यरूशलम विवाद : शिया-सुन्नी संघर्ष की अमेरिकी साजि़श

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तनवीर जाफ़री
‘बांटो और राज करो’ की जिस नीति पर चलते हुए ब्रिटिश राज ने लगभग पूरे विश्व में अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था ठीक उसी नीति का अनुसरण आज अमेरिका द्वारा किया जा रहा है। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया का हर देश तथा वहां के बुद्धिमान समझे जाने वाले शासक भी अमेरिका की इस चाल से वािकफ होने के बावजूद किसी न किसी तरह उसके चंगुल में फंस ही जाते हैं। यह और बात है कि कुछ समय के लिए किसी राष्ट्र विशेष के प्रति हमदर्दी जताने वाला यही अमेरिका संकट की घड़ी में उसका साथ दे या न दे। उदाहरण के तौर पर 1971 में जब भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने दूरगामी राजनैतिक कौशल व रणनीति के तहत पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का निश्चय किया उस समय पाकिस्तान अमेरिका की गोद में खेल रहा था। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सहायता का आश्वासन भी दिया गया। उन दिनों यह चर्चा भी पूरे ज़ोरों पर थी कि अमेरिकी युद्धपोत पाकिस्तान की सहायता करने हेतु रवाना हो चुका है। परंतु बंगला देश के उदय होने तक वह युद्धपोत पहुंचा ही नहीं। परिणाम आज सबके सामने है। दरअसल अमेरिका यदि किसी का साथी,सहयोगी या शुभचिंतक दिखाई भी देता है तो उसकी मंशा किसी दूसरे देश की सहायता करने की नहीं बल्कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने तथा अमेरिकी हितों का विस्तार करने की ही होती है।
ऐसी ही स्थिति आज विश्व के सबसे विवादित व संवेदनशील मुद्दे अर्थात् इज़रायल के संबंध में अमेरिका द्वारा पैदा की जा रही है। हालांकि समूचे इज़राईल के अस्तित्व को लेकर ही अरब देश हमेशा से सवाल खड़ा करते रहे हैं। पूरा मुस्लिम जगत इज़राईल के विरुद्ध एकमत हुआ करता था। जबकि अमेरिका व ब्रिटेन जैसे कुछ देश इज़राईल के पक्ष में खड़े दिखाई देते थे। अरब-इज़राईल के मध्य कई बार सैन्य संघर्ष भी हो चुके हैं। िफलिस्तीन-इज़राईल क्षेत्र में िफलीस्तीनियों द्वारा अपना क्षेत्र वापस मांगने और इज़राईल द्वारा उसपर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने को लेकर खूनी संघर्ष भी आए दिन होता ही रहता है। अब भी दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो इज़राईल से दूरी बना कर रखते हैं। कई देशों में इज़राईल के दूतावास नहीं हैं। परंतु अरब जगत से इतना मतभेद होने के बावजूद गत् तीन दशकों में अमेरिकी नीतियों के परिणामस्वरूप इतना परिवर्तन आ चुका है कि दूसरे छोटे अरब देशों की बात ही क्या करनी खुद सऊदी अरब भी अमेरिकी कोशिशों की बदौलत ही इज़राईल के काफी करीब पहुंच गया है। अरब-इज़राईल दोस्ती के पीछे अमेरिका-इज़राईल द्वारा जो ज़मीन तैयार की गई है उसका मुख्य आधार ही अमेरिका व इज़राईल द्वारा सऊदी अरब को ईरान का भय दिखाना है । और इस रणनीति का मुख्य कारण यह है कि पूर्व ईरानी राष्ट्रपति अहमदी नेजाद  सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि ‘इज़राईल का नाम ही दुनिया के नक्शे से मिटा दिया जाएगा’।
दूसरी ओर इराक के कमज़ोर होने के बाद तथा पाकिस्तान में सत्ता की आंतरिक खींचतान व उसकी कई मोर्चों पर आतंकवादियों से जूझने में व्यस्तता के कारण इस समय ले-देकर ईरान व सऊदी अरब ही विश्व के दो मज़बूत मुस्लिम राष्ट्र दिखाई दे रहे हैं। यदि पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ यह दोनों देश अपने ऐतिहासिक व धार्मिक मतभेदों को किनारे कर आपस में हाथ मिलाने तथा एक स्वर से इस्लाम के नाम पर चारों ओर फैलाई जा रही बदअमनी तथा इसकी आड़ में फैले आतंकवाद के सफाए का निश्चय कर लें तो मुस्लिम जगत विश्व के सबसे शक्तिशाली व आर्थिक रूप से सुदृढ़ गठबंधन के रूप में