जापान की राजनीतिः चार साल में पांच प्रधानमंत्री!

-राकेश उपाध्याय

महज़ आठ महीने पहले जापान के प्रधानमंत्री बने युकियो हातोयामा ने 2 जून को अचानक पद से त्यागपत्र दे दिया। हातोयामा सरकार के कामकाज और खुद के प्रदर्शन से खुश नहीं थे। सरकार के खिलाफ बढ़ते जनरोष को कारण बताते हुए उन्होंने पद त्याग दिया।

क्या आपने सुना है कि कोई प्रधानमंत्री मात्र आठ महीने पहले सरकार की कमान हाथ में संभाले और फिर यह कहते हुए त्यागपत्र दे दे कि जनता मुझे पसंद नहीं कर रही। जी हां। जापान में ये वाकया घटित हुआ है। अगले महीने जापान की संसद के ऊपरी सदन के चुनाव होने हैं। और सिर्फ आठ महीने पहले पूरे बहुमत से देश की कमान संभालने वाले डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान के नेता युकियो हातोयामा ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया है। उनके साथ डीपीजे के एक और कद्दावर नेता जनरल सेक्रेट्री इचिरो ओजावा ने भी पद से इस्तीफा दे दिया है। जापान की राजनीति के जानकारों का कहना है कि इचिरो ओजावा जापान की राजनीति में शैडो पीएम के रूप में जाने जाते थे। कहीं-कहीं तो प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर..

हातोयामा का कहना है कि वे जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। जापान में बीते चार सालों में प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने वाले नेताओं में हातोयामा चौथे नेता हैं। एक प्रेस कांफ्रेंस में हातोयामा ने तमाम चुनावी घोषणाओं को पूरा न कर पाने पर सरकार की विफलता की जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ ली।

खैर, नए प्रधानमंत्री के रूप में नाओतो कान का नाम सत्तारुढ़ दल की सांसदों ने चुन लिया है। नाओतो केन हातोयामा मंत्रिमण्डल में वित्त मंत्री के साथ-साथ उप प्रधानमंत्री का ओहदा भी संभाले हुए थे। जैसा कि जापान की राजनीति में परंपरा है कि प्रधानमंत्री ही सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष भी होता है, नाओतो कान को डीपीजे का सर्व सहमति से अध्यक्ष भी निर्वाचित घोषित किया गया है। नाओतो कान पिछले चार साल में प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभालने वाले पांचवे नेता हैं। वामपंथी रूझान वाले नाओतो कान जापान में किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक नहीं रखते। हाल के दशकों में जापान में अधिकांश प्रधानमंत्री वंशवादी राजनीति से उपजे और युकियो हातोयामा भी वंशवादी राजनीति की कोख से ही जन्मे थे।

जापान की राजनीति में पिछले साल अगस्त में लंबे अरसे बाद सत्ता परिवर्तन हुआ था। 90 के दशक के कुछ महीने छोड़ दें तो सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी लगभग पांच दशकों से जापान पर बेधड़क राज करती आ रही थी। प्रमुख विपक्षी दल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान ने एलडीपी के पांच दशकों से चले आ रहे इस एकछत्र राज को चुनौती दी।

जापान में लोकतंत्र

नागासाकी और हिरोसिमा पर परमाणु बम के हमले ने जापान को हिलाकर रख दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों के हाथों बुरी तरह मात खाने और एटमी हमले से भयानक तबाही का मंजर देखने वाले जापान ने तब अमेरिका के हाथों अपना सब कुछ गिरवी रख दिया।

सन् 1948 में जापान का संविधान वाशिंगटन में बनकर तैयार हुआ। राजशाही का दौर समाप्त हुआ और देश में लोकतंत्र की नींव पड़ी। सम्राट को नाममात्र की शक्तियां देकर देश के राष्ट्रपति के रूप में सदा के लिए नामित कर दिया गया। असल ताकत प्रधानमंत्री और केबिनेट तथा डॉयट के हाथों में आ गयी।

