बात भावनाओं की है, शब्दों की नहीं 

  केवल कृष्ण पनगोत्रा

भारतीय संविधान में 26 जनवरी 1950 के बाद सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं। इनमें अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण 42वां संशोधन अधिनियम, 1976 है। इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। इसके तहत कुछ अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण संशोधन भी किये गए हैं। प्रमुखत: इस संशोधन के तहत भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रिएंबल) में तीन नए शब्द ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता’ जोड़े गए।

हाल ही में 42वें संशोधन से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देश की मांग करने की याचिकाएं दायर की गई हैं। यह कहा जा रहा है कि 42वां संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है।

फिलहाल इन याचिकाओं पर सुनवाई अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दी गई है मगर साथ ही एक देशव्यापी चर्चा भी पैदा हो गई है। इस चर्चा का प्रमुख बिन्दु और सवाल यह है कि संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हुआ या नहीं ?

चूंकि भारतीय संविधान एक विस्तृत दस्तावेज है। इसके मूल ढांचे और आत्मा को समझने के लिए आखिर किस भाग पर केंद्रित हुआ जाए ताकि सामान्य शिक्षित नागरिकों के लिए समझना आसान हो जाए कि भारतीय संविधान का मूल तत्व क्या है। यहां प्रश्न यह भी है कि कौन सी बातें देश निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

भारतीय संविधान के आलोक में देखें तो इसका भाग 3 तथा 4 मिलकर ‘संविधान की आत्मा तथा चेतना’ कहलाते हैं। 

भाग-3 में मौलिक अधिकार संविधान के सबसे महत्वपूर्ण खंडों में से एक भाग है, जिसमें अनुच्छेद 12 से 35 शामिल हैं। यह भाग भारतीय नागरिकों, भले ही वे किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय से हों, के मौलिक अधिकारों को रेखांकित करता है, जैसे समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार के साथ सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार भी।

इसी प्रकार भाग-4 भारतीय नागरिकों को उनके कर्त्तव्यों के प्रति सचेत करता है।

अनुच्छेद 36 से 51 राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर चर्चा की गई है, जो लोगों के कल्याण के लिए कानून बनाने में सरकार का मार्गदर्शन करते हैं।

अनुच्छेद 51(क) 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर जोड़े गये। इनके संख्या 10 रखी गई। वर्तमान में 11 है।

11 वां मौलिक कर्तव्य- 86 वें संविधान संशोधन 2002 से जोड़ा गया। प्रत्येक माता – पिता/ संरक्षक/अभिभावक को अपने 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को शिक्षा दिलाने का कर्तव्य निर्धारित किया गया है।

अगर भारतीय संविधान के भाग 3 और 4 का विस्तार से अध्ययन किया जाए तो हम देखते हैं कि समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के आयाम मूल रूप में प्रतिस्थापित हैं। संविधान के मूल ढांचे के निर्माण में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष विचारों का एक विशेष स्थान है। इस लिहाज से संविधान की उद्देशिका में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों का होना या ना होना कोई खास मायने नहीं रखता। वैसे भी संविधान की उद्देशिका को संविधान का सार तत्व कहा जा सकता है।

42वें संशोधन को लेकर एक खास सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को उद्देशिका में शामिल करना राजनीति से प्रेरित था। चाहे जो भी हो, यह तो किसी भी दृष्टि से तय है कि इस संशोधन से संविधान के मूल ढांचे और भावनाओं पर जरा सा भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। ..तो फिर सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि उद्देशिका में शामिल दो शब्दों को हटाने का क्या औचित्य है? कुछ भी हो, इस संबंध की याचिकाओं का तार्किक और संवैधानिक उपसंहार तो माननीय उच्चतम न्यायालय ही निकालेगा। जब संविधान की भावनाओं एवं मूल ढांचे पर दो शब्दों के हेरफेर का कोई प्रभाव नहीं तो उद्देशिका को लेकर बहस को क्या समझा सकता है? अभिमत अलग हो सकते हैं मगर नजर उच्चतम न्यायालय पर ही रहेगी। •

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here