-जगदीश्वर चतुर्वेदी
नामवर सिंह के व्यक्तित्व के कई कोण हैं। उनमें से एक है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का कोण। हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद के बाद वे अकेले ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की पहचान वाले लेखक हैं। हिन्दी के लेखकों की नज़र उनके हिन्दी पहलू से हटती नहीं है। खासकर शिक्षकों-लेखकों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्रोफेसर के रूप में ही देखता है।
नामवर सिंह सिर्फ एक हिन्दी प्रोफेसर समीक्षक और विद्वान नहीं हैं। प्रोफेसर, आलोचक, पुरस्कारदाता, नौकरीदाता, गुरू आदि से परे जाकर उनके व्यक्तित्व ने ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की स्वीकृति पायी है। इस क्रम वे हिन्दी अस्मिता का अतिक्रमण कर चुके हैं यह कब और कैसे हुआ यह कहना मुश्किल है। लेकिन उन्होंने सचेत रूप से लेखकीय-शिक्षक व्यक्तित्व को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ में रूपान्तरित किया है। उनकी प्रसिद्धि के ग्राफ को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ ने नई बुलंदियों पर पहुँचाया है।
नामवर सिंह कम लिखते हैं। घर में कम रहते हैं। अधिकांश समय देशाटन करते हैं। व्याख्यान देते हैं। अनेकबार कुछ नहीं बोलते लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर चलकर जाते हैं। पांच-सात मिनट मुश्किल से बोलते हैं। अनेकबार बहुत अच्छा भी नहीं बोलते। लेकिन अधिकांश समय उन्हें लोग अपने यहां बुलाना पसंद करते हैं। बुलाने वालों में विभिन्न रंगत के लोग हैं। वे किसी एक रंगत के लोगों के कार्यक्रमों में नहीं जाते। वे अधिकतर समय विचारधारा की सीमा से परे जाकर बोलते हैं। उनके बोलने और कार्यक्रमों में बुलावे के पीछे प्रधान कारण है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’।
‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के कारण उन्हें सार्वजनिक बौद्धिक जीवन में ऐसी भूमिका निभानी पड़ रही है जिससे चाहकर भी वे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते। उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ को लेकर अनेकबार उनसे शिकायतें भी की गयी हैं। अकेले में वे अपनी कमजोरियों को मान भी लेते हैं। लेकिन बाद में उनका व्यक्तित्व फिर पुराने मार्ग पर चल पड़ता है।
वे अपने भाषणों में अनेक विषयों पर बोलते हैं और सुंदर बोलते हैं। लेकिन विगत कई दशकों से उनके भाषणों के केन्द्र में एक ही विषय है जो बार-बार आया है जिसके बारे में उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है वह है ‘आलोचनात्मक मनुष्य’। इस मनुष्य के लिए ही उन्होंने अपनी सारी यात्राएं समर्पित कर दी हैं। इसके लिए वे अपनी विद्वता, विविधभाषाओं के साहित्यज्ञान और विभिन्न विचारधाराओं का इस्तेमाल करते रहे हैं।
वे जहां जाते हैं मानवीय अज्ञान से टकराते हैं। वे जानते हैं कि जिस गोष्ठी में जा रहे हैं वहां उस विषय के कम जानकार आ रहे हैं, श्रोताओं में भी सक्षम लोग कम हैं,इसके बावजूद वे जाते हैं और गंभीर, नए, चालू, उत्सवधर्मी विषयों पर अज्ञान से मुठभेड़ करते हैं।
उन्हें अपनी विद्वता का एकदम दंभ नहीं है। गोष्ठियों में वे उस समय ज्यादा सुंदर लगते हैं जब वे इरेशनल के खिलाफ बोल रहे होते हैं। इरेशनल को वे कभी माफ नहीं कर पाते, सहन नहीं कर पाते। वे कमजोर तर्क से सहमत हो जाते हैं, सामंजस्य बिठा लेते हैं लेकिन इरेशनल से सामंजस्य नहीं बिठा पाते। उनके व्याख्यानों या टिप्पणियों की दूसरी बडी खूबी है उनका भारतीय और हिन्दी तर्कसिद्धांत।
इसमें वे पक्के भौतिकवादी के रूप में मंच पर पेश आते हैं। अनेक बार उनके विचारों में पुनरावृत्ति दिखाई देती है। लेकिन इसका भी कारण है जिसकी खोज की जानी चाहिए।
