित होती है। यह प्रणाली मूलतः फसल, समय तथा स्थान के उपयोग का मिश्रित स्वरूप होती है जिसका मूल उद्देश्य किसानों को उसके कार्यों का स्थाई प्रतिफल प्रदान कराना होता है। वास्तव में यह कृषि पद्धति पौधों की वृद्धि हेतु वांछनीय सीमा कारको के कुशल उपयोग का अवसर प्रदान करती है।

अब समय आ गया है, कि अंतरवर्ती फसल उत्पादन को वैज्ञानिक पद्धति के रूप में अपनाकर लाभ लिया जाए। इस पद्धति को अपनाने के निम्नलिखित लाभ हैं, जैसे- दूर-दूर की कतारों में लगायी जाने वाली फसलें अरहर, गन्ना, कपास आदि की बुआई के बाद लम्बे समय तक कतारों के बीच के स्थान का कोई उपयोग नहीं हो पाता है। गन्ना और अरहर की फसलों की प्रारंभिक वृद्धि दर बहुत ही कम होती है, जिसके कारण कतारों के बीच खाली स्थान में खरपतवार की समस्या उत्पन्न हो जाती है, जो मिट्टी से नमी एवं पोषक तत्व ग्रहण करने के साथ-साथ मुख्य फसल के पौधों को भी भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए विवश कर देते हैं। अतः इसके फलस्वरूप फसल की उत्पादकता पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि दो कतारों के बीच इस खाली स्थान का उपयोग ऐसी फसल को लगाकर किया जाये, जो कम दिनों में तैयार हो और उसकी प्रारम्भिक वृद्धि दर तेज हो, तो यह फसल, मुख्य फसल से किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा किए बिना अपना जीवन चक्र पूरा कर लेगी। मुख्य फसल जब तक अपनी तीव्र विकास अवस्था में पहुंचेगी तब तक दूसरी फसल कट जायेगी। इस प्रकार मुख्य फसल के पौधों को बिना हानि पहुंचाए हुए एक नई अतिरिक्त फसल इसी खेत से एक ही समय में ली जा सकती है। इस पद्धति को समानान्तर खेती की संज्ञा दी जाती है। जैसे- गन्ने की फसल में आलू, गन्ने में प्याज, गन्ने में धनियां, अरहर में धनियाँ, अरहर में मक्का और गन्ने में लहसुन इत्यादि समानान्तर फसल के उदाहरण हैं। घटती हुई कृषि योग्य भूमि और बढ़ती हुई आबादी को भोजन प्रदान करने के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाई जाए। मिश्रित खेती उपज बढ़ाने का एक प्रमुख माध्यम है। उन क्षेत्रों में जहां रोजगार के साधन कम हैं, उन स्थानों पर इसको अपनाने से लोगों को रोजगार के अतिरिक्त अवसर उपलब्ध होते हैं और प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि होती है।

