अभी अभी प्रदेश की जनता ने अपना फैसला ईव्हीएम मशीन की वटन दबाकर दर्ज करा दिया, एक पखवाड़े बाद फैसला आना है, फैसला आने तक सारे के सारे नेता फुर्सत में है। हमने अपने विधानसभा प्रत्याशी के न मिलने पर एक बड़े नेता के चुनाव लड़ने पर उनका मन टटोलकर बात छेड़ दी, मान्यवर इस समय आप फुर्सत में है, क्या महसूस कर रहे है ? वोटिंग से मतगणना के परिणाम आने तक के दिन तथा चुनाव जीतने के बाद चुनाव की घोषणा तक के दिन में, आप कौन से दिनों को अपने लिये सुखद एवं अनिश्चितता के दिन समझते हो? नेता ने घूरा, झुंझलाते हुए कहा तुम्हारा प्रश्न ही दिशाहीन एवं भ्रमित करने वाला है। अरे प्रश्न ऐसे करों जो राष्ट्रीय संदर्भ के हो,, प्रदेश की प्रगति के हो भारतीय संदर्भ में यह प्रश्न व्यक्तिगत प्रश्न है, हम राष्ट्रीय स्तर के नेता है, संसद, विधानसभा हमारे लिये घर ऑगन जैसे है, एक बार के नहीं पॉच-छह बार के विधायक है, सांसद भी रहे है, केन्द्रीय मंत्री भी रहे है, पार्टी ने जरा सी जिम्मेदारी देकर विधानसभा चुनाव क्या लड़वाया, हमें फुर्सत में कह रहे हो, अरे भाई हमें सॉस लेने की फुर्सत नहीं है फिर जनसेवा और देश का विकास करना हमारी पहली प्राथमिकता एवं नैतिक जिम्मेदारी होने से हम क्यों कुछ महसूस करें, महसूस वे करें जिनकी किस्मत में विधानसभा का दरवाजा बंद रहता है। हमारा जीना, मरना, हॅसना रोना सब सरोकार जनता से है इसलिये इसलिये हमारे समय को सदा एक सा समझो और याद रखो जैसे दिल्ली के सभी मंत्रालय के दरवाजे हमारे लिये खुले है, वैसे ही इस बार भी विधानसभा का दरवाजा हमारे लिए खुला है। हम अपनी जीत को लेकर निश्चित है इस लिये गुड़फील में है।
असल में मैं जिस बड़े नेता से बात कर रहा हॅू, वे बड़े घाघ है, एक दो चुनाव अपने पैसों से लड़े उसके बाद पार्टी और पूंजीपतियों के चंदे से चुनाव लड़ते आ रहे है, इसलिये उनकी जेब पर असर नहीं होने से वे प्रश्नों को टाल रहे है। थोड़ी देर पहले ही उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं का दरबार सजाया था तब वे जीत पर संशंकित थे, उन्हें अपनी हार का डर सता रहा था और जनता को रूलाने वाले वे खुद रो रहे थे, पर मगरमच्छ जैसे उनके ऑसू उनके मन की तरह डावाडोल है, कब आना है, कब जाना है, इस पर नेता जी का पूरा नियंत्रण है। इस बार के ज्यादा प्रतिशत मतदान ने उनकी नींद उड़ा दी है, वे प्रत्येक बूथ का रिकार्ड लेकर कई बार बूथ कार्यकर्ताओं के साथ अलग-अलग राय लेकर जनता द्वारा उनको औकात याद दिलाये जाने का एहसास कर अपने मन में अन्दर तक धॅसकर अपने भविष्य को लेकर पूरा गुस्सा निकाल चुके है। उन्हें अपने प्रतिद्वन्दियों पर गुस्सा आता है, धोखेबाज, बदमाश, नमकहराम, हमने राजनीति में लाए, नेता बनाया, हमारे पैर छूते हुए उसकी कूबड़ निकल आयी उसने हमें धोखा दिया और स्वामीभक्ति न निभाकर अपने सेवक होने के धर्म से गिर गया, साला अधर्मी कहीं का।