नामवर सिंह जब भी बोलते हैं तो अंतर्विरोधों में बोलते हैं। अंतर्विरोध के बिना नहीं बोलते। अंतर्विरोधों के आधार से खड़े होकर बोलने के कारण उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक और आक्रामक नजर आता है और वे इस सारी प्रक्रिया को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की छाप के साथ करते हैं।
नामवर सिंह ने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद, हिन्दीवाद, कट्टरता, फंडामेंटलिज्म, अतिवादी वामपंथ, साम्प्रदायिकता, आधुनिकतावाद, नव्य उदारतावाद, पृथकतावाद आदि का कभी समर्थन नहीं किया। वे इन विषयों पर बोलते हुए बार-बार सभ्यता के बड़े सवालों की ओर चले जाते हैं।
किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि नामवर सिंह देशाटन क्यों करते हैं? वे इतने बूढ़े हो गए हैं आराम क्यों नहीं करते? उनके पास पैसे की क्या कमी है जो इस तरह भटकते रहते हैं? वे चुपचाप बैठकर लिखते क्यों नहीं? आदि सवालों और इनसे जुड़ी बातों को हम सब आए दिन सुनते रहते हैं।
नामवर सिंह जानते हैं भाषणों से संसार बदलने वाला नहीं है। मैं जहां तक समझता हूँ भाषणों से उन्हें कोई खास मानसिक शांति भी नहीं मिलती। कोई खास पैसे भी नहीं मिलते। इसके बावजूद वे भाषण देने जाते हैं, जो भी बुलाता है उसके कार्यक्रम में चले जाते हैं। मेरी समझ से इसका प्रधान कारण समाजीकरण। नामवरसिंह भाषण नहीं देते समाजीकरण करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया के बहाने ही उन्होंने लोगों का मन जीता है, बेशुमार प्यार और सम्मान अर्जित किया है।
नामवर सिंह के जीवन में अनेक कष्टप्रद क्षण आए हैं और उसे उन्होंने झेला है। निजी तौर पर गहरी पीड़ा का भी अनुभव किया है। इसके बावजूद इसे उन्होंने कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया। कष्टों को झेलने के कारण एक खास किस्म की कुण्ठा और ग्लानि भी पैदा होती है उसे भी अपने लेखन और व्यक्तित्व में आने नहीं दिया।
मैंने उन्हें कभी ग्लानि या कुण्ठा में नहीं देखा। इसके कारण वे स्वतंत्र ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण करने में सफल रहे हैं। कुण्ठा और ग्लानि मनुष्य को परनिर्भरता और भय की ओर ले जाती है और परनिर्भरता और भय से नामवर सिंह को सख्त नफरत है।
वे कभी निष्क्रिय नहीं रहते। अहर्निश सक्रियता के बीच में ही यात्राएं करते हैं। अकादमिक जिम्मेदारियों का पालन करते हैं। सामाजिकता निबाहते हैं। उन्हें वे लोग पसंद हैं जो रिवेल हैं या बागी हैं। परिवर्तनकामी हैं। रूढियों से लड़ते हैं। वे घर पर आते हैं विश्राम के लिए, और कुछ दिन रहने के बाद फिर से चल पड़ते हैं। घर उनका परंपरागत अर्थ में घर नहीं है। वह उनके विश्राम का डेरा है वहां वे नए सिरे से ऊर्जा संचय करते हैं और निकल पड़ते हैं।
उनके व्यक्तित्व में नया और पुराना दोनों एक ही साथ मिलेगा। वे भाषण पुराने पर देते हैं पैदा नया करते हैं। उनके पुराने विषयों पर दिए गए भाषणों में पुरानापन नहीं है। उन्हें पुराने की आदत है नए से प्रेम है। पुराने की आदत, परंपरा से जुड़े रहने के कारण है, और नए से प्रेम वर्तमान और भविष्य की चिन्ताओं के कारण है। यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व और व्याख्यान में नया और पुराना एक ही साथ नजर आता है। इसके आधार पर ही वे सभ्यता निर्माण के मिशन को अपने तरीके से पूरा कर रहे हैं।
नामवर सिंह ने जीवन से ज्यादा साहित्य, संस्कृति, विचारशास्त्र आदि के क्षेत्र में जोखिम उठाया है। जितने जोखिम उन्होंने विचारों के क्षेत्र में उठाए हैं, उतने ही वे जीवन में उठा पाते तो और भी ज्यादा सुखी होते। उनका पुराने से जुड़ा होना जीवन में जोखिम उठाने से रोकता रहा है और वे उसे सहते रहे हैं।
