मनमोहन कुमार आर्य
हम इस संसार में वर्षों से रह रहे हैं। हममें से अधिकांश लोगों ने शायद यह मान लिया है कि यह संसार नाशरहित है और हमेशा ऐसा ही रहेगा। शायद ही कोई मनुष्य होगा जो कभी इस संसार की नश्वरता के प्रश्न पर विचार करता होगा। हो सकता है कि आर्यसमाज के स्वाध्यायशील बन्धुओं का इस ओर ध्यान जाता होगा, परन्तु अन्य बन्धुओं के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता हो यह अपवाद स्वरूप ही हो सकता है। महर्षि दयानन्द जी ने इस प्रश्न पर विचार किया था और उनका उत्तर है कि यह संसार प्रवाह से अनादि व अनन्त है परन्तु यह संसार उत्पन्न हुआ है और उत्पन्न हुआ प्रत्येक पदार्थ एक दिन नाश को अवश्य ही प्राप्त होता है। हम अपने जीवन को ही लें, यह कुछ वर्ष पूर्व उत्पन्न हुआ जिसे हम जन्म दिवस कहते हैं। कुछ लोग जीवात्मा के माता के गर्भ में आने को भी जन्म दिवस मानते हैं। हम एक शिशु के रूप में जन्म लेते हैं और शैशव अवस्था के बाद बाल्यकाल व किशोरावस्था आती है, युवा होते है, प्रौढावस्था और अन्त में वृद्धावस्था आने के बाद सभी की मृत्यु हो जाती है। इसके थोड़े से अपवाद भी होते हैं। कोई बचपन में तो कोई युवावस्था में ही इस संसार से चल बसते हैं। यह सब प्रारब्ध या उनकी परिस्थतियों के अनुसार होता है। मनुष्य के शरीर की वृद्धि और नाश होने से हम यह जान सकते हैं कि जिस पदार्थ की उत्पत्ति होती है उसका नाश अवश्य होता है। यहां यह भी जानने योग्य है कि नाश का अर्थ अभाव होना नहीं होता है। नाश को प्राप्त होने वाली वस्तु का स्वरूप परिवर्तित होता है न कि उसका अभाव होता है। जल गर्म होने पर भाप बन जाता है। एक प्रकार से जल वा तरल रूप में न होने पर कुछ लोग इसे उसका नाश मान सकते हैं परन्तु विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि गर्मी के कारण जल वाष्प बन गया है जिसे ठण्डा कर पुनः तरल अवस्था के जल में परिवर्तित किया जा सकता है। जल के वाष्प बनने से जल का अभाव नहीं होता है।
सृष्टि की उत्पत्ति हुई है इस तथ्य का अनुमान सृष्टि में विद्यमान ह्रास के सिद्धान्त से भी होता है। हर पदार्थ समय के साथ पुराना होता जाता है और पुराना होने का अर्थ होता है कि वह अपने मूल अस्तित्व में सदैव नहीं रहता। हमारी यह पृथिवी व सूर्य, चन्द्र आदि सभी ग्रह उपग्रह समय के साथ पुराने होते जा रहे हैं। समय के साथ सभी पदार्थों में अनेक विकृतियां भी देखने को मिलती है। इस कारण से सभी सृष्ट पदार्थों, ईश्वर व जीवात्मा को छोड़कर, का मूल स्वरूप बदलता जाता है। वह हमेशा अपने मूल स्वरूप में नहीं रहता। खेतों में किसान फसल बोता है। छोटे छोटे पौधे के रूप में वह उत्पन्न होती है और समय के साथ उसमें वृद्धि होती है। फसल पक जाने पर उसमें वृद्धि का क्रम बन्द हो जाता है। वह उपयोग के लिए तैयार होती है। उसे काटा जाता है और उसका अन्न या भोजन आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। ऐसा ही परिवर्तन, न्यून व अधिक गति से, प्रायः सभी पदार्थों में होता है। हमारी यह पृथिवी व इसके सभी पदार्थ समय के साथ पुराने हो रहे हैं और इसमें विकृतियां आ रही हैं। हमारा पर्यावरण जैसा शुद्ध व पवित्र होना चाहिये, अब नहीं है। न केवल वायु अपितु जल व अन्य सभी पदार्थ प्रदुषित व विकृति को प्रदान हो रहे हैं। यह एक प्रकार से पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन है।
