आंदोलन की आड़ में देश को बदनाम करने की साज़िश तो नहीं?

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……..सोनम लववंशी
   जहां खूबियां होती है, वहां खामियां भी जरूर रहती है। किसान आंदोलन के नाम पर हो रहे आंदोलन से तो यही प्रतीत हो रहा है मानो अब आंदोलन अपने स्वार्थ पूर्ति तथा राजनीतिक लाभ का जरिया बनकर रह गया हैं। इतना ही नहीं मानो लगता है, कि आंदोलनकारियों को न ही देश के मान से कोई सरोकार है, और न ही आंदोलन से जनता को हो रही परेशानियों की कोई चिंता। 26 जनवरी को किसान आंदोलन के नाम पर ट्रैक्टर रैली की आड़ में हुई हिंसा, लाल किले पर राष्ट्रध्वज के अपमान की घटना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण थी। बल्कि इस घटना ने देश के लोकतंत्र को भी वैश्विक पटल पर शर्मशार किया है। किसान आंदोलन के नाम पर देश मे हो रही राजनीति न केवल देश तक सीमित रही है बल्कि अब विदेशी शक्तियां भी आंदोलन को एक अलग ही मोड़ देने में लगी है। जिनका केवल और केवल एक ही मक़सद है कि कैसे वैश्विक पटल पर भारत को नीचा दिखाया जा सके। 
 जिस किसान आंदोलन का आगाज शांतिपूर्ण ढंग से हुआ था, उसका अंजाम इतना दुर्भाग्यपूर्ण होगा इसकी कल्पना शायद ही किसी भारतीय ने की होगी। 2 महीने से शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन में 26 जनवरी को हुई घटना ने कालिख़ पोतने का काम किया है। अब सवाल यह उठता है कि क्या अपनी मांगों को लेकर किए जा रहे आंदोलन में शक्ति प्रदर्शन करना जरूरी था? कोई भी आंदोलन तभी किया जाता है जब सरकार बात न सूने। यहां तो ऐसी कोई बात नजर नही आई क्योंकि अगर ऐसा था तो सरकार और किसानों के बीच आंदोलन के दौरान 11 दौर की बातचीत नहीं होती। जिस किसान बिल के नाम पर महाभारत की जा रही है। उसे भी आगामी डेढ़ साल तक रोकने की बात तक कि गयी थी, पर किसान नेता बिल रद्द करने की बात पर अड़े हुए है। जबकि सरकार किसान बिल में सुधार करने को तैयार है। फिर क्यों इस आंदोलन को जारी रखा गया। क्या इस आंदोलन को भी शाहीनबाग की शक्ल देने का काम किया जा रहा? सबसे बड़ा सवाल तो अब यह है। देखा जाए तो दोनों ही आंदोलन में काफी समानता नजर आती है। शाहीनबाग के आंदोलन में सीएए और एनआरसी को गलत रूप में प्रस्तुत किया गया तो वही किसान आंदोलन भी एक वर्ग विशेष के हितों की रक्षा के लिए ही किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो केवल पंजाब और हरियाणा राज्य के किसान ही कृषि बिल का विरोध नही कर रहे होते। इस आंदोलन का नेतृत्व ही पंजाब के राजनीतिक दलों के द्वारा किया जा रहा है। इन नेताओं को आंदोलन के नाम पर अपना राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहा है।जब आंदोलन ही राजनीति से प्रेरित होकर किया जाए तो उस आंदोलन का हश्र यही होना था। इस आंदोलन में विदेशी शक्तियों का दखल भी साफ देखा जा सकता है। जिन्हें भारत से कोई विशेष लगाव नही है, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ देश मे गतिरोध पैदा करना है। यही वजह है कि अभी चंद दिनों पहले किसान आंदोलन का समर्थन करने के लिए विदेशी शख्सियत यानी पॉप गायिका ने ट्वीट कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत को कमजोर दिखाने का प्रयास किया। पोर्न स्टार मिया खलीफा जिसे न तो किसानी का मतलब समझ आता है और न ही किसानों के मुद्दों की कोई समझ। वह भी किसान के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करती दिखी। फ़िर भी क्या यही समझा जाए कि किसान आंदोलन की आड़ में भारत को कमज़ोर करने की साज़िश नहीं? पर्यावरण मुद्दों पर अपनी अंतराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली ग्रेटा थॉर्नवर ने तो किसान आंदोलन में हिंसा की पूरी साजिश तक रच डाली। उनके द्वारा जारी की गई टूल किट से साफ पता चलता है कि कैसे भारत मे अस्थिरता लाने की साजिश रची गयी थी। ऐसे में जाहिर सी बात है कि इन सेलिब्रिटी को भारत के किसानों से कोई हमदर्दी तो रही नही होगी? होगी भी कैसे? इन सभी का ताल्लुक दूर दूर तक खेती किसानी से नहीं। ताल्लुक़ है तो एक विशेष विचारधारा से। फ़िर स्पष्ट रूप से इनका मकसद तो पैसे लेकर अपनी पॉपुलैरिटी का उपयोग भारत के विरोध में करना था। लेकिन जब हमारे ही देश का एक बड़ा तबका इन विदेशी शख्सियत के पक्ष में खड़ा हो जाये तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण ओर क्या होगा?
  भारत में किसान आंदोलन का इतिहास काफी पुराना रहा है। इन आंदोलनों में से अधिकतर आंदोलनों ने हिंसा का रूप अख्तियार कर लिया था। 1 मार्च 1987 को भारतीय किसान यूनियन ने बिजली की बढ़ी  दरों को लेकर आंदोलन किया था। यह  आंदोलन भी अपने अंजाम तक पहुँचने से पहले ही हिंसा की बलि चढ़ा दिया गया। 27 मार्च 1989 को अलीगढ़ में भूमि अधिग्रहण को लेकर आंदोलन किया गया । जिसमे एक किसान की मौत होने के बाद आंदोलन को खत्म करना पड़ा। साल 2010 में नोएडा में भूमि अधिग्रहण को लेकर भी आंदोलन किया गया। जिसमे आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया था। इस आंदोलन के तीन साल बाद भूमि अधिग्रहण पर नया कानून बना। अधिक्तर किसान आंदोलन हिंसक और उग्र रूप में ही नजर आए है। देश मे कोई कानून बनता है तो उसे भी सहज स्वीकार कर पाना बहुत ही कठिन होता है। कृषि कानून पर भी यह बात लागू होती है। लेकिन कृषि कानून की आड़ में जो राजनीति हो रही है। इसके पीछे कौन सी ताकत काम कर रही है। यह जांच का विषय है, क्योंकि किसान आंदोलन के नाम पर खालिस्तान संगठन भी अपनी जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ है। अब यह बात किसानों को भी समझना होगा कि वे इस आंदोलन को किस दिशा में लेकर जाना चाहते है। 