उन्होंने विचारों की दुनिया में अपने को पूरी तरह खो दिया है लेकिन निजी जीवन में वे अपने को खो नहीं पाए हैं और अनेक मसलों पर किनाराकशी करके दर्शक बनकर देखते रहे हैं। कुछ लोग इसे पलायन भी कह सकते हैं। लेकिन यह पलायन नहीं है सामाजिक जोखिम नहीं उठाने की शक्ति का अभाव है।
नामवर सिंह आधुनिक ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के मार्ग पर चलते रहे हैं और उनके आलोचक पीछे -पीछे उनकी असंगतियों का शोर मचाते रहे हैं। साहित्य के दायित्व को उन्होंने राष्ट्रीय दायित्व के रूप में ग्रहण किया है और अन्य दायित्वों को इसके मातहत बना दिया है। यही उनकी महान विभूति का प्रधान कारण है।
नामवर सिंह विचारों के समुद्र हैं। वे साहित्य,समीक्षा,राजनीति,,तकनीक,मीडिया आदि किसी भी क्षेत्र में अतुलनीय क्षमता रखते हैं। वे इनमें से किसी भी क्षेत्र पर मौलिक ढ़ंग से प्रकाश डालने में सक्षम हैं। किसी भी गंभीर बात को अति संक्षेप में कहने में सक्षम हैं। वे प्रभावित करते हैं। माहौल बनाते हैं। अपनी उपस्थिति से आलोकित करते हैं। लेकिन किसी का व्यक्तित्व बनाने, तराशने वाले कारीगर का कौशल उनके पास नहीं है।
वे समुद्र हैं, महान व्यक्तित्व हैं, कारीगर नहीं। यही वजह है कि उनके आसपास रहने वाले अधिकांश शिष्य उनके गुणों, क्षमता और विद्वता आदि में कहीं से भी नामवर सिंह का उत्पाद नहीं लगते। शिष्य सोचते हैं गुरूदेव की कृपा से वे भी महान हो जाएंगे, गुरूदेव जैसे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। शिष्य भूल जाते हैं कि वे समुद्र किनारे बने हुए रेती के मकान हैं जिन्हें जब भी समुद्री लहरें आतीं है बहा ले जाती हैं।
नामवर सिंह ने अपना व्यक्तित्व अपने परिश्रम,मेधा और संघर्षों के आधार पर बनाया है। उन्हें स्वयं के अलावा किसी ने मदद नहीं की। वे इसी अर्थ में आत्मनिर्भर हैं। वे अपनी सारी शक्ति एक चीज के लिए लगाते रहे हैं वह है ज्ञानप्रेम। ज्ञानप्रेम ने उन्हें महान बनाया है। यह प्रेम उनके किसी शिष्य में नहीं है। दीवानगी की हद तक वे आज भी इसके दीवाने हैं और इसी ने उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण किया है।
बेहतर आलेख | नामवर जी की खूबियाँ और खामियाँ, दोनों का दिग्दर्शन. धन्यवाद| वाकई अब कभी-कभी नामवर जी को ‘हिन्दी-साहित्य संसार का महंत’ कहने को जी चाहता है|
आज आप नामवर सिंह पर बड़े मेहरबान नजर आरहे हैं,नहीं तो आपके पहले के लेखों से तो लगता था की आप नामवर सिंह पर बेहद खफा हैं,आज भी आपके इस लेख से एक बात तो साफ़ हो जाती है की आपको इस बात का अफ़सोस है की नामवर सिंह को बाँध क्यों नहीं पा रहे हैं?मेरे ख्याल से नामवर सिंह ऐसा व्यक्तित्व कोई भी बंधन स्वीकार नहीं सकता.मैंने जितना प्रेमचंद को पढ़ा और समझा है उतना तो नामवर सिंह को नहीं पढ़ा है ,पर मैं एक बात अवश्य कह सकता हूँ की नामवर सिंह के साथ वह बंधन नहीं है जो प्रमचंद के साथ थी.उम्र ने भी नामवर सिंह का ज्यादा साथ दिया है और वे अपने ढंग से इसका आनंद उठा रहे हैं तो दूसरों को इससे असुविधा या ईर्ष्या क्यों?रह गयी बात नामवर सिंह को चेग्वेरा बनने की बात,जिसका उल्लेख आपने अपने एक पिछले लेख में किया है,तो इसके बारे में मुझे यही कहना है की नामवर सिंह का अपना व्यक्तित्व है,उसको वैसा ही रहने दीजिये.
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था .वसुंधरा पुण्यवती च तेनु …
अपार सम्वितु सुख्साग्रे अस्मिन्न ,लीनं परे ब्रह्मणी अस्य चेत ;…
वह कौम धन्य है .वह साहित्य धन्य है ..वह युग धन्य है …वह विचार -दर्शन धन्य है -जिसने ..नामवरसिंह को -देखा ,सुना ,जाना ,माना पहचाना .आलेखअच्छा है ,चूँकि नामवर को समर्पित है, अतः जगदीश्वर जी से प्रत्याशा है की ,राष्ट्रीय व्यक्तित्व ‘ से आगे किसी अंतर राष्ट्रीय व्यक्तित्व पर आलेख कैसा होगा ?जानने की जिज्ञाशा में …..श्रीराम तिवारी