अमेरिका ने जापान के संविधान में ऐसा प्रावधान कर दिया कि जापान कभी सैन्य ताकत के रूप में न उभर सके। जापान की सुरक्षा की जिम्मेदार वाशिंगटन ने खुद संभाली। जाहिर है, जापान के प्रमुख रणनीतिक अड्डे अमेरिका के नियंत्रण में आ गये।

जापान में पिछले पांच दशकों से लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान यानी एलडीपी का ही शासन रहा है। सन् 1993 में और सन् 2000 में बामुश्किल कुछ महीनों के लिए एलडीपी सत्ता से बाहर रही। विपक्ष कभी एलडीपी के लिए कठिन चुनौती खड़ी नहीं कर सका।

लेकिन पिछले साल अगस्त महीने में हुए आम चुनाव में नज़ारे बदले हुए थे। इचिरो ओजावा और युकियो हातोयामा ने मिलकर डीपीजे को एलडीपी का विकल्प बनाने की दिशा में आखिरकार सफलता हासिल कर ली। डीपीजे ने एलडीपी पर देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और अमेरिका परस्ती के आरोप मढ़े।

डीपीजे का अमेरिका विरोध

डीपीजे ने जनता से वायदा किया कि अगर वे सत्ता में आये तो जापान को अमेरिकी खेमे से अलग एक सैन्य शक्ति सम्पन्न देश की पहचान देंगे। डीपीजे ने जनता को भरोसे में लेने के लिए सत्तारूढ़ एलडीपी पर अमेरिकी नौसैन्य बेड़ों और वायुसेना के ठिकानों को तत्काल देश से बाहर करने दबाव बना दिया। अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ रहीं अमेरिकी सेना को रसद, ईंधन आदि की आपूर्ति पर भी डीपीजे ने देश में राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया।

जनता को एकबारगी लगने लगा कि डीपीजे के नेता कथनी-करनी में एक हैं। लेकिन तभी राजनीति ने करवट ली। विपक्षी दल डीपीजे के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार इचिरो ओजावा पर सरकारी एजेंसी ने भ्रष्टाचार के एक मामले में संलिप्त होने का संकेत किया। पर ओजावा ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेलीं थीं। ओजावा ने तुरंत प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर अपना नाम पीछेकर साफ-सुथरी छवि वाले अपने सहयोगी युकियो हातोयामा का नाम आगे कर दिया। डीपीजे नेताओं की इस साफगोई पर जनता रीझ गयी और 16 सितंबर, 2009 को युकियो हातोयामा भारी बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने।

जो भी है, जापानी मतदाता प्रधानमंत्री पद पर एक के बाद एक नये-नये चेहरे देखने को मजबूर है। एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय अखबार ने इस हालत पर व्यंग्य कसते हुए लिख तक दिया कि अब तो जापान के हाल के प्रधानमंत्रियों का नाम भी याद रख पाना अमेरिकी हुक्मरानों के लिए कठिन होता जा रहा है। पिछले चार साल में देश में चार प्रधानमंत्री बदल चुके हैं। त्यागपत्र देने वाले हातोयामा चौथे प्रधानमंत्री हैं। पिछल साल वह डॉयट में भारी बहुमत के साथ जीतकर आये तो माना जा रहा था कि वह अपना कार्यकाल पूरा करेंगे लेकिन उन्हें भी पद से हटना पड़ गया।

चार साल, पांच प्रधानमंत्री !

