राजनीति

भाजपा का अंतर्द्वंदः जनसंघ बने या कांग्रेस

क्या आरएसएस ढूंढ पाएगा बीजेपी के वर्तमान संकट का समाधान.

kamalअरूण शौरी ने फिर एक लेख लिखकर भाजपा के संकट को हवा दे दी है, निशाना आडवानी व पार्टी के कई वरिष्ठ नेता हैं। इस पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना है कि शौरी के लेखन में विद्वता की झलक होती है और इसे पढ़ा जाना चाहिए। ऐसे प्रसंग आज भाजपा का रूटीन बन गए हैं। इसके चलते भारतीय जनता पार्टी को जानने-पहचानने वाले और उसे एक उम्मीद से देखने वाले आज हैरत में हैं। एक ऐसी पार्टी जिसके पीछे एक बड़े वैचारिक परिवार का संबल हो, विचारधारा की प्रेरणा से जीने वाले कार्यकर्ताओं की लंबी फौज हो, उसे क्या एक या दो पराजयों से हिल जाना चाहिए। भाजपा आज भी अपनी संसदीय शक्ति के लिहाज से देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है पर 1952 से लेकर आज तक की उसकी यात्रा में ऐसी बदहवासी कभी नहीं देखी गयी। जनसंघ और फिर भाजपा के रूप में उसकी यात्रा ने एक लंबा सफर देखा है। चुनावों में जय-पराजय भी इस दल के लिए कोई नयी बात नहीं है। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने जिस तरह भाजपा के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है वह बात चकित करती है।

इसके पहले 2004 की पराजय ने भी पार्टी को ऐसे ही कोलाहल और आर्तनाद के बीच छोड़ दिया था। तबसे आज तक भाजपा में मचा हाहाकार कभी धीमे तो कभी सुनाई ही देता रहा है। शायद 2004 में पार्टी की पराजय के बाद लालकृष्ण आडवानी ने इसलिए कहा था कि – हम एक अलग दल के रूप में पहचान रखते हैं लेकिन जब यह कहा जाता कि हमारा कांग्रेसीकरण हो रहा तो यह बहुत अच्छी बात नहीं है। आडवानी की पीड़ा जायज थी, साथ ही इस तथ्य का स्वीकार भी कि पार्टी के नेतृत्व को अपनी कमियां पता हैं। किंतु 2004 से 2009 तक अपनी कमियां पता होने के बावजूद पार्टी ने क्या किया कि उसे एक और शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। क्या कारण है पार्टी के दिग्गज नेता आपसी संवाद के बजाए एक ऐसे पत्राचार में जुट गए जिससे पार्टी की सार्वजनिक अनुशासन की धज्जियां ही उड़ गयीं। भाजपा के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान चिंताओं को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस बीजेपी के इस संकट का समाधान तलाश पाएगा। पर इस संकट को समझने के भाजपा के असली द्वंद को समझना होगा।

भाजपा का द्वंद दरअसल दो संस्कृतियों का द्वंद है। यह द्वंद भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच का है। जनसंघ यानि भाजपा का वैचारिक अधिष्ठान। एक ऐसा दल जिसने कांग्रेस के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात किया, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक प्रेरणा पाता है। भारतीय राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों, राजनीतिक क्षेत्र में एक वैकल्पिक दर्शन की अवधारणा लेकर आए जनसंघ और उसके नेताओं ने काफी हद तक यह कर दिखाया। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बलराज मधोक, मौलिचंद शर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे नेताओं ने अपने श्रम से जनसंघ को एक नैतिक धरातल प्रदान किया। राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए भी जनसंघ का एक अलग पहचान का नारा इसीलिए स्वीकृति पाता रहा क्योंकि नेताओं के जीवन में शुचिता और पवित्रता बची हुयी थी। संख्या में कम पर संकल्प की आभा से दमकते कार्यकर्ता जनसंघ की पहचान बन गए।

राममंदिर आंदोलन के चलते भाजपा के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व ने सारा कुछ बदल कर रख दिया। पहली बार भाजपा चार राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में अकेले दम पर सत्ता में आई। इस विजय ने भाजपा के भीतर दिल्ली के सपने जगा दिए। चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गयी। साधन, पैसे, ताकत,जाति के सारे मंत्र आजमाए जाने लगे। अलग पहचान का दम भरनेवाला दल परंपरागत राजनीति के उन्हीं चौखटों में बंधकर रह गया जिनके खिलाफ वह लगातार बोलता आया था। दिल्ली में पहले 13 दिन फिर 13 महीने, फिर छह साल चलने वाली सरकार बनी। गठबंधन की राजनीति के मंत्र और जमीनी राजनीति से टूटते गए रिश्तों ने भाजपा के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी। एक बड़ी राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद उसमें आत्मविश्वास, नैतिक आभा, संकट में एकजुट होकर लड़ने की शक्ति का अभाव दिखता है तो यह उसके द्वंदों के कारण ही है।

भाजपा की गर्भनाल उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुयी है जो राजनीति के मार्ग पर उसके मनचाहे आचरण पर एक नैतिक नियंत्रण रखता है। सो, भाजपा न पूरी तरह कांग्रेस हो पा रही है ना ही उसमें जनसंघ की नैतिक शक्ति दिखती है। वामपंथियों की तरह काडरबेस पार्टी का दावा करने के बावजूद भाजपा का काडर अपने दल की सरकार आने पर सबसे ज्यादा संतप्त और उपेक्षित महसूस करता है।

