–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
ऋषि दयानन्द को अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में मूर्तिपूजा की विश्वसनीयता अथवा उसकी महत्ता पर शंका हुई थी
जिसका समाधान उनके पिता व अन्य पण्डितगण नहीं कर सके थे। उसके कुछ समय बाद
उनकी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य भाव को जन्म दिया और वह ईश्वर विषयक
प्रश्नों के समाधान तथा मृत्यु पर विजय पाने के लिये अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में अपने घर
से सत्यान्वेषण करने चले गये। स्वामी दयानन्द सन् 1860 में गुरु विरजानन्द सरस्वती जी के
पास मथुरा में अध्ययन के लिये पहुंचे थे और सन् 1863 तक उनसे अध्ययन कर विद्यार्जन
पूरा किया था। वह स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से अध्ययन कर पूर्ण सन्तुष्ट एवं तृप्त भी
हुए थे। स्वामी दयानन्द जी योगी तो पहले ही बन चुके थे। लगभग 18 घण्टों तक की समाधि
लगाने का अभ्यास तो उन्हें पहले ही हो चुका था। इससे हम यह सहज अनुमान लगा सकते हैं
कि उन्होंने अपने जीवन में शताधिक बार ईश्वर का साक्षात्कार किया था। स्वामी दयानन्द जी
की मथुरा में गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में विद्या पूरी होने पर गुरु जी की प्रेरणा से
उन्होंने देश व समाज से अविद्या, अन्धंविश्वास तथा पाखण्डों को दूर कर उनके स्थान पर
सत्य विद्यायों से युक्त ईश्वर प्रणीत चार वेद एवं उनके अनुकूल ऋषियों के सत्यज्ञान से युक्त ग्रन्थों को प्रतिष्ठित करने का
निश्चय किया था। उन्होंने प्राणपण से यह कार्य किया भी और जितना सम्भव था, उन्होंने इस कार्य में सफलता भी प्राप्त की।
महाभारत युद्ध से पूर्व व पश्चात हम देश व संसार में ऋषि दयानन्द जैसा वेद प्रचारक कहीं नहीं देखते जिसने ईश्वर, उसके
ज्ञान वेद तथा ऋषि परम्पराओं का अहर्निश प्रचार करने के साथ अविद्या व अन्धविश्वासों का निर्भीकता एवं साहस से खण्डन
किया हो।
ऋषि दयानन्द ने आगरा में रहकर वेद प्रचार की योजना बनाई थी। उन्होंने दुर्लभ वा अलभ्य वेदों वा वेद संहिताओं को
प्राप्त कर उनका अध्ययन किया और उन्हें ईश्वरीय ज्ञान की कसौटी पर खरा पाने पर ही उनके प्रचार का निश्चय किया था।
इसके बाद उन्होंने देश में सर्वत्र प्रचलित अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्पराओं तथा वेद विरुद्ध पाखण्डों का पुरजोर
खण्डन किया और वैदिक मान्यताओं का मण्डन अपनी अनेक अपूर्व युक्तियों एवं तर्कों से किया। वह प्रचार के लिये देश के
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे और वहां के लोगों से सम्पर्क कर उन्हें उपदेशों से अनुग्रहीत करते थे। उनके जीवन
काल में लोगों ने उनके उपदेशों की महत्ता को तो समझा था परन्तु किसी ने उन्हें संग्रहित व लेखबद्ध कर प्रकाशित करने का
प्रयत्न नहीं किया था। सौभाग्य से जब वह सन् 1875 में पूना पहुंचे थे तो वहां उनके उपदेशों की व्यवस्था की गई थी। स्वामी
दयानन्द जी पूना में धर्म जिज्ञासु न्यायमूर्ति गोविन्द रानाडे जी से मिले थे। उन्होंने ही उनके व्याख्यानों की व्यवस्था की थी।
उन्होंने न केवल व्याख्यान ही कराये अपितु उनको मराठी भाषा में नोट भी कराया था जिसका कुछ समय बाद मराठी में
प्रकाशन भी हुआ था। इन व्याख्यानों का बाद में हिन्दी अनुवाद हुआ और यह सामग्री ‘‘उपेदश-मंजरी” अथवा ‘‘पूना-प्रवचन”