जापान ने नये संविधान के साथ पहली बार सन् 1948 में आम चुनावों का सामना किया। अमेरिका की ही तरह संसद के निचले सदन यानी लोकसभा के चार साला कार्यकाल के लिए लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता योशिदा सिगेरू पहले प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। योशिदा से लेकर हातोयामा तक जापान 93 प्रधानमंत्री देख चुका है। सन् 1993 तक जापान की समूची राजनीति पूरे तौर पर एलडीपी के इर्द-गिर्द घूमती रही। जापान की राजनीति में विपक्ष के सत्तारूढ़ होने का स्वप्न 90 के दशक में साकार हुआ ।

18 जुलाई, 1993 को डायट के निचले सदन में सत्तारूढ़ एलडीपी ने बहुमत खो दिया । तब, पहली बार देश में विपक्षी गठबंधन ने मोरीहिरो होसोकावा के नेतृत्व में सत्ता संभाली। अप्रैल, 1994 में होसोकावा ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, फिर प्रधानमंत्री बने सुतोमू हाता। बीते 40 साल में वे ऐसी पहली सरकार के मुखिया थे, जिसे निचले सदन में विश्वासमत हासिल नहीं था। दो महीने बाद ही उनकी भी सरकार गिर गयी। और एक बार फिर से चार दशकों से जापान पर एकछत्र राज करने वाली एलडीपी ने प्रधानमंत्री मुरायामा के नेतृत्व में जापान की सत्ता के सूत्र अपने हाथ में ले लिये।

सन् 1999-2000 में विपक्षी गठबंधन ने कुछ समय के लिए जापान की राजनीति में खलबली पैदा की लेकिन कुछ ही महीने में सब शांत हो गया। सत्ता एलडीपी के पास बनी रही। सन् 2001 में जापान ने जुनिचिरो कुइजुमी का जादुई नेतृत्व देखा। जिन्होंने एलडीपी के अध्यक्ष पद पर जीत हासिलकर पार्टी में नयी जान फूंकने का ऐलान किया। कुईजुमी ने लगातार पांच साल तक जापान पर शासन किया। उनके काल में जापान ने निजीकरण के नये दौर में प्रवेश किया। सरकार डाक-तार विभाग के निजीकरण समेत अनेक फैसलों को लेकर कुईजुमी दुनिया भर में चर्चित नेता बन गये।

सन् 2006 में कुईजुमी ने सहमति के आधार पर प्रधानमंत्री पद अपनी ही पार्टी एलडीपी के युवा नेता शिंजो ऐबे के हवाले कर दिया। लेकिन ऐबे एक साल के भीतर ही प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देकर किनारे हो लिए। और फिर तो प्रधानमंत्री पद पर आने-जाने वालों का तांता ही लग गया।

एलडीपी के वयोवृद्ध नेता यासुओ फुकुदा ने सत्ता के कमान हाथ में ली़, टिकने की कोशिश भी की लेकिन ज्यादा ना टिक सके। फुकुदा ने डायट के दोनों सदनों में भारी विरोध के बावजूद अफगानिस्तान में युद्धरत अमेरिकी गठबंधन सेनाओं को सहायता पहुंचाने के लिए अमेरिका के साथ पूर्व में हुए एक समझौते का नवीनीकरण किया। इस समझौते के द्वारा हिंद महासागर में तैनात अमेरिकी जंगी बेड़े जापान से ईंधन और रसद पाने के लिए फिर से हकदार हो गये।

हालांकि समझौते के नवीनीकरण का विरोध जारी रहा। अंततः फुकुदा को एलडीपी की सरकार बचाने के लिए नेतृत्व तारो असो को सौंपना पड़ा। इधर डीपीजे ने जापान में एलडीपी को स्थानीय निकाय चुनावों में बुरी तरह से शिकस्त दी। तारो असो ने बढ़ते जनांदोलन के बीच 30 अगस्त, 2009 को जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया। इस जनमत संग्रह का परिणाम वही आया जो स्थानीय निकाय चुनावों में जापान देख चुका था। डीपीजे ने लगभग बहुमत के साथ जापान की सत्ता पहली बार अपने हाथों में ले ली। युकियो हातोयामा जापान के 93वें प्रधानमंत्री बने। नये घटनाक्रम में नाओतो कान जापान के 94वें और गत 4 सालों में पांचवें प्रधानमंत्री होंगे।

