अब क्या लाशों पर सियासत छत्तीसगढ़ का भी संस्कार बनेगी। आजाद भारत मेंं शालीन राजनीति की परम्परा का झंडाबरदार रहा यह प्रांत गत तीन दिनों से जिस प्रकार के घटनाक्रम से गुजर रहा है, वह भविष्य को ले कर गंभीर सवाल खड़ा करता है। देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा से संबद्ध अधिकारी के द्वारा किये गये ‘कायरता कृत्य’ (राहुल जी के परिजन इस सख्त टिप्पणी के लिये क्षमा करें) के संबंध में सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों का ही रवैया समाज में हताशा और नैराश्य का संदेश देता है। लाश पर हवन को कोई भी सभ्य समाज कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
प्रदेश के होनहार पुलिस अधिकारी राहुल शर्मा की असामयिक मौत से जितना परिवेश आहत है, उससे कहीं अधिक अचंभित मृत्यु के बाद के घटनाक्रम से है। जिस देश में आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी में डाला गया है, वहां आत्महत्या किया हुआ शख्स ‘राजकीय सम्मान’ के साथ अंतिम संस्कार का हकदार करार दिया जाना सरकार के मानसिक दिवालियेपन के अलावा और क्या जाहिर करता है। कर्तव्य पालन करते हुए नक्सलियों से मुठभेड़ में जान देने वाले अमर शहीद विनोद कुमार चौबे और अपने दायित्व से पीठ दिखा कर आफिसर्स मेस में खुद को गोली मार लेने वाले राहुल शर्मा क्या एक ही दर्जे के हकदार थे। बिलासपुर जिले में दो माह के कार्यकाल में कुल जमा 22 दिन की नौकरी करने वाले पुलिस अधीक्षक के द्वारा की गई आत्महत्या के पीछे खनन माफिया को जिम्मेदार बता रहा प्रतिपक्ष क्या वाकई अपने आरोपों के प्रति गंभीर है। बिलासपुर से पहले राहुल शर्मा तीन साल तक रायगढ़ में रहे, जहां वाकई खनन गतिविधियां हैं। वहां तो राहुल को किसी के द्वारा रोकने या दबाव डालने का कोई प्रकरण संज्ञान में नहीं आया और बिलासपुर में आते ही उन पर दबाव हो गया जहां खनन के नाम पर शून्य बटा सन्नाटा है।
राहुल शर्मा हम सभी के बेहद अजीज और बेहद होनहार व काबिल अफसर थे। उनके कार्यों के प्रति पूरा सम्मान एवं निजी संबंधों के तहत पूर्ण स्नेह रखते हुए भी उनके द्वारा आत्महत्या का कदम उठाया जाना जायज नहीं ठहराया जा सकता। राहुल जी ने अपने इस एक कदम से केवल पुलिस अधिकारी के दायित्व से ही पीठ नहीं दिखाई, बल्कि वह अपने वृद्ध माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी पुत्र का, जीवनपर्यंत साथ निभाने की शपथ लेकर अपनी अर्धांगिनी बनने वाली पत्नी के प्रति समर्पित पति का और अपने दो अबोध पुत्रों के प्रति जिम्मेदार पिता का कर्तव्य निर्वहन से भी पीठ दिखा गए। यह पलायनवादी रवैया उन्होंने क्या महज एक उच्च अधिकारी से दो महीने की तथाकथित खटपट अथवा न्यायाधीश की एक दो फटकार से ही व्यथित हो कर उठा लिया।