के नामों से प्रकाशित हुए और आज भी यह स्वाध्याय की एक बहुत महत्वपूर्ण निधि हैं। इसे पढ़कर जो ज्ञान प्राप्त होता है वह
स्वाध्याय के अन्य ग्रन्थों व पुस्तकों से भी प्रायः नहीं मिलता। उन उपदेशों के अध्ययन से पाठक के मन में यह स्वाभाविक
प्रश्न होता है कि इतने महत्वपूर्ण प्रवचन स्वामी दयानन्द जी के होते थे। उनका तो एक-एक शब्द संग्रहणीय था। यह तो उस
समय के लोगों से बहुत बड़ी भूल हुई कि वह स्वामी जी के सभी प्रवचनों को संग्रहीत नहीं कर पाये। काश, कि स्वामी जी के सभी
प्रवचनों को संग्रहीत किया जाता तो आज हमारे पास ज्ञान की बहुत बड़ी राशि उपलब्ध होती। हम यह अनुभव करते हैं कि हम
2
अनेक बार सही निर्णय नहीं ले पाते जिसकी हानि का अनुमान बाद में पता चलता है। ऐसा ही कुछ स्वामी जी के प्रवचनों का
संग्रह न हो पाने के विषय में हम अनुभव करते हैं। आर्यसमाज के पूर्व विद्वानों ने भी ऐसा ही अनुभव किया है।
देश व समाज का यह सौभाग्य रहा कि ऐसी परिस्थितियां बनी कि 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की
स्थापना हुई। आर्यसमाज की स्थापना होने से संगठित रूप से वेद व धर्म प्रचार का कार्य होने लगा जिसके सुपरिणाम से ऋषि
दयानन्द ने अनेक योजनायें बनाई और उनको पूर्ण किया। आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व ही सन् 1874 में मुरादाबाद के राजा
जयकृष्ण दास जी की प्रेरणा से स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ का प्रथम संस्करण लिखा जिसे राजा
जयकृष्ण दास जी ने प्रकाशित किया था। इस ग्रन्थ के अन्त के ईसाई व इस्लाम मत की समीक्षा विषयक दो समुल्लास
प्रकाशित नहीं किये गये थे। ग्रन्थ में मुद्रण एवं अन्य अनेक त्रुटियां थीं। सन् 1874 में स्वामी जी को आर्यभाषा हिन्दी बोलने व
लिखने का अभ्यास भलीप्रकार से नहीं हुआ था। इस कारण इस ग्रन्थ की भाषा में सुधार की आवश्यकता भी थी। स्वामी
दयानन्द जी ने भी इन कारणों को अनुभव किया था और अपनी मृत्यु से पूर्व ही सत्यार्थप्रकाश का संशोधित संस्करण तैयार
कर दिया था जो उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 ईसवी में प्रकाशित हुआ। यही ग्रन्थ वर्तमान में ऋषि दयानन्द के जीवन का
सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बना है और इसने सत्यासत्य की परीक्षा, निर्णय, उसे स्वीकार करने व आचरण में लाने की दृष्टि से
विश्व में धार्मिक एवं सामाजिक जगत में हलचल सी उत्पन्न की है। स्वामी दयानन्द जी द्वारा इस ग्रन्थ में व्यक्त किये
विचारों का न केवल धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में प्रभाव पड़ा है अपितु गुलामी दूर कर देश की आजादी में भी इस ग्रन्थ का
महत्वपूर्ण योगदान है। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि स्वामी दयानन्द जी के सभी उपदेशों का संग्रह न हो पाने से जो
अभाव की स्थिति बनी थी, वह इस ग्रन्थ के लेखन व प्रकाशन से आंशिक रूप में पूरी हुई। आर्यसमाज की स्थापना के बाद भी
स्वामी दयानन्द जी ने देश के अनेक भागों में सहस्राधिक उपदेश किये परन्तु उनमें से भी किसी उपदेश का विस्तृत व सार रूप
उपलब्ध नहीं होता। यह सुखद आश्चर्य है कि स्वामी जी के अनेक शास्त्रार्थ व शंका समाधान आदि विषयक सामग्री प्राप्त व