भ्रष्टाचार का सवालः

भाजपा का सबसे बड़ा संकट उसके नेताओं के व्यक्तिगत जीवन और विचारों के बीच बढ़ी दूरी है। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में यही अंतर दोनों को अलग करता है। कांग्रेस में भ्रष्टाचार को मान्यता प्राप्त है, स्वीकृति है। वे अपने सत्ता केंद्रित, कमीशन केंद्रित कार्यव्यवहार में अपने काडर को भी शामिल करते हैं। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता बल्कि नेता और कार्यकर्ता के बीच रिश्तों को मधुर बनाता है। अरसे से सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता के रहने का एक अभ्यास भी विकसित हो गया है। सत्ता उन्हें एकजुट भी रखती है। जबकि, भ्रष्टाचार तो भाजपा में भी है किंतु उसे मान्यता नहीं है। इस कारण भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है। क्योंकि उसकी कोशिश यही होती है कि किस तरह वह अपने कार्यकर्ताओं तथा संघ परिवार के तमाम संघठनों की नजर में पाक-साफ रह सके। इस कारण वह राजनीतिक आर्थिक सौदों में अपने काडर को शामिल नहीं करता और नैतिकता की डींगें हांकता रहता है। भाजपा नेताओं के पास सत्ता के पद आते ही उनके अंदरखाने सत्ता के दलालों की पैठ बन जाती है। धन का मोह काडर से दूर कर देता है और अंततः परिवार सी दिखती पार्टी में घमासान शुरू हो जाता है। राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण ये काडर भावनात्मक आधार पर काम करते हैं और व्यवहार में जरा सा बदलाव या अहंकारजन्य प्रस्तुति देखकर ये अपने नेताओं से नाराज होकर घर बैठ जाते हैं। सत्ता जहां कांग्रेस के काडर की एकजुटता व जीवनशक्ति बनती है वहीं भाजपा के लिए सत्ता विग्रह एवं पारिवारिक कलह का कारण बन जाती है।

गुटबाजी से हलाकानः

भाजपा और कांग्रेस के चरित्र का बड़ा अंतर गुटबाजी में भी देखने को मिलता है। कांग्रेस में एक आलाकमान यानि गांधी परिवार है जिस पर सबकी सामूहिक आस्था है। इसके बाद पूरी कांग्रेस पार्टी क्षत्रपों में बंटी हुयी है। गुटबाजी को कांग्रेस में पूरी तरह मान्यता प्राप्त है। यह गुटबाजी कई अर्थों में कांग्रेस को शक्ति भी देती है। इस नेता से नाराज नेता दूसरे नेता का गुट स्वीकार कर अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है। आप आलाकमान की जय बोलते हुए पूरी कांग्रेस में धमाल मचाए रख सकते हैं। प्रथम परिवार के अलावा किसी का लिहाज करने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र ऐसा कि एक अदना सा कांग्रेसी भी,किसी दिग्गज का पुतला जलाता और इस्तीफा मांगता दिख जाएगा। भाजपा का चरित्र इस मामले में भी आडंबरवादी है। यहां भी पार्टी उपर से नीचे तक पूरी तरह बंटी हुयी है। अटल-आडवानी के समय भी यह विभाजन था आज राजनाथ सिंह के समय भी यह और साफ नजर आता है। इस प्रकट गुटबाजी के बावजूद पार्टी में इसे मान्यता नहीं है। गुटबाजी और असहमति के स्वर के मान्यता न होने के कारण भाजपा में षडयंत्र होते रहते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार और मीडिया में आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग, कानाफूसी आम बातें हैं। उमा भारती, गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाधेला, मदनलाल खुराना, बाबूलाल मरांडी, जसवंत सिंह जैसे प्रसंगों में यह बातें साफ नजर आयीं। जिससे पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। कांग्रेस में जो गुटबाजी है वह उसे शक्ति देती है किंतु भाजपा के यही गुटबाजी , षडयंत्र का रूप लेकर कलह को स्थायी भाव दे देती है।

कुल मिलाकर आज की भाजपा न तो जनसंघ है न ही कांग्रेस। वह एक ऐसा दल बनकर रह गयी है जिसके आडंबरवाद ने उसे बेहाल कर दिया है। आडंबर का सच जब उसके काडर के सामने खुलता है तो वे ठगे रह जाते हैं। विचारधारा से समझौतों, निजी जीवन के स्खलित होते आदर्शों और पैसे की प्रकट पिपासा ने भाजपा को एक अंतहीन मार्ग पर छोड़ दिया है। ऐसे में चिट्टियां लिखने वाले महान नेताओं के बजाए भाजपा के संकट का समाधान फिर वही आरएसएस कर सकता है जिससे मुक्ति की कामना कुछ नेता कर रहे हैं। अपने वैचारिक विभ्रमों से हटे बिना भाजपा को एक रास्ता तो तय करना ही होगा। उसे तय करना होगा कि वह सत्ता की पार्टी बनना चाहती है या बदलाव की पार्टी। उसे राजनीतिक सफलताएं चाहिए या अपना वैचारिक अधिष्ठान भी। वह वामपंथियों की तरह पुख्ता वैचारिक आधार पर पके पकाए कार्यकर्ता चाहती है या कांग्रेस की तरह एक मध्यमार्गी दल बनना चाहती है जिसके पैरों में सिध्दांतो की बेड़ियां नहीं हैं। अपने पांच दशकों के पुरूषार्थ से तैयार अटल बिहारी बाजपेयी और आडवानी के नेतृत्व का हश्र उसने देखा है…..आगे के दिनों की कौन जाने।

-संजय द्विवेदी

फोटो-ibnlive.com से साभार