अरे ये क्या ? कैसा चिंतन? नेता जी की मनोदशा तो ठीक है न ? बोया पेड़ बबूल का, आम कहॉ से होय? कहीं अपने विरोधी को लेकर राजनीतिक कुर्सी की चकाचौंध में आंखों के अंदाज में हाथी का आकार-प्रकार पहचानने में वे अपनी मूल उपदेशक की भूमिका को चुनावी माईकों सें शोरगुल कर खो तो नहीं चुके है? वेद-पुराण के ज्ञाता, ब्रम्ह के जानकार भ्रम में कैसे ? कहीं ब्रम्ह नाम का अर्थ इन्होंने भ्रम तो नहीं समझ लिया, संभव जानकार तो यहीं चर्चा कर रहे थे कि इनके अहं का विस्फोट होने से यह सब हुआ। नेताजी जैसा अति धीर, गंभीर, धर्मपरायण सज्जन पूरे जिले में नहीं, उन्होंने राजनीति की थी, पर इस बार उन्होंने अपने चेहरे पर राजनीति का चेहरा पहन लिया। बस चेहरा असर करने लगा, मन की दशा और दिशा काबू से बाहर हो गयी, कुर्सी का धर्म इतना प्रगाढ़ होने से आत्मा में बस गया, जिसमें सारी नैतिकता बाढ़ बनकर बह गयी। कुर्सी के लिए फिर अपने लिये एक नए त्रिशंकु राज्य बनाने की जिद नेता जीं के सिर पर तांडव करने लगी, उनके लिये कुर्सी ही ईमान, कुर्सी ही धर्म, कुर्सी ही सब कुछ होकर रह गयी, तभी भाई भाई के प्रति चुनाव लड़कर रामायण के भ्रातधर्म के किस्से-कहानियॉ सुनाकर सबके दिलों पर राज करते थे, वे नैतिकता की चादर में भ्रातधर्म को लपेटकर राजघाट पर मुखाग्नि दे आए। फिर सेवक से स्वामी धर्म की आस करना दोहरे चरित्र की निशानी है और यही दोहरा चरित्र जिसमें सारे रिश्तों की बलि चढ़ा दी जाये आज की राजनीति है, जिसका एक ही धर्म है, वह है स्वार्थ। जहॉ सिर्फ अपना ही पेट भरना होता है, आईमीन अपना ही बॉध होता है जिससे अपनी ही प्रगति होती है, अपने ही लोग कमीशन, भ्रष्टाचार आदि मिलाकर इस बॉध की कुल लागत, कुल जमा पानी एकत्र करने, खर्च करने में भ्रम की भीड़ को प्रगति दिखाना होता है, तमाम जनता के बीच चल रही बिना सिरपैर की इन बातों पर नेता जी फुर्सत में चिंतन कर बैंचेन है, परेशान है, उनकी रातों की नींद गायब है।
नेता जी को मेरे प्रश्न का मनन कर सोच रहे है कि निश्चिंतता और परमसुख तो चुनाव जीतने के बाद ही हो सकेगी। उन्होंने हर घर और हर गली-गॉव से उनके जीतने को लेकर फीडबेक लिया। अपने घर के एकांत में वे स्वयं और अपने घर-परिवार तथा खास शुभचिंतकों के साथ चिंतन किया कि इस बार मतदाता प्रजातंत्र की रक्षा करने वाले समर्पित मुझे या अन्य किसे ऐतिहासिक जीत दिलायेंगे ? कहीं कार्यकर्ताओं की अंदरूनी खींचतान, दलबदल से मिली टिकिट का मान-सम्मान और अपमान को, टिकिट से वंचित दावेदार व उनके शुभचिंतक भीड़ के रूप में जय-जयकार करके अपुन की तरह खुद के चेहरे पर चेहरा लगाकर तो नहं चल रहे है अगर ऐसा हुआ तो हार के साथ ये मुॅह काला किए बिना नहीं छोड़ेंगे? मतदान समाप्ति के बाद जिन्होंने बूथों के ठेके ले रखे थे वे जीत के दावे ऐसे कर रह है, जैसे वोटरों से पार्टियों ने वायदे किये थे। यह ख्याल आते ही नेता जी का दिल बैठा जाता है, दवाईयों की पूछपरख होती है खुद की आत्मा से प्रश्न करते है, जबाव मिलता है कि आप ही होशियार है और सारे वोटर मूर्ख समझ रखे है, जब नेता अपने को छटा हुआ धूर्त बना ले, और सभी धूर्त मिलकरकर लड़े तब वोटर धूर्तो को मूर्ख नहीं बना सकता है, इतनी अकल तो अब वोटरों में आ गयी है, जिसे सुनकर नेताजी सदमें में है। नेता जी के चमचे ने घुड़का, तुम पत्रकार हो, फुर्सत में हो, तुम्हारे पास खबर नहीं है, खबर पैदा करने के लिये तुम खामोखॉ हमारे नेता जी को फुर्सत में समझने की भूल कर उनका कीमती समय बर्बाद करने आ टपके, चलिये,जाईये। मैं नेता जी को उनके चमचो सहित उनके हाल पर छोड़कर घर लौट आया। अब कल फिर किसी फुर्सत में बैठे नेता से मिलूगॉ, ताकि पाठकों की सेवा कर सकॅू, भले नेता जी जीतने के बाद राहु केतु की महादशा की तरह मुझ पर छा जाये पर पाठकों के लिये मैं राहु-केतु और शनि की भी परवाह नहीं करूॅगा।
आत्माराम यादव पीव