जनता जनार्दन है : सच या झूठ

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राजीव गुप्ता

जनाब आजकल की फिजा कुछ ऐसे ही है ! अन्ना हजारे जी का ये शब्द ” जनता राजा है और सरकार जनता की सेवक ” मेरे लिए एक झंझावत से कम नहीं है और हो भी क्यों ना ! इतिहास साक्षी है 4 जून, 2011 की काली रात को भला कौन भूल सकता है ! जिसमे सेवक द्वारा अपने मालिक पर अत्याचार किया गया ! उस अत्याचार का शिकार तो आम जनता ही हुई है जिसमे नौजवान , बूढ़े , बच्चे और औरतें ही शामिल थी ! उनकी गलती क्या थी ? अत्याचार के बाद सेवक ने आधिकार जमाते हुए राजा से कह दिया कि क्या करे जनाब मालिक के साथ ऐसा बर्ताव करना हमारी मजबूरी थी और कोई रास्ता नहीं बचा था हमारे पास ! अब आप सोचिये लोकतंत्र की बुनियादी आदर्श के मुताबिक कोई भी सरकार स्वयं सत्ता का स्रोत ना होकर जनता के निर्णय को असली जामा पहनाने वाली अर्थात कानून बनाने वाली एक अधिकृत संस्था मात्र है इससे ज्यादा कुछ नहीं फिर सेवक ने ऐसी ये हिमाकत की ! जबकि उसे पता है सत्ता रुपी स्वर्ग का आनंद प्राप्त करने के लिए मुझे कल मालिक के पास ही जाना पड़ेगा ! गत दिनों से हम भारत के दो जामवंत अन्ना हजारे जी और बाबा रामदेव जी को हनुमान जी की तरह अपनी शक्ति को भूली हुई जनता को सतत जागरूक करते हुए देखा है और देख रहे है ! सेवक अर्थात सरकार चेतने के बजाय इन दोनों जामवंतों को अविरत निरंतर दबाने में लगी है ! इनके साथ सरकार स्वयं को जनता की कार्यकर्त्ता ना मानकर इनके साथ न्यायधीश – सा व्यवहार कर रही है ! और सरकार द्वारा यह तर्क देकर जनता को बरगलाया जाता है कि अन्ना हजारे जी की मांगो को यदि मान लिया जाय तो लोकतंत्र का ढांचा बिखर जायेगा जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है ! सच तो यह है कि सरकार को यह लगता है अन्ना जी की मांगों को मानने से लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा ! परन्तु सच उएह है कि लोकतंत्र का अस्तित्व का तो पता नहीं पर उसका अस्तित्व जरूर खतरे में पड़ जायेगा ! क्योंकि सरकार के मंत्रीगण भ्रष्टाचार तो कर नहीं पायेगें और जिन्होंने किया होगा उनका हस्र्न भी 2 – जी स्पेक्ट्रम घोटाला , आदर्श सोसायटी घोटाला , कामनवेल्थ घोटाला के मंत्रियों की तरह होगा ! और अगर बाबा रामदेव जी की मांगों मान लिया होता तो बेचारों का कुबेर का खजाना जिसे जनता की गाडी कमाई को चूस चूस कर लूटा है वापस लाना पड़ता ! फिर किस मुह से अपने मालिक अर्थात जनता के पास जायेगे सरकार के सामने असली सवाल यही है !

मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है कि हमें इतिहास में यह पढाया गया था कि गांधी जी के भारत आगमन से भारत में पहले चल रहे आंदोलोनों की प्रकृति में कैसे बदलाव आया ! गांधी जी नेतृत्व वाले आंदोलोनो में कैसे समाज के सभी वर्गों के लोगों ने चाहे वो कृषक हो , मजदूर हो, स्त्री हो, पुरुष हो, बच्चे हो, विद्यार्थी हो , बूढ़े हो, वकील हो, शिक्षक हो, व्यवसायी हो, किसी भी मत के मानने वाले हो भाग लिया ! अन्ना जी और रामदेव जी के आन्दोलन का हिस्सा बनने का सौभाग्य मै प्राप्त कर चुका हूँ और इसलिए मै पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ इन दोनों आंदोलनों में समाज के हर तबके के लोग शामिल थे चाहे वो प्रत्यक्ष रूप से हों अथवा अप्रत्यक्ष रूप से ! और शायद इसलिए सरकार इन दोनों आंदोलनों से डर गयी और उन्हें कशमकश के बीच कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इसक विकल्प क्या हो सकता है , ठीक उसी तरह जिस तरह गांधी जी के आंदोलनों का विकल्प ब्रिटिश हुकूमत को समझ नहीं आ रहा था ! इसकी पुष्टि तब हो गयी जब सत्ता पक्ष की एक राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता ने सिविल सोसायटी पर यह कहते हुए सवाल उठाया कि अगर कोई सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि बन कर आ जयेगा तो क्या हम सरकार उनकी बात सुनेगी ? यहाँ आपको यह बताना दिलचस्प होगा कि अन्ना जी के अनुसार एक सेवक अपने मालिक से यह प्रश्न कर रहा है ! असल में वो प्रवक्ता महोदय कहना यह चाहते थे कि हम सरकार है , सर्वज्ञं , और समर्थ है और जनता की ये हिम्मत कि वो हमसे सवाल करे ! तो जनाब मै आपको बड़े इतिमिनान के साथ बताता हूँ कृपया सुनें भी और पहचाने भी ! पहले तो मैंने गांधी जी की बात कर रहा था जो शायद कुछ पुरानी बात हो गयी होगी ! अब मै आपके ही 1974 वाली सरकार की बात कर रहा हूँ ! ठीक आप वाला सवाल भी उस समय की तत्कालीन प्रधानमंत्री जी ने भी सम्पूर्ण क्रांति की अगुवाई कर रहे श्री जाय प्रकाश नारायण से पूछा था और कहा था कि सड़क पर दस-बीस लोग अगर इकठ्ठा होकर सरकार से इस्तीफ़ा मागने लगे तो क्या हम इस्तीफ़ा दे देगे ! जवाब में जय प्रकाश जी ने कहा था आवाज सड़क से उठी है , सड़क पर उतरी जनता से उठी है , इसका फैसला तो सत्ताधारियों को अपने विवेक से करना है ! जब आधी रात को जय प्रकाश जी को गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने बस यही कहा था कि “विनाश काले विपरीत वुद्धि” ! और सचमुच ऐसा ही हुआ !

दुर्भाग्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री जी फैसला नहीं कर सकी और सड़क पर उतरी जनता ने उन्हें बेदखल कर यह साबित कर दिया जनता ही जनार्दन है सरकार सेवक मात्र ! परन्तु क्या प्रवक्ता साहब आपको सड़क की आवाज और संसद के बाजारू शोर में कोई फर्क नजर नहीं आता ! राम मनोहर लोहिया जी ने अंगरेजी हटाओ की लहर पूरे देश में पैदा कर दी थी , परन्तु उनके आन्दोलन को को कुचलने के लिए आंशू गैस के गोले नहीं दागे गए , आन्दोलनकारियों के ऊपर लाठियां नहीं भांजी गयी ! लोकतंत्र को हमेशा सत्ताधारियों ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए दांव पर लगाया है ना कि आम जनता ने इस बात का इतिहास गवाह है ! इतना ही होता तो गनीमत थी इन्ही की पार्टी के एक और नेता ने बाबा रामदेव के आन्दोलन पर सवाल खड़ा कर कहा कि बाबा जी तो योगगुरु हैं , लोगों को योग सिखाते है उन्हें बस वही तक सीमित रहना चाहिए ! तो साहब मै आपका ध्यान उन लोगों की तरफ दिलाना चाहता हूँ जो फ़िल्मी जगत से राजनीति में आये है ऐसे लोगो को संरक्षण आपकी पार्टी ने देकर उन्हें मंत्री तक बनाया है ! और तो और कई उद्योगपति भी राजनीति में है साथ ही अब ऐसे रईसजादों को राज्यसभा का टिकट देने का प्रचालन भी बढ़ता ही जा रहा है ! तो आप ऐसे कुतर्क का सहारा लेकर जनता को बरगलाने की कोशिश कतई ना करे ! और आपको बता दूं बाबा रामदेव योग गुरु बाद में है देश के नागरिक पहले है और यदि आप थोडा भी लोकतंत्र में विश्वास रखते हो तो आपको यह बात समझ आनी चाहिए ! जब जब लोकतंत्र की नैतिक शक्ति का चीर-हरण होगा तब तब जनता अपनी आवाज उठाती रहेगी, चाहे प्रतिनिधि कोई भी हो ! इन दोनों महाशयों के लिए मुझे किसी की कही हुई पंक्तियाँ याद आती हैं कि –