उभर सकता है। परंतु अमेरिका की ‘बांटो और राज करो’ की नीति दुनिया में ऐसा नहीं होने दे रही है। कभी अमेरिका इराक की बरबादी के लिए सद्दाम हुसैन को निशाना बनाता है तो ईरान इस घटना को अपने पक्ष में देखता है। ज़ाहिर है ईरान नहीं चाहता था कि उसके पड़ोस में सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह के नेतृत्व में कोई मज़बूत राष्ट्र उभर सके। वह भी ऐसा राष्ट्र जो वर्षों तक ईरान से युद्धरत रहा हो। इसी प्रकार अरब को अमेरिका इस बात का भय दिखाता है कि यदि अमेरिका उसके साथ नहीं खड़ा होगा तो ईरान उसे निगल जाएगा।
यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो ईरान की नीति प्राय: इस्लाम धर्म को एक शांतिपूर्ण व सहनशील धर्म के रूप में पेश करते हुए पड़ोसी देशों के साथ परस्पर अच्छे संबंध कायम करने की ही रही है। हां इतना ज़रूर है कि अपने अधिकार,सच्चाई तथा असत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करने में ईरान का मत हमेशा बिल्कुल स्पष्ट रहा है। ईरान एक ऐसा देश है जो दशकों तक प्रतिबंध झेलने के बावजूद दुनिया के आगे नहीं झुका तथा इतना आत्मनिर्भर रहा कि उसने प्रतिबंध काल के दौरान भी आर्थिक,वैज्ञानिक,सामरिक तथा शैक्षिक क्षेत्र में काफी तरक्की की है। वैसे भी शिया बाहुल्य राष्ट्र होने के नाते ईरान के शासक हज़रत इमाम हुसैन के बताए हुए आदर्शों पर चलते हैं तथा असत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद रखते हैं। फिर चाहे वह करबला में यज़ीदी दौर हो या वर्तमान दौर के स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने वाले देश अथवा शासक। अभी पिछले दिनों विश्व के सबसे बदनाम आतंकी संगठन आईएसआईएस के खा़त्मे को लेकर अमेरिका व सऊदी अरब द्वारा जो दोहरा मापदंड अपनाया गया वह पूरी दुनिया ने देखा। परंतु ईरान ने खुलकर निश्चय कर लिया था कि वह इस इस्लामी दुश्मन संगठन को नेस्तानाबूद करके ही चैन लेगा। हालांकि ईरान व आईएसआईएस के मध्य लगभग तीन वर्षों तक चले इस संघर्ष में अमेरिका व अरब ने अपने-अपने तरीके व बहाने से इस आईएस विरोधी ईरानी आप्रेशन में टांग अड़ाने की भरपूर कोशिश भी की। परंतु ईरान के नेतृत्व ने  इस संगठन की कमर तोडक़र रख दी और सीरिया व इराक में इनके कब्ज़े के अधिकांश क्षेत्रों को मुक्त करा लिया। ज़ाहिर है ईरान व आईएस के मध्य हुए इस निर्णायक संघर्ष के बाद मुस्लिम जगत में ईरान का इकबाल अब और बुलंद हो गया है।
ईरान के इसी बढ़ते प्रभाव से भयभीत अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अब विवादित यरूशलम को इज़राईल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद अरब जगत में बड़े पैमाने पर मंथन शुरु हो गया है। फि़लिस्तीन में खूनी संघर्ष छिड़ गया है, सऊदी अरब अपने कुछ सहयोगी देशों के साथ इज़राईल व अमेरिका की भाषा बोलता दिखाई दे रहा है जबकि विश्व के अधिकांश देश ट्रंप के इस फैसले के विरुद्ध नज़र आ रहे हैं। उधर 57 मुस्लिम देशों के समूह इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी)ने ट्रंप के इस फैसले का विरोध करते हुए इस फैसले को गलत व अमान्य बताया है तथा यरूशलम पर मात्र फि़लिस्तीनियों का अधिकार जताया है। केवल मुस्लिम जगत ने ही नहीं बल्कि यूरोपीय संघ ने भी यरूशलम को इज़राईल की राजधानी मानने से इंकार कर दिया है। यूरोपीय संघ के अनुसार जब तक इज़राईल-िफलिस्तीन के मध्य अंतिम रूप से शांति समझौता नहीं हो जाता तब तक उसके सदस्य देश यरूशलम को इज़राईल की राजधानी नहीं मानेंगे। परंतु ट्रंप की यही कोशिश है कि वह किसी प्रकार इज़राईल के बहाने अरब व ईरान के मध्य युद्ध की स्थिति पैदा करे और उस स्थिति में अरब का साथ देकर ईरान को कमज़ोर करने की कोशिश करे। अमेरिका की इस दूरगामी चाल से मुस्लिम जगत को खबरदार रहने की ज़रूरत है।

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