 जिस संविधान ने देश के नागरिकों को शांति से अपनी बात कहने की आजादी दी है। जिस गणतंत्र ने हमारे देश के लोकतंत्र को मजबूत बनाया। उसी गणतंत्र की मर्यादा को आंदोलन की आड़ में तार तार करना किसी भी भारतीय को शोभा नहीं देता है। लाल किले को भारत की आन बान और शान का प्रतीक माना जाता है। उस किले पर कोई और झंडा फहराना राष्ट्र ध्वज का अपमान करना है। आज तमाम नेता भले ही यह बात कह रहे हो कि लाल किले पर झंडा फहराने की उनकी कोई मंशा नही थी। लेकिन वे इस बात से कैसे इनकार कर सकते है कि रैली के नाम पर किसानों को भड़काने का काम तो उन्ही नेताओ के द्वारा ही किया गया था। आज भी तमाम राजनीतिक दल किसान आंदोलन की आड़ में अपना राजनीतिक लाभ देख रहे है। जिस किसान आंदोलन को राजनीति से दूर रखा गया था आज तमाम किसान नेता अपने आंदोलन को मजबूती देने के लिये नेताओ का समर्थन लेने तक को तैयार हो गए है। किसान आंदोलन पूरी तरह से राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गया है। जिस आंदोलन को जनता का समर्थन और सहानुभति मिली थी। 26 जनवरी की घटना के बाद शायद वह समर्थन मिल पाना नामुमकिन है। तभी किसान नेताओ ने राजनीतिक पार्टियों के समर्थन को स्वीकार कर लिया है। एक तरफ कुछ राजनीतिक दल किसान आंदोलन के पक्ष में खड़े होकर सरकार का विरोध कर रहे है। विदेशी सेलिब्रिटी के देश विरोधी ट्वीट का समर्थन कर रहे है तो वही दूसरी तरफ महाराष्ट्र सरकार तथा कांग्रेस ने किसान आंदोलन के पक्ष में खड़े भारत के सेलिब्रिटी के ट्विटर अकाउंट की जांच के निर्देश दिए है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश मे इस तरह की घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। अब देखना यह होगा कि किसान आंदोलन के नाम पर और क्या क्या राजनीतिक रंग दिखाई देते है।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जो किसान पिछले 2 माह से शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे क्या वही किसान इतना उग्र रूप धारण कर लेंगे? जबकि किसान यह बात जानते थे कि हिंसा उनके आंदोलन को खत्म कर देगी फिर ऐसी क्या वजह थी जो इस घटना को अंजाम दिया गया। वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन एक बात तय है कि जिस किसान आंदोलन को अब तक जनता का समर्थन ओर सहानुभूति मिल रही थी। अब वह समर्थन मिल पाना लगभग नामुमकिन है। सवाल यह भी उठता है कि इस आंदोलन का भविष्य क्या होगा, क्योंकि अब भी कुछ किसान नेताओं द्वारा आंदोलन जारी है। अब देखना यह होगा कि किसान नेताओ का अगला कदम क्या होगा? यह सवाल तो भविष्य के गर्त में है। लेक़िन देश के कुछ नेताओं और खासकर महाराष्ट्र सरकार की नीयत पर सवाल ज़रूर खड़ें हो रहें। आख़िर ऐसी कौन सी सरकार होगी जो अपने ही देश का पक्ष लेने वाले लोगों के ट्वीट की जांच करती है। ऐसे में मामला साफ़ है कृषि क़ानून के नाम पर आंदोलन तो सिर्फ़ बहाना है, बाकी भारत सरकार को बदनाम करना और अपनी राजनीति चमकाना ही सभी का एक मात्र उद्देश्य है।

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