श्री शर्मा एक आईपीएस अफसर थे, जिसका वजूद महज एक आई.जी. के रहमोकरम पर निर्भर नहीं हो सकता। इस प्रदेश में मुकेश गुप्ता नाम का भी अफसर मौजूद है, जिसमें डीजीपी के लड़के को उन्हीं के सामने गुस्ताखी की सजा देने का माद्दा रहा है। राहुल को जानने वाले यह कैसे यकीन कर लें कि बीजापुर-दंतेवाड़ा में नक्सलियों से जूझने वाला शख्स अपने ‘बॉस’ की घुड़की का जवाब देने का एक मात्र विकल्प ‘आत्महत्या’ ही चुन सका। यदि यही विकल्प है तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ झंडा उठाने के एवज में जेल तक जा चुके आई.जी. संजीव भट्ट को तो कब की आत्महत्या कर लेनी चाहिये थी।
सुसाइड नोट को आधार मान राहुल को ‘सिस्टम की भेंट चढ़ जाना’ करार दिया जाना कितना उचित है। हर सिपाही अपनी बीट का प्रभारी होता है, तो क्या इसका यह अर्थ मान लिया जाये कि उस इलाके के इंस्पेक्टर का वहां कोई भी दखलअंदाजी करना सिपाही की आत्महत्या का कारण बन जायेगा। यदि ऐसा ही है तो अब भूले से भी पीएचक्यू में बैठा कोई अधिकारी जिलों में फोन करने तक का साहस नहीं जुटा पाएगा।
शरीर में लगी चोट के आधार पर गत दो हफ्ते से अवकाश पर चले आ रहे राहुल शर्मा यदि कार्यालयीन दबाव को खुदकुशी का आधार बतायें तो दाल में कुछ काला लगता है। लेकिन पूरी दाल ही काली तब लगने लगती है जब वह शख्स यकायक रात को अपने पत्नी-बच्चों का भरा-पूरा परिवार छोड़ कर सोने के लिए आफिसर्स मेस में चला आता है। मामले का रोचक पहलू यह है कि उस मेस में वह ‘बॉस’ भी रह रहा है, जिससे राहुल अपने आपको तथाकथित रूप से प्रताड़ित बता रहे थे। प्राणहीन पत्थरों को पूजने और जिंदा इंसानों को दुत्कारना भी हमारी आदत में शुमार हो चुका है। इसी का नतीजा है कि अब तक अपने तेवरों के चलते नायक समझे गये जी.पी. सिंह में यकायक लोग ‘खलनायक’ तलाशने लगे।
दरअसल राहुल पुलिस महानिरीक्षक जी.पी. सिंह से कितना प्रताड़ित थे, यह तो पता नहीं लेकिन उनकी आत्महत्या के बाद के घटनाक्रम ने जी.पी. सिंह को किस कदर मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रखा है इसका अंदाजा उनके द्वारा की गयी तबादले संबंधी गुजारिश से ही लगाया जा सकता है। श्री सिंह का पद छोड़ने संबंधी यह कदम भी उतना ही पलायनवादी है जितना श्री राहुल का जिंदगी छोड़ने संबंधी था। ‘ना दैन्यं, ना पलायनम’ यह हमारी संस्कृति रही है। न दीन बनो और न पलायन करो, यह हमारे जीवन का आधार बिंदु रहा है। फिर गुरू गोविंद सिंह की गौरवशाली परम्परा का वाहक शख्स चंद आलोचनाओं से व्यथित हो अपने कर्तव्यपालन से विमुख क्यों हो उठा।
ऊपर से तुर्रा यह कि अर्थी के साथ उठे सियासत के गुबार से घबराई सरकार आवेदन को एक टांग पर खड़ी होकर तुरंत स्वीकार करने को भी तत्पर हो गई। क्या एक अधिकारी का गत बीस साल का उत्कृष्ट रिकार्ड एक सुसाइड नोट और चंद आलोचनाओं के आधार पर खारिज कर दिया जाना उचित ठहराया जा सकता है। यदि हां तो राहुल शर्मा ने तो आत्महत्या की थी लेकिन यह सियासत एक कर्तव्यपरायण अधिकारी की कैरियर की ‘हत्या’ करने की जिम्मेदार होगी। बेहतर होगा कि सरकार जी.पी. सिंह के आवेदन एवं उसके स्वीकृति के आदेश को रद्दी की टोकरी में डाल सीबीआई जांच के निष्कर्ष आने का इंतजार करे।
साथ ही हमारी विनम्र प्रार्थना ईश्वर से कि वह दिवंगत राहुल शर्मा की आत्मा को शांति दे और उनके संपूर्ण परिवार को यह दुख सहन करने का सामर्थ्य प्रदान करे।