वेदों के प्रकाश से ही संसार को ईश्वर सहित धर्म आदि का ज्ञान हुआ है

0
136

-मनमोहन कुमार आर्य

                संसार में किस सत्ता से ज्ञान उत्पन्न प्राप्त हुआ है? इस विषय का विचार करने पर ज्ञात होता है कि ज्ञान का प्रकाश ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता परमात्मा से सृष्टि के आरम्भ में हुआ है। परमात्मा ही ने अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता तथा सर्वशक्तिमान स्वरूप से असंख्य चेतन जीवात्माओं को उनके पाप पुण्य कर्मों का भोग कराने के लिये इस सृष्टि को रचा है। परमात्मा के असंख्य अनन्त गुणों में से एक गुण सर्वज्ञान से युक्त होना भी है। इसी को ईश्वर का सर्वज्ञ होना कहा जाता है। ईश्वर के इसी गुण से सृष्टि की रचना सम्भव हुई है। ईश्वर ही इस सृष्टि को रचकर इसका पालन व रक्षण कर रहे हैं। परमात्मा ने इस सृष्टि को ज्ञान-विज्ञानपूर्वक अपनी शक्तियों से बनाया है। वह ऐसी सृष्टि इससे पूर्व भी अनन्त बार बना चुके हैं। इसका कारण ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति का अनादि होना है। यदि ईश्वर ऐसा न करें तो वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सृष्टिकर्ता होकर भी निकम्मा कहलाये जा सकते हैं। कोई भी समर्थ मनुष्य निष्क्रिय जीवन व्यतीत करना पसन्द नहीं करता। सामथ्र्य का लाभ उसे यथास्थान उपयोग करने में ही होता है। इसी प्रकार ईश्वर ने अपनी स्वसामर्थ्य का प्रयोग इस सृष्टि को रचने, पालन करने, जीवों को उनके पाप व पुण्य कर्मों के अनुसार जन्म देने, कर्मानुसार जीवों को सुख व दुःख प्रदान करने तथा जीवों को दुःखों से छुड़ाकर मोक्ष प्रदान करने में किया है व कर रहे हंै। यह ज्ञान हमें ईश्वर से उसके वेदज्ञान सहित वेद के उच्च कोटि के विद्वान ऋषियों के ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त हुआ व होता है। परीक्षा करने पर यह ज्ञान सर्वथा शुद्ध एवं दोषरहित सिद्ध होता है।

                सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व सृष्टि रचना होने के कारण यह सम्पूर्ण जगत् प्रलय अवस्था में अन्धकार से आवृत्त था। सभी जीव इस अन्धकार में ढके हुए सुषुप्ति अवस्था में विद्यमान थे। पूर्व सृष्टि का प्रलय काल समाप्त होने पर परमात्मा ने इस सृष्टि को स्वशक्ति स्वज्ञान सर्वज्ञता से रचा। इस सृष्टि की रचना में आरम्भ से कार्य योग्य बनने तक 6 चतुर्युगियों का समय लगता है। यह अवधि 2 करोड़ 59 लाख वर्ष की होती है। सृष्टि रचना पूर्ण होने पर सृष्टि में अग्नि, वायु, जल आदि सर्वत्र सुलभ हो जाते हैं। भूमि पर वनस्पति, अन्न, फल एवं ओषधियां भी उत्पन्न होती हैं। प्राणी जगत की उत्पत्ति भी परमात्मा क्रमशः करते हैं। मनुष्य आदि प्राणियों के लिए वातावरण सर्वथा अनुकूल होने तथा आवश्यक पदार्थ उपलब्ध होने पर एक पर्वतीय स्थान जहां का जलवायु शीतोष्ण होता है, अर्थात् जिसमें मनुष्य आदि प्राणी जीवनयापन कर सकते हैं, मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। प्रथम परमात्मा अमैथुनी सृष्टि करते हैं। इन स्त्री व पुरुषों में परमात्मा चार पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को उत्पन्न कर उन्हें क्रमश ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के मन्त्रों का ज्ञान देते हैं। मन्त्रोच्चारण तथा उनके अर्थ भी इन ऋषियों को परमात्मा ही अपने सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा जीवस्थ स्वरूप से आत्मा में प्रेरणा व साक्षात् स्वरूप के द्वारा बताता व पढ़ाता है। इन चार ऋषियों ने पहले ब्रह्मा जी को वेद पढ़ाये थे। ब्रह्माजी से ही वेदों के अध्ययन व अन्यों को अध्यापन व पढ़ाने का कार्य आरम्भ हुआ। परमात्मा की कृपा व प्रेरणा से यह व्यवस्था व्यवस्थित रूप से सम्पन्न होती है। इसके बाद ब्रह्माजी सहित सभी ऋषि व विद्वान अपने अनिवार्य कर्तव्य के रूप में दूसरे मनुष्यों को वेदाध्ययन व वेदाभ्यास कराते हैं। यह भी जानने योग्य है कि इस सृष्टि के बनने पर परमात्मा ने मनुष्यों की प्रथम उत्पत्ति तिब्बत नामी पर्वतीय स्थान पर की थी। वैदिक साहित्य मे इन सब बातों के समर्थक प्रमाण व उल्लेख पाये जाते हैं। यह वर्णन बुद्धिसंगत तथा व्यवहारिक होने से मान्य हैं।