मिश्रित, अन्तरवर्तीय एवं समानान्तर खेती में सिंचित एवं असिंचित अवस्था में लगायी जाने वाली फसलों की एक सूची नीचे दी जा रही है, जो किसानों के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध होगी। क्र. सं. अंतर्वर्ती फसलें मौसम अनुपात 1. अरहर + मक्का खरीफ 1:2 2. अरहर + तिल खरीफ 1:2 3. अरहर + मक्का खरीफ 1:1 4. सोयाबीन + मूंगफली खरीफ 1:6 5. मूंगफली + बाजरा खरीफ 4:1 6. मूंगफली + तिल खरीफ 4:1 7. मूंग + तिल खरीफ 1:1 8. अरहर + सोयाबीन खरीफ 1:1 सहफसली खेती के प्रकार:- 1. समानान्तर शस्यन:- इस विधि में ऐसी दो फसलों को एक खेत में साथ-साथ उगाया जाता है जिसकी वृद्धि अलग‘-अलग प्रकार से होती है। इनमें एक फसल सीधे ऊपर बढ़ने वाली तथा दूसरी फैलकर बढ़ने वाली होती है। इन फसलों के बीच में वृद्धि के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती हैं। इन्हें अलग-अलग कतारों में इस प्रकार उगाया जाता है कि एक फसल से दूसरे की वृद्धि प्रभावित न होने पाए। उदाहण स्वरूप अरहर+मक्का, अरहर+उर्द या मूंग, कपास+मूंग या सोयाबीन। 2. सहचर शस्यन:- इन फसलों को एक साथ इस प्रकार उगाया जाता है कि दोनों फसलों से शुद्ध फसल के समान उत्पादन मिल जाता है। अर्थात् इस प्रकार के फसलोत्पादन में प्रयोग की जाने वाली दोनों ही फसलें शुद्ध फसल के समान उपज देती हैं। दोनों पौधों की खेत में पौधों की संख्या शुद्ध फसल के समान रखी जाती है। उदाहरण स्वरूप गन्न +सरसो, गन्ना+चना, गन्ना+मटर, अरहर+ मूंगफली आदि। 3. बहुखण्डी शस्यन:- अलग अलग उंचाईयों पर बढ़ने वाली विभिन्न फसलों को एक साथ एक खेत में उगाने को बहुखण्डी शस्यन कहते हैं। विभिन्न ऊँचाईयों पर बढ़ने वाली फसलों के एक साथ उगाने पर फसलों में स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है। बहुखण्डी फसलों के चचुनाव करते समय भूमि की किस्म और फसलों के प्रसार दोनों बातों पर ध्यान रखा जाता है। उदाहरण – पपीता+बरसीम आदि। 4. सिनरजेटिक शस्यन:- सिनरजेटिक शस्यन बहुफसली शस्यन का एक रूप है जिस में दो फसलों को साथ-साथ इस प्रकार उगाया जाता है जिससे मुख्य और गौड़ फसलों का उत्पादन शुद्ध फसल की अपेक्षा बढ़ जाता है। जैसे आलू+गन्ना विभिन्न फसलों की वृद्धि का क्रम, उनकी जड़ों की गहराई एवं उनके पोषक तत्वों की आवश्यकता अलग-अलग होती है। यदि दो ऐसी फसलें जैसे- अरहर, मक्का, धनिया, आलू, हल्दी, मूंगफली, जिनमें एक उथली जड़ वाली तथा दूसरी गहरी जड़ वाली हो तो दोनों भूमि की अलग-अलग सतहों से नमी एवं पोषक तत्वों का भरपूर अवशोषण तथा उपयोग करती हैं। इस प्रकार जल एवं पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता बढऩे से उनकी उपज बढ़ जाती है। खरीफ की फसल में किसान मक्का की अधिक पैदावार लेने के लिए अरहर के साथ मक्का की फसल उगा कर सह फसली खेती का लाभ ले सकते हैं। मक्का की फसल की बुवाई अनाज, भुट्टे और हरे चारे के रूप में की जाती है। जबकि दलहनी फसलों में अरहर की फसल प्रमुख मानी जाती है। इसकी अधिक पैदावार सह फसली खेती से ही ली जा सकती है। मक्का की संकुल खेती समय पर बुवाई करने के बाद निराई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण कर लेने पर 35 से 40 कुंतल मक्का की पैदावार मिलती है। मक्का के साथ सहफसली खेती के रूप में अरहर भी उगाई जा सकती है। क्योंकि अरहर की फसल की बुवाई अधिकांश किसान असिंचित खेतों में करते हैं, जिसके कारण अरहर की फसल में आधे से कम उपज मिल पाती है।

 अरहर की मक्का के साथ सह फसली खेती करने के लिए पानी की बेहतर निकासी होनी चाहिए। खेत की मिट्टी बलुई दोमट होनी चाहिए। खेत की तैयारी करते समय पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। तीन गहरी जुताई देशी हल से या कल्टीवेटर से खेत की मिट्टी भुर-भुरी बनाकर फसल की बुवाई करनी चाहिए।