हमारे ज्योतिष के विद्वानों ने बताया है कि इस सृष्टि की कुल आयु एक हजार चतुर्युगी है। एक चतुर्युगी में चार युग सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्षों का होता है। इसका दुगुना, तिगुना और चार गुना क्रमशः द्वापर, त्रेता व सतयुग होता है। हमारी इस पृथिवी सहित ब्रह्माण्ड की कुल आयु को सर्ग काल कहते हैं जो कि 4.32 अरब वर्षों के बराबर होता है। एक बार सृष्टि बनने व आरम्भ होने के बाद एक सर्ग काल व्यतीत होने पर इस समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड की प्रलय हो जाती है। यह सृष्टि ईश्वर का एक दिन कहलाती है और समान अवधि के प्रलय काल की दृष्टि से एक रात्रि के बराबर होती है। जिस प्रकार से रात्रि के बाद दिन और दिन व्यतीत होने के बाद रात्रि आती है उसी प्रकार से प्रलय के बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करते हैं और फिर यह पूरे सर्ग काल तक विद्यमान रहकर प्रलय को प्राप्त हो जाती है। इसका कारण हमें यह लगता है कि इस अनन्त ब्रह्माण्ड को ईश्वर ने धारण कर रखा है। प्रलय काल ईश्वर की रात्रि के समान होता है। रात्रि में हमें सुख मिलता है। प्रलय रूपी रात्रि में समस्त जीवों को लम्बे समय तक निद्रा रूपी सुख परमात्मा प्रदान करते हैं और इस अवधि में स्वयं भी जाग्रत अवस्था के समान क्रियाशील नहीं रहते। प्रलष्य अवस्था में ईश्वर सृष्टि को धारण्रा नहीं करते, सम्भवतः इसी कारण प्रलय होती है। प्रलय के बाद ईश्वर सृष्टि की पुनः रचना व उसका धारण कर जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म आदि देकर सुख व दुःख का भोग कराते हैं। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और हमेशा चलता रहेगा।
सृष्टि का आरम्भ भी है और अन्त भी है। आरम्भ को सृष्टि की उत्पत्ति व अन्त को प्रलय कहा जा सकता है। प्रश्न है कि ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न क्यों करता है? इसका उत्तर है कि संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं। यह तीन पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति कहलाते हैं। ईश्वर व जीव चेतन सत्तायें हैं और प्रकृति जड़ व सूक्ष्म सत्ता है। चेतन पदार्थ ज्ञानवान व ज्ञान प्राप्ति में समर्थ होते हैं। यह पदार्थ कर्म व पुरुषार्थ करने में भी समथ व सक्षम होते हैं। ईश्वर एक है और वह निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है। जीवात्मा संख्या में अनन्त हैं और एकदेशी होने के साथ अल्प ज्ञान सामर्थ्य व कर्म करने वाले हैं। प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति कहलाती है। यह समस्त सूर्य, पृथिवी, चन्द्र व लोक लोकान्तर आदि सृष्टि इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही विकार हैं जिन्हें सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने बनाया है और वही इन सब को धारण कर इनको व्यवस्थित किये हुए है। परमात्मा ने यह सृष्टि जीवों के सुख के लिए बनाई है। ईश्वर यदि सृष्टि की रचना व पालन न करता तो वह निठल्ला कहलाता। सभी सामर्थ्यवान् लोग अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार पुरुषार्थ व परोपकारादि कर्म किया ही करते हैं और दूसरों के द्वारा उनकी सराहना भी की जाती है। ईश्वर ने भी अपनी सामर्थ्य के साफल्य एवं जीवों के सुखोपभोग तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए इस सृष्टि की रचना की है। संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि दो प्रकार की योनियां है। एक कर्म भोग योनि व दूसरी भोग योनि। मनुष्य