“सुविधाओं में बिके हुए लोग , कोहनियों पर टिके हुए लोग !

बरगद की बात करते है गमलों में उगे हुए लोग !! ” 

विवेकानंद जी जब ” दरिद्र नारायण ” शब्द देकर असहाय और वंचित लोगों की मदद करने के लिए लोगों से आह्वान किया तो उस समय की तत्कालीन सरकार तक ने यह नहीं कहा विवेकानंद जी केवल अध्यात्म करे दरिद्र की सेवा नहीं ! परन्तु इन दोनों महाशयों ने ऐसी बेतुकी बात करके जनता को बरगालने की पूरी कोशिश की है ! उनकी इस घटिया कोशिश का जबाब तो समय के गर्भ में है !

मै सत्ता में बैठे लोगों से यह पूछना चाहता हूँ कि जब हर दफ्तर लूट का अड्डा बन गया हो , हर सरकारी काम बिना घूस के ना हो सकता हो , बड़ी रिश्वत, बड़ा कमीशन, और बड़ा हिस्सा टैक्स चोरी का अगर देश की सीमा से बाहर जाता हो या देश के काले तहखानों में छुपा कर रख दिया जाता हो तो क्या देश के नागरिकों को यह अधिकार नहीं कि वो जनता के प्रतिनिधियों से यह सवाल करे या भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाये तथा देश के बाहर गए काले धन को वापस लाने एवं उसे राष्ट्र सम्पति घोषित करने की मांग करे ? क्या यह सच नहीं है आज नगर पंचायत से लेकर संसद तक लोकतंत्र नहीं लूटतंत्र बन गया है , ! यह बात खुद कई राजनेता भी मान चुके है योजनाओं का पूरा पैसा कभी भी जनता के पास नहीं पहुचता और तो और संसद में नोट के बदले वोट और यहाँ तक कि पैसे लेकर बदले में संसद में प्रश्न तक पूछा जाता ! भ्रष्टाचार का सरकार को और क्या प्रमाण चाहिए ? मुझे लगता है सरकार नीतियों में नहीं अपनी नीयत पर ज्यादा ध्यान दे !

बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की अगुआई में चलाये गए दोनों आंदोलनों को जिस तरह से स्वतः स्फूर्त जन समर्थन मिला उससे तत्कालीन सरकार पूरी तरह बौखला गयी ! और बौखलाए भी क्यों ना जनाब , मामला जो जनता से सीधे तौर से जुड़ा है ! जब देश की सरकार भ्रष्टाचार के ईंधन पर चल रही हो और उससे किनारा करने का मतलब खुद के लिए खतरे की घंटी हो तो भला वो अपने राजा उर्फ़ ” जनता ” को क्या जबाब दे ! इसी से झल्लाई हुई सरकार ने अन्ना जी के आन्दोलन खत्म होने के चंद दिनों बाद बाबा रामदेव के आन्दोलन पर हुई पुलिसिया कारवाई कर अपनी समाज के प्रति मंशा व गंभीरता साफ़ कर दी ! यह कहना सत्य है कि राज्य नागरिक समाज से ही बनता है ! इसलिए मूल तो नागरिक समाज ही है और राज्य नागरिक समाज को चलाने की व्यवस्था मात्र ! सिर्फ इतनी सी बात सत्ता में बैठे लोगों को समझ नहीं आती ! अब जनता को ही आने वाले दिनों में असली फैसला करना है कि सचमुच वो जनार्दन है या नहीं !