अमेरिकी दबाव में झुकना भारी पड़ गया

हातोयामा ने जापान के ओकीनावा स्थित जिस अमेरिकी सैन्य अड्डे को हटाने के मुद्दे पर पिछले साल चुनाव लड़ा, आखिरकार वह अमेरिकी सैन्य अड्डा ही उनकी विदाई का सबब बन गया। सत्तारूढ़ डीपीजे के अधिकांश सांसद इस सवाल पर सरकार के ढीले-ढाले रवैये के खिलाफ थे ही, सरकार के साथ गठबंधन में शामिल समाजवादी नेताओं ने बगावती तेवर अपना लिये। गठबंधन में शामिल समाजवादी महिला नेता फुकुशिमा ने मंत्री पद से त्यागपत्र देकर गठबंधन से खुद को अलगकर लिया।

प्रधानमंत्री हातोयामा और उनके गॉडफादर डीपीजे के वरिष्ठ नेता इचिरो ओजावा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस अमेरिकी सैन्य अड्डे को हटाने के सवाल को वे चुनावी मुद्दा बना रहे हैं, वही उन दोनों के पतन का कारण बन जायेगा। जापान में अमेरिका की अधिकांश सेना दक्षिणी तट के द्वीप ओकिनावा के फुतेन्मा नामक समुद्र तट पर पनाह पाये हुए है। फुतेन्मा से अमेरिकी सैन्य अड्डा हटाए जाने की मांग को तीन वर्ष पूर्व ओजावा और हातोयामा ने ही हवा दी और इस मुद्दे ने ही दोनों नेताओं की हवा निकाल दी।

सत्ता में आने के महीनों बीत जाने के बावजूद जब दोनों नेता अपनी घोषणा पर ठोस कार्रवाई नहीं कर सके तो जनता के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल में ही आक्रोश फूट पड़ा। जुलाई महीने में ऊपरी सदन के चुनावों ने पार्टी नेतृत्व पर निर्णायक कार्रवाई का दबाव बढ़ा दिया। जाहिर है युकियो हातोयामा ने अपनी लाचारगी पार्टी नेताओं के सामने प्रकट कर दी। अमेरिकी सरकार ने किसी भी हालत में जापान से अपने सैन्य अड्डे के स्थानांतरण को नामंजूर कर दिया था। हातोयामा ने बीच का रास्ता निकालकर सैन्य अड्डे को एक अन्य स्थान हेनेको स्थानांतरित करने की पेशकश कर दी। अमेरिका हेनेको में स्थानांतरण के लिए राजी भी हो गया लेकिन प्रधानमंत्री डीपीजे के प्रमुख सहयोगी दल सोशलिस्ट पार्टी की नेता और केबिनेट मंत्री फुकुशिमा को इस समझौते के लिए राजी नहीं कर सके। और तो और डीपीजे में भी हातोयामा के खिलाफ बगावत की बयार बहने लगी। जनता ने भी अमेरिकी अड्डों को जापान में बनाए रखने के निर्णय को जनमत के खिलाफ दगाबाजी करार दिया। ओकीनावा में तो एक लाख लोगों ने अमेरिकी सैन्य अड्डे को हटाने की मांग को लेकर जबर्दस्त प्रदर्शन किया। नतीजतन प्रधानमंत्री हातोयामा और पार्टी के वरिष्ठ महामंत्री इचिरो ओजावा को लेने के देने पड़ गये। अमेरिका विरोध की खुद की जलायी आग ने दोनों की बलि ले ली।