येनि उभय योनि है जिसमें जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के फलों का भोग भी करता है ओर नये कर्म भी करता है। इन कर्मों के आधार पर ही उसका भावी जन्म व सुख-दुःख निर्धारित होते हैं। यदि हम शुभ वा अच्छे कर्म करेंगे तो हमारा भविष्य व भावी जन्म हमारे लिए सुखों का कारण बनेगा। यदि हमारे कर्म अशुभ कोटि के होंगे तो हमारा भावी जीवन व परजन्म मनुष्येतर दुःख भोग करने वाली योनियों में हो सकता है। वेद मनुष्य को शुभ कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर ने यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को मार्गदर्शन के लिए दिया था। वेदों में ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप वर्णित है। सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में ईश्वर, जीव व प्रकृति का वेदों के समान उत्तम व उपादेय स्वरूप व ईश्वर व जीवों के सत्य व यथार्थ गुण, कर्म व स्वभाव वर्णित नहीं हुए हैं। अतः वेदज्ञान के बिना दुःखों से निवृत्ति व जीवन मुक्ति नहीं हो सकती। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में वेदों का यथार्थ आशय व सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर उसकी तर्कपूर्ण विवेचना की है और इसमें वेदों की सभी मान्यतायें सत्य व मत-मतान्तरों की अनेक मान्यतायें मिथ्या सिद्ध हुई हैं। अतः वेद, सत्यार्थप्रकाश तथा ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेदभाष्य पठनीय व स्वाध्याय के लिए सर्वोत्तम ग्रन्थ हैं।
इस ब्रह्माण्ड को सृष्ट और अंग्रेजी में क्रियेशन creation कहा जाता है। इसका अर्थ है बनी हुई वस्तु। जो भी पदार्थ व वस्तु बनती है वह नष्ट अवश्य होती है, यह विज्ञान का सिद्धान्त है। अनादि पदार्थ अविनाशी होते हैं और आदि व उत्तपत्ति धर्म वाले पदार्थ नाशवान होते हैं। इस आधार पर भी हमारी सृष्टि का आदि है अर्थात् इसकी ईश्वर से रचना हुई है। एक दिन यह नष्ट भी अवश्य होगी जिसे प्रलय कहा जाता है। यह प्रलय युक्ति व तर्क के आधार पर भी सत्य सिद्ध होती है। इस रहस्य को जानकर मनुष्य पाप से मुक्त हो सकता है अर्थात् वह अनुचित स्वहित, स्वार्थ व पाप से दूर हो सकता है। सन्ध्या के अघमर्षण मन्त्रों में इस भावना को उद्बुध कराने वाले मन्त्रों का विनियोग किया गया है। यह जान लेने के बाद मनुष्य का मुख्य कर्तव्य ईश्वर के गुणों का ज्ञान व उनसे उसकी उपासना व ध्यान निश्चित होता है। स्वामी दयानन्द जी ने इसके लिए सन्ध्योपासना विधि की रचना की है। यह सन्ध्या पद्धति ही वेद व ऋषियों द्वारा समर्थित उपासना पद्धति है। हमारा सौभाग्य है कि यह उपासना पद्धति हमें प्राप्त है। अनेक मतों ने भी इसकी कुछ नकल करने की चेष्टा की है परन्तु ऋषि दयानन्दोक्त वैदिक सन्ध्या ही उपासना विषयक सर्वोत्तम पद्धति है। हमें ईश्वरोपासना सहित अग्निहोत्र यज्ञ, वेदाज्ञा का पालन व परोपकार आदि के कार्य कर अपने जीवन को सफल बनाना चाहिये। हमारी यह सृष्टि नाशवान है। एक दिन यह अवश्य नाश को प्राप्त होगी। हमारे शरीर भी नाश धर्म वाले हैं। इसकी मृत्यु होनी है। हमारे पूर्व व इस जन्म के कर्मों के आधार पर हमारे भावी जीवन का निर्धारण परमात्मा द्वारा किया जाना है। हमारे पास वेदविहित कर्तव्यों का पालन व कर्म करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसा करके ही हम अपने इस जीवन व भावी जन्मों को सुखी व सफल कर सकते हैं। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।