3 COMMENTS

  1. पहले तो इस सारगर्भित लेख के लिए एक बुजुर्ग की बधाई स्वीकार कीजिये.आपके लेख में उम्मीद की एक किरण दिखती है,पर जमीनी हकीकत ऎसी है की बार बार सोचना पड़ता है की आखिर सरकारें अपने को इतना सशक्त क्यों समझती है और उसी जनता या उनके नुमाइंदों पर कहर बरसाने में नहीं चूकती जिनकी सेवा उसका सम्वैधानिक कर्तव्य है. अगर आपने प्रवक्ता में प्रकाशित इधर के लेखों और टिप्पणियों को पढ़ा होगा तो आपको इसका कारण भी समझ में आ रहा होगा.जनता एक तो इतने खेमों में बंटी है की सरकार को मालूम है की उसमें एकता थोड़े देर के लिए भले ही दिखे पर उसमें स्थाईत्व नहीं है.दूसरा कारण यह है की हम में से करीब करीब सब लोग भ्रष्टाचार के अंग हैं.भारत में भ्रष्टाचार के इतने तेजी से पनपने में कहीं न कहीं हम सबका सहयोग है.इसीलिए हम दिखावे के लिए अन्ना जी या बाबा रामदेव जैसे लोगों के साथ भले ही हों ले ,मगर हममे से ज्यादा लोग यही चाहते हैं की भारत में भ्रष्टाचार कायम रहे,पर उसका लाभ केवल हमें मिले.मैंने पहले भी लिखा है की आजाद भारत में सामूहिक भ्रष्टाचार की नींव किन लोगों ने डाली.ऐसे तो भारत में भ्रष्टाचार आजादी के पहले भी था.इसके सम्वन्ध में प्रेमचंद की रचनाओं के अलावा १९३९ में दिया गया गांधी जी का यह वक्तव्य भी उल्लेखनीय है.
    “कांग्रेस में फैले हुए अनियंत्रित भ्रष्टाचार को सहने के बजाये मैं कांग्रेस को अच्छी तरह दफनाया जाना ज्यादा पसंद करूंगा.”
    इस हालात में आपका यह लेख इसलिए भी उम्मीद की किरण जगाता है ,क्योंकि आप युवा हैं और आपही लोगों के आगे आने से कुछ हो सकता है.ऐसे १९७४ में भी जय प्रकाश नारायाण ने युवकों के बल पर ही सम्पूर्ण क्रान्ति का आवाहन दिया था और में उसीकी असफलता उनके दुखद अंत का कारण बनी.ऎसी यह दूसरी बात है की उन्ही युवकों में से कुछ आज भ्रष्टाचारियों के सिरमौर हैं. ,अतः आज तो और फूँक फूँक कर कदम रखने की आवश्यकता है.मैंने भी जय प्रकाश नारायण के समय से लेकर आज तक की भारतीय मनोवृति को अपने लेख नाली के कीड़े(प्रवक्ता १ मई ) में समाहित करने का प्रयत्न किया है.
    टिप्पणी ऐसे तो बहुत लम्बी हो गयी,पर आप जैसे युवक के लेखनी से निकले हुए इस सारगर्भित लेख ने ,सच पूछिए तो मेरी तडप को और बढ़ा दिया ,क्योंकि इस तरह से सोचने और उस पर अमल करने वालों की कमी मुझे हताश कर देती है.

  2. बहुत अच्छा लिखा है आपने
    ऐसी सोंच का विस्तार होना चाहिए

  3. राजीव जी धन्यवाद
    आज समाज के हर वर्ग को यह पता चल गया है
    की भ्रस्ताचार क्या है
    और यह भी पता है की यह कहा कहा है .
    इस भ्रस्ताचार के आगे कौन है पीछे कौन है यह भी पता है .
    इस भ्रस्ताचर का निदान क्या है यह भी पता है

    फिर भी हम इसे मिटा नही पा रहे है .क्यों ?

    भाई बिल्ली के गले में घंटी कौन बाधे,

    लेकिन यदि ऐसे ही आप जैसे लोग मसाल उठाये रहोगे तो वह दिन दूर नहीं जब उजाले में सारा देश होगा .
    और ये भ्रस्ताचार नाम की बिल्ली तिहाड़ जेल में हिंदी सीख रही होगी .

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