लेकिन अभी ‘राजनीति’ शेष हैः

जिन राजनीतिक विश्लेषकों की पैनी नज़र जापान की राजनीति पर गड़ी हुयी है, मई के अंतिम सप्ताह में ही जान गये थे कि जापान की राजनीति में अंदर ही अंदर बहुत कुछ पक रहा है। हालात सामान्य नहीं है। स्थिति तब गंभीर हो गयी जब सोशलिस्ट पार्टी की नेत्री फुकुशिमा ने अमेरिकी सैन्य ठिकानों को जापान में बनाए रखने पर आपत्ति दर्ज करायी। जापान की राजनीति के अभिनव चाणक्य इचिरो ओजावा ने अंतिम दम तक कोशिश की फुकुशिमा को मंत्रीमंडल में बने रहने के लिए राजी किया जाए लेकिन प्रधानमंत्री युकियो हातोयामा फुकुशिमा के नखरों से तंग आ चुके थे, सो उन्होंने उसे मनाने की कोशिश बंद कर दी। फुकुशिमा के त्यागपत्र के बाद देश की राजनीति की हवा और डीपीजे सरकार के भविष्य को इचिरो ओजावा ने गहराई से देखा और समझा। यद्यपि डीपीजे सरकार निचले सदन में पूर्ण बहुमत के साथ सत्तासीन थी और फुकुशिमा के त्यागपत्र से सरकार की सेहत पर कोई विशेष फर्क भी नहीं पड़ रहा था, लेकिन ओजावा ने जुलाई महीने में राज्यसभा यानी डॉयट के ऊपरी सदन के लिए देश भर की प्रांतीय विधायिकाओं के द्वारा होने वाले चुनाव के मद्देनज़र सधी हुयी चाल चलने का फैसला किया। ओजावा ने प्रधानमंत्री हातोयामा को समझाया कि अगर ऊपरी सदन में पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो सरकार का शेष कार्यकाल कांटों का ताज बन जाएगा। निचले सदन का बहुमत धरा-का-धरा रहेगा और एलडीपी सरकार के हर फैसले को ऊपरी सदन में वीटो कर देगी।

ओजावा ने यह भी देख लिया कि जनता सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री और पार्टी महामत्री यानी स्वयं उनकी भूमिका पर सवालिया निशान लगा रही है। सो, उन्हें यह महसूस करते देर नहीं लगी कि यदि वह और हातोयामा पद पर बने रहे तो अगले महीने चुनाव परिणाम क्या रहने वाला है। ओजावा ने अचानक एक बड़ा निर्णय लिया। उन्होंने हातोयामा से तत्काल पद त्याग देने को कहा। यह भी कहा कि वह जनता को त्यागपत्र का कारण स्पष्ट करें। हातोयामा ने भी ओजावा को प्रत्युत्तर दिया कि अगर अमेरिका के दबाव में प्रधानमंत्री होने के नाते मैं हूं तो सरकार के मार्गदर्शक के नाते जिम्मेदारी आपकी भी बनती है। जनता में आपकी छवि पर भी विपरीत असर पड़ा है। फिर क्या था। पार्टी की प्रतिष्ठा बचाने के लिए दोनों ही नेताओं ने अपने-अपने पदों से इस्तीफे दे दिए। अचानक ही जापान की राजनीति की बाजी इस फैसले से उलटती दिखने लगी है। जापान की जनता में अमेरिका के प्रति किन्हीं कारणों से काफी आक्रोश है। वर्तमान विपक्षी दल एलडीपी को अमेरिका को समर्थक दल माना जाता है। डीपीजे की सरकार से अमेरिका के दबाव में न आने की उम्मीद जनता कर रही थी। लेकिन हातोयामा के निर्णयों ने जनता को निराश कर दिया। जाहिर है, हातोयामा और ओजावा ने पार्टी की गरिमा और प्रतिष्ठा बचाने के लिए खुद पर सारी जिम्मेदारी डाल ली। पार्टी आज भी अमेरिका के विरोध में है, पार्टी के नए नेता नाओतो कान की ताजपोशी कर दोनों ने जनता को संदेश दे दिया कि वह पार्टी पर भरोसा रखे। नेता झुक सकते हैं लेकिन पार्टी अमेरिका के आगे नहीं झुकेगी।

देखना दिलचस्प होगा कि इस निर्णय को जापान की राजनीति पर क्या असर होगा। जुलाई में होने वाले ऊपरी सदन के चुनावों में क्या डीपीजे अपनी प्रतिष्ठा बचा पायेगी। यदि डीपीजे की जीत हुयी तो निश्चित ही हारकर भी हातोयामा और ओजावी जीत जाएंगे।

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