झूठी लोकप्रियता के माफिक

intoleranceआज जिस तरह से असहिष्णुता का राग आलाप करते हुये हमारे तथाकथित कुछ
बुद्धिजीवी साहित्यकार,कलाकार,वैज्ञानिक और इतिहासकार एक झूठी मनसा तथा
सस्ती लोकप्रियता पाने के चलते जिस तरह से सरकार को घेरने की कोशिश मे
लगे है इससे एक बात तो साफ जाहिर होती है कि इन बुद्धिजीवियों का मकसद
सीधे सीधे सरकार का दमन करना है और कुछ नही।
जिस तरह से यह लोग असहनशीलता का ढोल पिटते हुये सीधे केन्द्र सरकार पर
हमला बोल रहे है इससे एक बात तो स्पष्ट है कि असहिष्णुता का हौवा बनाकर
यह लोग किसी राजनैतिक षड्यंत्र से सरकार को गिराना चाहते है।
क्या सिर्फ डेढ सालो मे ही देश का माहौल खराब हुआ है?चंद दिनो मे ही देश
मे साम्प्रदायिक दंगे हुए है? मोदी सरकार के राज मे ही अभिव्यक्ति की
आजादी खतरे मे है?
क्या केन्द्र मे भाजपा की सरकार होने से ही देश मे शांतिपूर्ण माहौल नही
है?? कुछ ऐसे ही प्रश्न हमारे साहित्यकारो की ओर से सरकार के प्रति उठ
रहे है।
लेकिन इससे पहले जब इंदिरा गाँधी के शासन काल मे आपातकाल थोपा गया था, जब
1984 के सिक्ख दंगो मे हजारो सिक्ख मारे गये थे,जब गुजरात मे दंगे हुए थे
क्या तब देश मे असहिष्णुता निर्मित नही हुई थी ?क्या तब देश मे अराजकता
का माहौल नही बना था?
उस समय तो केन्द्र मे विपक्षियो की ही सरकार थी तब इन बुद्धजीवियों ने
अपना विरोध प्रदर्शन क्यों नही किया?क्या तब इन्हे असहिष्णुता नजर नही आ
रही थी?
और अब अब अचानक से कुछ घटनाओं को ढाल बनाकर ये सीधे केन्द्र को दोषी ठहरा
रहे है जबकि केन्द्र सरकार का इन सब से कोई वास्ता नही है।
यूपी मे जहाँ अखलाक की हत्या की गई वहाँ पर समाजवादी पार्टी की सरकार है
और कर्नाटक जहाँ पर दलित लेखक कलबुर्गी को मारा गया वहाँ पर कांग्रेस की
सरकार है तो राज्यसरकार के खिलाफ आवाज उठाने की बजाय ये लोग सीधे केन्द्र
के ऊपर दोष मढ रहे है जो कतई उचित एवं सरोकार नही है।
साहित्यकारों,फिल्मकारों व वैज्ञानिकों का पुरस्कार वापसी वाला ड्रामा सच
मे हैरान करने वाला है,जिससे मोदी सरकार का कोई लेना देना नहीं है।
उनका यह कदम यही संकेत करता है कि कही न कही इस अभियान का एक राजनैतिक
मकसद है या फिर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना,क्योकि यह गौर करने लायक है
कि सम्मान लौटाने वाले ज्यादातर लोग उम्र के ऐसे पडाव पर है जहाँ उनके
लिये आगे बहुत कुछ पाना संभव नही है इसलिये सम्मान लौटाकर और मोदी सरकार
के खिलाफ आवाज बुलन्द कर उन्हे बिना कुछ किये धरे ही राष्ट्रीय स्तर पर
लोकप्रियता हासिल हो रही है।
पंकज कसरादे

3 COMMENTS

  1. एक आनन्द पटवर्धन राम भगवान की निन्दा करनेवाला लघु चित्रपट लेकर अमरिका आए थे। **We are not your monkeys** नाम था। हनुमान और वनवासियॊं को राम भगवान नें अनुचर बनाया था। और उन्हें सेवक बनाकर ही, व्यवहार कर, अन्याय किया। कुछ ऐसा अर्थघटन उस चित्रपट में, किया गया था।
    न्यूयोर्क युनीवर्सीटी में चित्रपट दिखाया गया था। मैं वहाँ उपस्थित था।
    तब, प्रेक्षकॊं ने ऐसी प्रश्नों की झडी लगा दी थी, कि, आनन्द पटवर्धन सुरक्षितता से भाग निकले थे।
    ये राष्ट्र संस्कृति के विरोधी, रामद्रोह का अपना पारितोषिक वापस कर रहे हैं। पैसे भी वापस ले लो।
    पहले खोखला पारितोषिक उन्हें रामद्रोह का मिला था। अब वापस करने विवश हैं।
    प्रत्येक अवार्ड वापस करनेवालों की सूची बनाई जाए। और उनका इतिहास जाना जाए।
    धन्यवाद।

  2. सही विश्लेषण किया है आपने , खबरों में रहने का यह एक अच्छा विषय बन गया है , अब यह सब बंद हो जायेगा क्योंकि बिहार में चुनाव हो चुके हैं व उनके राजनीतिक आकाओं कोअब इस ड्रामेबाजी से ज्यादा लाभ नहीं मिलेगा इसलिए शेष लोगों को वे फिर कभी भुनाने के लिए रोक लेंगे , इस सारे घटना क्रम से यह जाहिर हो गया कि पुरस्कार भी तिकड़म बाजी का प्रतिफल है व वे तथाकथित चिंतक साहित्यकार व रचनाकार भी दलीय निष्ठाओं से जुड़े हैं , जिनको समय समय पर उस प्राप्ति का बदला चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए

    • अब तो बिहार के चुनाव का नतीजा भी आ चूका है.अब आप क्या कहेंगे? बहुमत को अल्पमत कब तक कहते रहिएगा?

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