                वेदों का अध्ययन प्रचार .करने वाले ऋषियों की मान्यता रही है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है और इसमें सभी सत्य विद्यायें निहित हैं। ऋषि दयानन्द ने ऋषियों की मान्यताओं को पढ़कर तथा इसकी परीक्षा कर इस मान्यता को स्वीकार किया इसको अपने ग्रन्थों के द्वारा प्रचारित भी किया है। उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा सत्यार्थप्रकाश में वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है, इस मान्यता को प्रमाणों सहित प्रस्तुत सिद्ध भी किया है। इसके बाद आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने वेद के सब सत्य विद्याओं से युक्त होने विषयक ग्रन्थ व पुस्तकें लिखी हैं जिससे ज्ञात होता है कि वेदों में बीज रूप में सब सत्य विद्याओं का वर्णन उपलब्ध है। मनुष्य वेदाध्ययन कर अपनी योग्यता बढ़ा कर किसी इष्ट विषय का विस्तार कर उसे निःशंकता से जान सकते हैं तथा उससे देश व समाज को लाभान्वित कर सकते हैं। यह भी बता दें कि वेदों में विमान का उल्लेख मिलने के साथ इसके निर्माण का भी उल्लेख हुआ है। महर्षि भारद्वाज का लिखा वैदिक विमान शास्त्र प्राचीन ग्रन्थ भी उपलब्ध है। वेद तथा दर्शन ग्रन्थों में सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति से क्रमश महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राओं, दश इन्द्रियों, मन व बुद्धि आदि सहित पंच महाभूतों की उत्पत्ति पर भी प्रकाश डाला गया है। दर्शन वेदों के उपांग कहलाते हैं। अतः दर्शनों का ज्ञान वेद ज्ञान का ही विस्तार है जो ऋषियों ने समाधि अवस्था को प्राप्त कर अपने विवेक तथा चिन्तन, मनन सहित अनुसंधान आदि कार्यों के द्वारा प्रस्तुत किया है।