 मृदा से नमी, पोषक तत्व, प्रकाश एवं खाली स्थान का समुचित उपयोग किया जा सकता है|  इस फसल पद्धति में धान्य फसलों के साथ दलहनी फसलों को उगाकर मृदा स्वास्थ्य को बनाये रख सकते हैं|

 इसमें एक सीधी तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है|

 तेज वर्षा एवं तेज हवाओं के कारण होने वाले मृदा अपरदन को भी अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाकर रोका जा सकता है|

 अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाने से श्रम, पूंजी, पानी, उर्वरक इत्यादि को बचाकर लागत को कम किया जा सकता है|

 तेज हवा, तेज वर्षा, अन्य प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों के द्वारा फसलों की सुरक्षा करना आसान है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में उगाया जा सकता है|

 फसलों को रोग एवं कीटों से भी बचाया जा सकता है| जैसे- वैज्ञानिकों के द्वारा शोध में पाया गया है| चने की फसल में धनिया को अंतर्वर्ती फसल के रूप में उगाने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है|

 अंतरवर्ती फसल उत्पादन से किसान वर्ष में कई बार आमदनी प्राप्त कर सकता है| अगैती सहफसली खेती में अरहर और मक्का की फसल की बुवाई मई के दूसरे पखवाड़े से जून के पहले पखवाड़े तक कर देनी चाहिए। बीच का शोधन करने के बाद ही प्रयोग करें। यह अच्छी तरह देख ले कि जो बीच खेत में बोया जा रहा है वह उन्नतशील प्रजाति का है या नहीं। किसानों को अधिक उपज लेने के लिए तरुण, नदीम, कंचन, स्वेता, सरताज और प्रभात प्रजाति की मक्का की बुवाई करनी चाहिए। फसल की बुवाई करते समय लाइन से दूरी 60 सेंटीमीटर रखनी चाहिए और पौधे से पौधे की दूरी 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बुवाई के समय किसानों को मिट्टी के परीक्षण के आधार पर खाद का प्रयोग करना चाहिए। मक्का में दाना पड़ते समय व अरहर में फली आते समय तना छेदक तथा पत्ती लपेटक कीड़ा का प्रकोप होता है इसके नियंत्रण के लिए किसानों को कार्बोफ्यूरान 3 फीसद, ग्रेन्यूल 20 किलोग्राम को 25 सौ लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर देना चाहिए। अन्तर्वर्ती खेती की सीमायें  सहफसली शस्य-प्रबन्ध में कभी-कभी व्यावहारिक समस्याएं भी उत्पन्न होती है जिससे किसान के समक्ष अनेक उलझने खड़ी हो जाती हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:-  कृषि कार्यों के यंत्रीकरण में कठिनाई होती है। यह कठिनाई बीजों की बुआई, निराई, गुड़ाई, कटाई तथा संसाधन इत्यादि सभी क्रियाओं में उपस्थित होती है।  उर्वरकों की मात्रा तथा प्रयोग में कठिनाई होती है।  शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी दवाओं के प्रयोग में असुविधा होती है।  फसलों की गुणवत्ता घट जाती है। इसप्रकार, अन्तर्वर्ती खेती की उपरोक्त समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए कृषि वैज्ञानिको ने उन्नत तकनीके विकसित कर ली है। अब अधिकांश फसलो की ऐसी किस्मे विकसित कर ली गई है जिनमे कीट रोग का प्रकोप नहीं होता है। बुआई, निराई-गुड़ाई और कटाई हेतु भांति-भांति प्रकार के छोटे बड़े यंत्र/मशीने विकसित कर ली गई है जिनकी सहायता से अन्तर्वर्ती फसलों की खेती आसानी से की जा सकती है। कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण अब सुगमता से किया जा सकता है। उर्वरक और सिंचाई में फसलों की आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है, इस प्रकार से हम कह सकते है कि खेती में बढती लागत और मृदा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन किसानो की आमदनी दोगुना करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है।

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