जजों की नियुक्ति का विकल्प तलाशना महत्वपूर्ण

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संवैधानिक देश के लिए यह नितान्त महत्वपूर्ण तथ्य होता है कि वहां के नागरिकों को ऐसी सुविधाएं नसीब हो, जिससे उन्हें अपना सामाजिक और आर्थिक जीवन में रूकावट न हो. देश के लोगों को भारतीय संविधान के द्वारा कुछ अधिकार दिये गए है जिसकी रक्षा करना हमारे संवैधानिक तंत्र की जिम्मेदारी बनती है। आज देश की अदालतों में एक तरफ मुकदमों का ढेर लगता जा रहा है। दूसरी तरफ लोगों को न्याय प्राप्त नहीं हो पाता है। जिसका कारण न्यायालय में न्याय प्रक्रिया के लिए कार्यरत अधिकारियों की कमी का रोना रोया जाना बद्दस्तूर गतिमान हैं. हमारे संविधान निर्माता के महानुभाव लोकतंत्र को अर्पित करने को तो उतावले थे, लेकिन बदकिस्मती की वे ब्रिटिश राज के दौरान न्यायिक प्रक्रिया के अनुगामी बन गए. इसलिए उन्होंने जानबूझ कर राजनीतिक चंगुल से सुरक्षित न्यायपालिका और न्यायाधिशों की नियुक्ति के लिये संविधान में अनुच्छेद 124 और 217 का प्रावधान किया और राष्ट्रपति को इसका अध्यक्ष और संरक्षक बनाया, जिससे कि न्यायपालिका में राजनीतिक दखलन्दाजी शून्य हो सके और भारतीय आवाम के मौलिक अधिकारों की रक्षा, न्यायपालिका की आजादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिये एक ऐसी व्यवस्था कि जो तीसरी आँख साबित हो सके. लेकिन समय का रोना यह हुआ कि, राजनीतिक षडयंत्रों ने ऐसी चाल चली, कि लोगों को न्याय दिलाने वाली सभी तरह की संवैधानिक संस्थाएं जिन्होंने संविधान को बचाने के लिए शपथ ली थी, वे अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने में विफल साबित हो रही हैं. आज़ाद भारत के इतिहास के सबसे दुःखती रग यह हुई कि हमारी न्यायपालिका नागरिकों की रक्षा करने में भी विफल हो रही हैं. जब किसी रोग का इलाज नही होता है तो वह लाइलाज हो जाता है फिर देश में न्याय प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए न्याय अधिकारियों की समय रहते भर्ती प्रक्रिया संपन्न क्यों नहीं करायी जाती है। हम सब को यह बात मालूमात है कि न्याय समय पर नहीं मिलना भी एक तरीके का हम देशवासियों के लिए अन्याय से कम नहीं है।
देश में मुकदमों की बढ़ती संख्या को देखते हुए विधि आयोग समय-समय पर सरकार को सुझाव देता आया है फिर न्यायालय में अधिकारियों की भर्ती का रास्ता क्यों साफ नहीं हो पा रहा है? आखिर क्यों आम लोगों के साथ न्याय दिलाने के नाम पर सिर्फ खिलवाड़ किया जाता रहा है। न्यायिक नियुक्तियों पर हो रहे तकरार को दरकिनार करते हुए सामाजिक और न्यायिक समरसता को मद्देनजर रखते हुए जल्द नियुक्ति प्रक्रिया होनी जरूरी हो गई है। जजों की नियुक्ति जब सुप्रीम कोर्ट ने इलाजी तरीका बता दिया है, फिर क्यों न्याय प्रक्रिया के लिए लोगों को वंचित रहना पड़ रहा है। काॅलेजियम और एनजेएसी के मध्य अधर में अटका जजों का मामला जल्द बहाल हो जिससे न्याय के लिए खड़ी जनता को अपना न्याय मिल सकें। यही नहीं विधि आयोग की ओर से जजों की संख्या में बढोत्तरी का मुद्वा भी उठाया जाता रहा है। लेकिन आयोग के सुझाव को हमेशा से इसे ठण्ढे बस्ते में बंद करता रहा हैं. आज देश में न्याय प्रदान करने के नाम पर लोगों के समय और पैसे की बर्बादी का तमाशा होता है। एक केस की लड़ाई में एक परिवार की एक से दो पीढी तक चलता है। फिर भी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है।