                वेदों में संसार के मूल ईश्वर, जीव प्रकृति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ईश्वर के सत्यस्वरूप वा उसके गुण, कर्म स्वभाव का यथार्थ ज्ञान वेदों से ही प्राप्त होता है। चारों वेदों में ईश्वर की चर्चा आती है तथा उसके स्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है। ऋषि ने वेदाध्ययन कर आर्यसमाज का दूसरा नियम बनाया है जिसमें वह बताते हैं किईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। प्रथम नियम में ऋषि दयानन्द ने बताया है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। ईश्वर सर्वज्ञ है तथा वह जीवों के सभी पूर्व, वर्तमान तथा भविष्य के कर्मों का साक्षी है। जीवों के पुण्य व पाप रूपी कर्मों का फल देने तथा उन्हें दुःखों से मुक्त कराकर मोक्ष प्रदान कराने के लिये ही परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है। मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य को वेदाध्ययन, योग व ध्यान साधना कर ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। सत्कर्म, परोपकार व दान आदि करने होते हैं। अविद्या का नाश तथा विद्या का प्रकाश करना होता है। वसुर्धव कुटुम्बकम् की भावना के अनुरूप सबसे प्रेम, मित्रवत् व स्वबन्धुत्व का व्यवहार करना होता है जैसा कि वर्तमान युग में ऋषि दयानन्द जी ने करके दिखाया है। अतः वेदों की महत्ता इस कारण भी है कि उसी ने सबसे पहले ईश्वर सहित सृष्टि में विद्यमान सभी पदार्थों का सत्यस्वरूप सभी मनुष्यों को बताया है। सब मनुष्यों के कर्तव्य व धर्म का उल्लेख भी वेदों में प्राप्त होता है। इसी लिये वेद मनुष्य के लिये अमृततृल्य विद्या के ग्रन्थ है। यदि परमात्मा वेदों का ज्ञान न देता तो संसार में व्यवस्था देखने को न मिलती जो वर्तमान में है। सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों पर वेदों की शिक्षाओं का प्रभाव भी देखा जाता है। जिस मत में जो भी सत्य कथन व मान्यता है, उसका आधार वेद ही है। वह मान्यतायें वेदों से ही मत-मतान्तरों में पहुंची हैं। मत-मतान्तरों की स्थापना व आविर्भाव से पूर्व भी उन सब सत्य मान्यताओं का प्रचार विश्व में था जिसका आधार वेद ही था। मत-मतान्तरों ने उन्हीं प्रचलित वेद मान्यताओं को अपने मत में स्थान दिया है। इससे वेदों का महत्व निर्विवाद है। 

                संसार में ईश्वर के अतिरिक्त जीवात्मा तथा प्रकृति का भी अस्तित्व है जिसे विज्ञान भी अब तक जान समझ नहीं पाया है। जीव के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जो चेतन, अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान गुणवाला तथा नित्य है वहजीवकहलता है। जीव की यह परिभाषा एक लघु पुस्तकआर्योद्देश्यरत्नमालामें ऋषि दयानन्द ने दी है। यह परिभाषा जीव के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कराती है। सभी मनुष्यों को चाहिये कि वह जीवन के आरम्भ काल में ही सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़े। इससे उनके जीवन को नई दिशा प्राप्त होगी। वह श्रेष्ठ मानव बन सकते हैं। यदि किसी कारण कोई सत्यार्थप्रकाश नहीं पढ़ता तो उसे ऋषि दयानन्द की आर्योद्देश्यरत्नमाला का अध्ययन तो अवश्य ही करना चाहिये। इस ग्रन्थ में वेदों में आये मुख्य 100 विषयों व मान्यताओं का संकलन कर उनकी संक्षिप्त व्याख्यायें की गई हैं। यह ग्रन्थ एक घंटे की अवधि में पढ़कर पूरा किया जा सकता है। इस ग्रन्थ को पढ़ने से जो लाभ होता है वह संसार की मोटी मोटी पोथियों को पढ़कर भी प्राप्त नहीं होता। सृष्टि के बारे में ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ में बताया है कि जो कर्ता (परमेश्वर) की रचना से कारण द्रव्य (सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति) को किसी संयोग विशेष से अनेक प्रकार कार्यरूप होकर वर्तमान में व्यवहार करने के योग्य होता है, वह सृष्टि कहलाती है।

                ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में वेदों के प्रकाश से ही मनुष्यों को इस सृष्टि के सभी रहस्यों सहित धर्म, आचार, व्यवहार आदि का भी ज्ञान हुआ था। इन सब विषयों को वेदाध्ययन सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञ विधि, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ही जाना जा सकता है। सभी मनुष्यों वा पाठकों को इन ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये और अपनी भ्रान्तियों को दूर करना चाहिये। आर्यसमाज के विद्वानों ने सभी विषयों को समझाने के लिय ईश्वर, आत्मा, प्रकृति तथा धर्माधर्म विषयक प्रभूत साहित्य का सृजन किया है। इसे पढ़कर कोई भी मनुष्य ज्ञानी और निःशंक हो सकता है। ईश्वर, सभी ऋषि मुनियों व विद्वानों का वेद व वैदिक साहित्य को सुरक्षित रखने तथा उसे हम तक पहुंचाने में महान योगदान हैं। उन सबके प्रति हम कृतज्ञ हैं। हम ऋषि दयानन्द को भी सादर नमन करते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,681 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress