“सत्य को मानना व मनवाना हमारा कर्तव्य, धर्म एवं यज्ञ है

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मनमोहन कुमार आर्य,
ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने वेद व उसकी मान्यताओं और सिद्धान्तों पर आधारित धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की थी। ऐसा उन्होंने इस लिये किया था कि वेद ही सृष्टि विषयक मान्यताओं एवं सत्य गुणों पर आधारित मानवीय कर्तव्यों से संबंधित ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। वेद से इतर जितने भी धर्म व मत-मतान्तरों की पुस्तकें हैं वह सब इतिहास प्रसिद्ध महापुरुषों व मनुष्यों के बनाये हुए हैं। इतिहास में हुए बड़ी संख्या में धर्म व मत प्रवर्तकों को महापुरुष कहा जा सकता हैं परन्तु हमें यह ज्ञान होना चाहिये कि मनुष्य व महापुरुषों काक आत्मा एकदेशी व जन्म-मरण धर्मा होने से अल्पज्ञ होता है और साथ ही कुछ दुर्बलताओं से घिरा हुआ भी होता है। मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर उठने के लिये वेदज्ञान, योग व परजन्म को आधार बनाना पड़ता है। यदि मनुष्य के पास वेद ज्ञान, योग ज्ञान व उसका अभ्यास तथा परजन्म में हमारे इस जन्म के कर्मों की भूमिका विषयक यथार्थ ज्ञान नहीं होगा तो मनुष्य कुछ गुणों के कारण कितना भी बड़ा क्यों न बन जाये, उसमें न्यूनतायें एवं दुर्बलतायें रहती हैं व रहेंगी। महर्षि दयानन्द को हम ऋषि, योगी व ब्रह्मचारी मानते हैं जिसका कारण उनके क्षरा प्रचारित विचार व मान्यतायें उनकी अपनी न होकर वेद व पूर्व ऋषियों द्वारा प्रचारित मान्यतायें हैं। इन मान्यताओं को उन्होंने जाना व समझा और उन्हें अपने आचरण में ढालकर दूसरों को भी उनसे लाभ उठाने के लिए उनका प्रचार किया। ऋषि दयानन्द ऐसे विद्वान ऋषि थे जिन्होंने अपनी बातों पर आंखे बन्द करके विश्वास करने को नहीं कहा अपितु सबको उन विचारों का विश्लेषण कर मानने की प्रेरणा की। महाभारत के बाद व ऋषि दयानन्द से पूर्व जितने भी मताचार्य हुए वह ऋषि दयानन्द के समान वेदज्ञान से परिपूर्ण न होने के कारण अनेक बातें ऐसी कर गये हैं जिनसे मनुष्य जाति को कुछ लाभ के साथ अनेक हानियां भी हो रही हैं। इन हानियों को ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि में विस्तार से बताया है। इसमें सबसे मुख्य बात सत्य को जानना और साथ ही कर्म फल विज्ञान को जानना भी है।

सत्य क्या है? सत्य उसे कहते हैं जो यथार्थ व किसी वस्तु व पदार्थ का वास्तविक स्वरूप हो। सत्य किसी पदार्थ की सत्ता को भी कहते हैं। सत्य उन मान्यताओं व सिद्धान्तों को भी कहते हैं जिन पर चलकर हमारा उत्कर्ष व उन्नति होती हो और हमारे कारण किसी प्राणी को क्लेश व किंचित भी दुख न होता हो। मनुष्य का कर्तव्य अपनी शारीरिक, सामाजिक व आत्मिक उन्नति करना तो है ही, इसके लिए उसे जिन साधनों का सहारा व उपयोग करना होता है वह ऐसे होने चाहिये जिन्हें समाज व देश के सत्य पर आधारित नियमों की स्वीकृति प्राप्त हो। शास्त्रों का सार है कि मनुष्य को सत्य बोलना व उसका ही आचरण करना चाहिये। सत्य बोलना व उसका आचरण करना ही वस्तुतः धर्म व मनुष्य का कर्तव्य है। मनुष्य का अपना कर्तव्य तो है ही कि वह सदा सत्य बोले व सत्य का व्यवहार करे। इसके साथ ऋषि दयानन्द ने यह भी जोड़ा है कि सत्य को मानना व मनवाना भी प्रत्येक सज्जन मनुष्य का धर्म वा कर्तव्य है। किसी एक व अधिक मनुष्यों के सत्य को मानने व आचरण करने से ही समाज व देश में सुख व शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। इसके लिए दूसरों से उस सत्य को मनवाना भी सत्य धर्म के पालन करने वालों के आवश्यक व अनिवार्य है। हमने यही गलती की है कि हम आर्यसमाज के ऋषि भक्त स्वयं तो सत्य को मानते व उसका यथाशक्ति पालन करते हैं, परन्तु हमने सत्य का उचित रीति से प्रचार नहीं किया और न दूसरों से सत्य को मनवाने के प्रयत्न ही किये। यही कारण है कि आज सर्वत्र सत्य के विपरीत असत्य का प्रचार व प्रभाव तथा उसका व्यवहार का होना देख रहे हैं।

सत्य का ज्ञान वेदों व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय, विद्वानों के प्रवचनों के श्रवण व उनके देश देशान्तर में प्रचार से होता है। हमारे विद्वान आर्यसमाज की चार दीवारी में आर्यसमाज के कुछ सदस्यों में जाकर ही अपनी बातें कहते हैं। यह पीसे हुए को पीसना ही कह सकते हैं। आज स्थिति यह हो गयी है कि आर्य परिवारों की सत्नानें भी आर्यसमाज के सिद्धान्तों से पूरी तरह से परिचित नहीं हैं। जो कुछ हैं भी वह भी आधुनिक पश्चिमी जीवन शैली के अभ्यस्त हो रहे हैं। राष्ट्रीय विषयों व समस्याओं का उन्हें न तो ज्ञान होता है न ही उसके लिए वह कुछ करते हैं। हमारी धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए विगत 1200 वर्षों से अधिक समय से प्रयत्न हो रहे हैं। विश्व में हमारी जनसंख्या निरन्तर कम होती गयी है, परन्तु ऋषि दयानन्द व उनके बाद की प्रथम पीढ़ी के लोगों के अतिरिक्त वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा का कोई प्रयास अन्य किसी के द्वारा हुआ हो, स्मरण नहीं होता। हमारे अपने ही संगठन में कुछ विधर्मियों के शुभ चिन्तक हैं जिनकी उपस्थिति हमें कमजोर बना रही है। वैदिक धर्म व संस्कृति के भविष्य के लिए आज का समय एक बहुत बड़ी चुनौती है। क्या हमारे धर्म व संस्कृति का भविष्य सुरक्षित है? इतिहास पर दृष्टि डालकर जब इसका उत्तर खोजते हैं तो वह हां में न मिलने से पीड़ा होती है। अतः हमें अपनों में तो वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार करना ही है इसके साथ जो हमारे निकट हैं, पौराणिक व सनातनी हैं, दलित व पिछड़े हैं, ग्रामों, पर्वतों व वनों में रहते हैं, उन तक भी हमें अपने विचारों व सिद्धान्तों को पहुंचाना है और उन्हें बताना है कि किस प्रकार से उनके जन्म-जन्मान्तर में अभ्युदय व निःश्रेयस वैदिक धर्म व संस्कृति को अपनाकर व उसका प्रचार कर ही प्राप्त हो सकता है।

हमारे सिद्धान्त सत्य हैं अतः हमें इनके प्रचार में सफलता मिलनी चाहिये। इसके लिए पुरुषार्थ अपेक्षित है जिसकी हमें अपने नेताओं, विद्वानों व कार्यकर्ताओं में कहीं कुछ कमी प्रतीत होती है। जब दूसरे मत के प्रचारक अपनी अविद्यायुक्त बातों का प्रचार कर अपनी संख्या को निरन्तर ब़ढ़ा सकते हैं, तो हमें सत्य का प्रचार कर अपनी संख्या को बढ़ाने कठिनाई नहीं होनी चाहिये। इसके लिए हमें लगता है कि हम महीने में एक या दो रविवारों को आर्यसमाज में सत्संग आदि करें व दो रविवारों को आर्यसमाज से बाहर दलित बस्तियों व गांवों की बस्तियों आदि में जाकर अपना सत्संग कर लोगों से जनसम्पर्क व साहित्य वितरण कर उन्हें वेदों व आर्यसमाज से जोड़ने का प्रयास करें। इससे आर्यसमाज को किसी प्रकार से हानि तो कुछ होनी नहीं है। बहुत से वृद्ध, युवा व बच्चे इससे प्रभावित हो सकते हैं। कुछ अति निर्धन बच्चों की दसवीं, बारहवीं व स्नातकीय शिक्षा की व्यवस्था भी आर्यसमाज व अपने धनिक सदस्यों से करा सकता है। इसका कुछ तो लाभ होगा ही। आर्यसमाज के विद्वान व ऋषि भक्त आचार्य आशीष जी का सुझाव है जिसके अनुसार आर्यसमाजों में दलित व निर्धन बच्चों को उनके स्कूल का होमवर्क कराने का अभियान चलाना चाहिये। इससे उन बच्चों के परिवार के अन्य लोग भी आर्यसमाज से जुड़कर समाज की शक्ति बन सकते हैं। जो भी उचित हो विद्वान उसका निर्धारण कर सकते हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि आर्यसमाजों में गुटबाजी पूरी तरह से समाप्त होनी चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा, आर्यसमाज के अपने सदस्य व उनके परिवार के लोग भी आर्यसमाज नहीं आयेंगे और इसका परिणाम हमने यह देखा है कि आर्य परिवारों की युवा पीढ़ी आर्यसमाज से दूर हो जाती है। देहरादून में ही अनेक आर्य परिवारों को देखते हैं जिनकी युवापीढ़ी कभी आर्यसमाज में नहीं जाती है। यह निराशा पैदा करता है।

वेद सब सत्याओं की पुस्तक है। आर्यसमाज इस सिद्धान्त व मान्यता को मानता है। वेद की प्रत्येक बात सत्य है और उसका प्रचार करना ही आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है। वेद प्रचार भी सत्य का प्रचार होने के कारण से धर्म है व सभी मनुष्यों का कर्तव्य है। धर्म व कर्तव्य पालन ही वस्तुतः यज्ञ है। यदि हम अग्निहोत्र व वेदपारायण यज्ञों के साथ वैदिक धर्म की मान्यताओं के प्रचार व प्रसार का कार्य भी करते हैं तो यह भी एक यज्ञ व महायज्ञ है। आज के युग में इसकी सर्वाधिक आवश्यकता व प्रासंगिकता है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकेगी। हमारे विरोधी हमारे धर्म व संस्कृति को निरन्तर हानि पहुंचा रहे हैं और हम नगरों में बैठ कर गांवों, वनों व दूर दराज के लोगों के धर्म परिवर्तन के कृत्यों से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं। हमारा निजी दृष्टिकोण है कि हमारे आरएसएस व विश्व हिन्दू परिषद आदि की ओर से ग्रामीण व वनांचलों में इस पर अधिक नहीं तो कुछ नजर रखी जाती है। यह संगठन कमजोर लोगों के दूर-दराज के स्थानों पर अपनी विचारधारा के अनुसार जन जागरण करते हैं। हमें उनके साथ मिलकर, परस्पर सहयोग से या पृथक से अपने दलितों व निर्धन भाईयों को अपने धर्म पर अडिग रखने के प्रयत्न करने चाहियें।

आर्यसमाज का इतिहास अब डेढ़ शताब्दी पुराना हो चुका है। हमें विदेशी व अन्य षडयन्त्रों को असफल कर यदि अपने धर्म व संस्कृति को सुरक्षित रखना है तो हमें नयी ऊर्जा व उत्साह से प्रचार करना होगा और अपने हिन्दू बन्धुओं को भी षडयन्त्रों का ज्ञान कराना होगा। हमारे अपने जीवन में अनेक पौराणिक बन्धु मित्र बने व अब भी हैं। वह हमारी भावनाओं व विचारों को अच्छी प्रकार से जानते हैं। उनका हमसे कोई विरोध नहीं है। हम उन्हें अपनी बात कहते हैं जिन्हें वह प्रेमपूर्वक सुनते हैं। इतना होने पर भी अविद्या को हटना इतना आसान भी नहीं है। यह प्रसन्नता की बात है कि आज समाज में विभिन्न जन्मना जातियों में परस्पर विवाह आदि होने लगे हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं। इससे लोग निकट आ रहे हैं। यह आज के समय में एक शुभ संकेत है।

आर्यसमाज को धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए देश में सर्वत्र सत्य धर्म प्रचार का एक आन्दोलन करना होगा। यदि हमें इस कार्य में कुछ सफलता मिलती है तो इससे हमारी भावी पीढ़ियां शायद अपने धर्म व संस्कृति में स्थिर रह सकेंगी। हम न तो विद्वान हैं और न ही कार्यकर्ता। इस समय वृद्धावस्था से गुजर रहे हैं परन्तु भविष्य के प्रति हमें अनेक आशंकायें हैं। इसलिये केवल लिखित शब्दों के द्वारा ही प्रचार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। उसी श्रृंखला में आज का भी यह लेख लिखा है। आर्यसमाज के विद्वानों व नेताओं को देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार आर्यसमाज को उसके कर्तव्य का बोध कराना चाहिये और उसके लिए सक्षम नेतृत्व प्रदान करना चाहिये।

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