सुप्रीम कोर्ट की सालाना रिपोर्ट के अनुसार 44 फीसद जजों की कमी हैं. पुरे देश में एक और जहाँ 40 . 54 लाख केस लंबित हैं, जो कि देश के सामने न्यायपालिका को चुनोती पेश कर रहे हैं. जारी वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक यह आँकड़ा 2015 -16 के दौरान का हैं. सबसे बुरी हालत इलाहाबाद हाई कोर्ट की हैं, जहाँ 9 .24 लाख मामले न्यायपालिका के समक्ष लंबित हैं, लेकिन जिसमे से 82 जजो की कमी हैं, और लगभग 3 .09 लाख कैसे 10 वर्ष से अधिक पुराने हैं. यहां तक देश में लम्बित पड़े मुकदमें को लेकर देश के राष्ट्रपति ने पिछले वर्ष भोपाल में 16 अपै्रल को चिंता व्यक्त की थी, फिर भी अभी नियुक्ति नही हो स्की हैं. अदालत में चल रहे तीन करोड़ मुकदमे की वजह न्यायधीशों की कमी भी है। राष्ट्रपति ने कहा था कि न्याय प्राप्ति की दिशा में अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। मामलों को जल्द से जल्द निपटाने के लिए तेजी से न्याय की प्रक्रिया को अपनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट सहित 24 हाईकोर्ट में करीब 41 लाख मामले लंबित चल रहे है। इनमें सर्वोच्य न्यायालय में 30 सितम्बर 2015 तक 59 हजार 910 मामले चल रहे थे। इसके अतिरिक्त अन्य न्यायालयों में 2 करोड 43 लाख 86 हजार 484 मामले लंबित है। जो देशकी न्याय प्रणाली पर प्रश्न चिहन खड़ा करते है, कि जिस देश कि जनसंख्या 132 करोड़ पहुंच गयी है, वहां पर लोगों को न्याय प्रक्रिया के लिए दर दर की ठोकरे खानी पड़ रही है।
जब विदेशों में न्याय दिलाने के लिए प्रति दस लाख की आबादी पर औसत चालीस जज की नियुक्तियां है तो आबादी में विश्व में दूसरे नंबर के देश के लिए केवल 17 जज का होना एक ओर चिंता का विषय है तो दूसरी ओर न्याय प्रक्रिया को जटिलता प्रदान करता है। आरटीआई के अंतर्गत दिये गए हवाले के मुताबिक उच्च न्यायालय में एक मार्च 2016 तक स्वीकृत 31 पद में से छह पद खाली है।1987 की लाॅ कमीशन की रिपोर्ट के अनूसार उस समय प्रति दस लाख आबादी पर जजों की संख्या 105 थी। 24 हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की संख्या 1056 निर्धारित की गई है फिर भी उसमें 465 पद खाली है। इस तरफ न तो सरकार ध्यान दे रही हैं न ही कोई नयी नीति के तहत पद को भरने के लिए उत्सुकता दिखाई जा रही है। जिससे देश की न्याय प्रक्रिया गति पकड़ सके। राज्य में स्थित हाई कोर्ट की बात करे तो उत्तर प्रदेश के हाई कोर्ट में कहने को तो हाईकोर्ट की खंडपीठ भी बैठती है। प्रदेश की जनसंख्या भी देश में सबसे ज्यादा है। फिर प्रदेश के न्यायालय में 160 में 82 पद खाली है। प्रदेश सपा सरकार के शासन काल में लगभग सैकडों दंगे भी हुए है। प्रदेश में चोरी, डकैती, हत्या जैसे तमामों मुकदमें दर्ज होते है, और न्याय प्रक्रिया की गति धीमी होने के बाद भी इस तरफ कोई ध्यान नहीं जाता की न्याय की गति तेज हो सके।