सुरक्षित हो सकी है जिसे हमारे अनेक विद्वानों ने सम्पादित कर प्रकाशित किया है। इस कार्य में पं0 भगवद्दत्त जी तथा पं0
युधिष्ठिर मीमांसक जी का महनीय योगदान है। पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी ने एक गृहस्थी होते जिस प्रकार से ऋषि दयानन्द
के जीवन एवं साहित्य के सम्पादन सहित अनेक ग्रन्थों के सृजन का कार्य किया वह अत्यन्त महत्वपूर्ण, असम्भव प्रतीत होने
वाला एवं सराहनीय कार्य है। हमारा सौभाग्य है कि हमें पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी, पं0 राजवीर शास्त्री, पं0 विश्वनाथ
विद्यालंकार, स्वामी अमर स्वामी जी, स्वामी डॉ0 सत्यप्रकाश जी, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डॉ0 रामनाथ
वेदालंकार, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी, डॉ0 भवानीलाल भारतीय आदि ऋषि दयानन्द के अनुगामी कुछ प्रमुख
विद्वानों के दर्शनों एवं उनके विचारों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हम अपने इस सौभाग्य के लिए अपने जीवन धन्य
मानते हैं।
स्वामी दयानन्द जी के सभी उपदेशों के संग्रह के न होने से जो अभाव हुआ, उसकी पूर्ति उनके लिखे गये अन्य ग्रन्थों
जिनमें ऋग्वेद-यजुर्वेद वेद-भाष्य भी सम्मिलित है, हुई है। इन ग्रन्थों में प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि,
आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि, संक्षिप्त स्वात्मचरित आदि ग्रन्थों से हो जाती है। सभी ऋषि
भक्तों का कर्तव्य है कि वह ऋषि के सभी उपलब्ध ग्रन्थों का सग्रह करें और उनका स्वाध्याय निरन्तर करते रहें। इसके साथ
ही जितना सम्भव हो, वह वैदिक विचारधारा का प्रचार प्रसार भी करें जो कि प्रत्येक वेदानुयायी मनुष्य का कर्तव्य है।
आर्यसमाज के तीसरे नियम में ऋषि दयानन्द जी ने इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक
है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। ऋषि दयानन्द जी के जीवन काल में तो हम उनके
समस्त ग्रन्थों का संचय व संग्रह नहीं कर पाये परन्तु अब हमें इस बात का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये कि आर्यसमाज का
प्रत्येक सदस्य ऋषि दयानन्द के साहित्य का विद्वान हो। ऋषि दयानन्द का कोई वचन व लेख अप्राप्य न रहे। वह लिखित
रूप में भी सुरक्षित रहे और आर्यों के जीवन का अंग बन कर उनके व्यवहार में भी वह परिलक्षित हो। आर्यसमाज में हम एक
3
अभाव यह भी देखते हैं कि परोपकारिणी सभा एवं रामलाल कपूर ट्रस्ट, सोनीपत के अतिरिक्त हमारे पास कोई वृहद प्रकाशन
संस्थान नहीं है। आर्यसमाज का अधिकांश प्रकाशन हमारे ऋषिभक्तों द्वारा स्थापित निजी प्रकाशन संस्थानो ंसे किया
जाता है। भविष्य की सुरक्षा की दृष्टि से इस पर विचार होना चाहिये और गीता प्रेस गोरखपुर के समान आर्यसमाज का भी एक
प्रकाशन स्थान भविष्य में बन सके जो ऋषि दयानन्द विषयक लिखित व प्रकाशित साहित्य को प्रामाणिकता के साथ भव्य व
आधुनिक रूप में उचित मूल्य पर प्रकाशित कर आर्यबन्धुओं को सुलभ कराता रहे। हमारे निजी प्रकाशक जो कार्य कर रहे हैं वह
अत्यन्त सराहनीय है। समूचा आर्यजगत उनका ऋणी है। आर्यजगत के लोगों को इन प्रतिष्ठानों को दान देकर व उनका
साहित्य क्रय कर उनका उत्साह वर्धन करना चाहिये। सभी प्रकाशक अभिनन्दन के योग्य है। आर्यसमाज इनका ऋणी है।
ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121