देश में दबे कुचले तबके न्याय से वंचित रह जाते है, क्योकि वे दबंगों से मुकाबला नहीं कर सकते है। इसका बडा कारण यह है कि न्याय प्राप्ति में समय और पैसे बेतहाशा उडाने के साथ समय बहुत लगता है और गरीब उन खर्चो को उठा नहीं सकते इसीलिए वे न्याय पाने से वंचित रह जाते है। न्यायालय में न्याय प्रक्रिया को लेकर कोई पारदर्षिता न होना और बडा प्रश्न चिहन खडा करता है कि आखिर देश का गरीब तबका न्याय के लिए कब तक तरसता रहेगा। प्रति दस लाख की आबादी पर यूके में 51, कनाडा में 75 और ऑस्ट्रेलिया में 42 जज है, तो इन देशों से सीख लेते हुए देश में जजों की संख्या में वृद्वि क्यों नहीं किया जा रहा हैं। न्यायधीशों के कार्यो और न्याय प्रक्रिया को सरल बनाया जाएं और उसमें पारदर्षिता का माहौल बनाया जाएं जिससे जनता को न्याय प्रक्रिया में उम्मीद जाग सके कि उसको भी न्याय मिलना आसान और सरल हैं. पिछले वर्ष कानून से जुड़ी एक स्थायी संसदीय समिति ने जजों की नियुक्ति को कार्यपालिका का काम बताया है. साथ ही साथ इसे संविधान की मूल भावना बताते हुए विकृति दूर करने के लिए सरकार से उचित कदम उठाने को कहा गया हैं. जजों की नियुक्ति पर सरकार और न्यायपालिका में जारी तनातनी के बीच संसदीय समिति की यह सिफारिश अपना अलग वजूद रखती हैं. इसके साथ समिति ने कहा था, कि सु्प्रीम कोर्ट के अलग-अलग आदेशों के कारण संविधान की मूल भावना में विकृति पैदा हुई, इसके बाद कॉलेजियम सिस्टम शुरू हुआ, और करीब कुछ समय पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को खारिज कर चुका है. जनता के हितों को ध्यान रखते हुए लोकतंत्र के दोनों प्रहरी यानि कार्यपालिका और न्यायपालिका को जल्द से जल्द विवाद को सुलझाते हुए बीच का रास्ता खोजकर जजों की नियक्ति का विकल्प तय हो, जिससे जनता को मामलों से जल्द छुटकारा मिल सके.

 

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  1. मेरे विचार में लोकतंत्र में जनता जनार्दन सबसे बड़ी अदालत होती है! और संसदीय लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई संसद जनता जनार्दन के मत की अभिव्यक्ति करती है! अतः वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था में कोलेजियम द्वारा प्रस्तावित नामों के सम्बन्ध में गोपनीय जानकारी करते हुए उनके पूरा विवरण सरकार द्वारा संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए और संसद द्वारा स्वीकृत नामों को ही महामहिम राष्ट्रपति महोदय द्वारा नियुक्ति का आदेश जारी करना चाहिए! तथा इस प्रकार से चयनित नामों पर न्यायालय को किसी प्रकार की सुनवाई का अधिकार नहीं होना चाहिए!इस असहाय का संवैधानिक संशोधन सर्वसम्मति से पारित किया जाना चाहिए! जिस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सर्वसम्मति से संसद द्वारा पारित न्यायिक सेवा आयोग की नियुक्ति से संबंधी कानून को ख़ारिज किया गया है वह लोकतंत्र के लिए घातक है!

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