जिज्ञासा है, वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रतिफल

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संदर्भः- 28 फरवरी विज्ञान दिवस के अवसर पर विशेष

प्रमोद भार्गव

भारत में विज्ञान की परंपरा बेहद प्राचीन है। जिसे हम आज साइंस या विज्ञान कहते हैं, उसे प्राचीन परंपरा में पदार्थ विद्या कहा जाता था। देश के वैज्ञानिक नित नूतन उपलब्धियों से दुनिया को चैंका रहे है। विज्ञान के क्षेत्र में हमारी प्रगति अब रंग ला रही हैं। मिसाइल और अंतरिक्ष में विकसित देशों के उपग्रह स्थापित करके न हमने केवल नाम कमाया बल्कि अब इन उपायों से हम धन भी कमाने लगे हैं। यही नहीं भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने एक साथ 104 उपग्रहों को छोड़कर विश्व रिकाॅर्ड भी बनाया है। यह उपलब्धि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के समन्वय से संभव हुई है। भारत में मूल रूप से विज्ञान और दर्षन का अंतर्सबंध रहा है। यही कारण है कि हमारे यहां आविष्कारों की परंपरा बेहद प्राचीन रही है। ऐसा इसलिए संभव बना रहा, क्योंकि हमने विज्ञान को अपनी परंपराओं का कभी प्रतिद्वंद्वी नहीं माना। जबकि पश्चिमी दुनिया जो आज विज्ञान के क्षेत्र में हमसे बहुत आगे है, उसे समय-समय पर धरम और परंपराओं का विरोध झेलना पड़ा है। जबकि विज्ञान और अस्था के बीच द्वंद्व के वनिस्बत सहकार की भावना होनी चाहिए।

पदार्थ विद्या के विकास का आदिमूल वेद रहे हैं। उनमें ज्ञात सभी धातुओं का वर्णन है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंदर्भवेद का विकास वैदिक संहिताओं के साथ ही हो गया था। नकुल और सहदेव वृक्षायुर्वेद के विशेशज्ञ थे, धनवन्तरी, चरक और सुश्रुत आयुर्वेद के विद्वान थे। सुश्रुत 125 प्रकार के उपकरणों से शल्यक्रिया करते थे। धातु विज्ञान के क्षेत्र में दिल्ली के महरौली में स्थित लोहे की लाट बड़ी उपलब्धि है। 2000 साल से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी इसमें जंग नहीं लगी है। सोने-चांदी के आभूशणों का निर्माण हमारी कलात्मकता का परिचय देते है। मंदिरों में कई प्रकार की घंटियां और धातु निर्मित मूर्तियां भी हमारे धातु विज्ञान संबंधी ज्ञान के प्रामाणिक उदाहरण हैं। गोलकुंडा के किले में द्वारपोल के पास से राजमहल में संदेश भेजने की व्यवस्था है। इस किले का जब निर्माण हुआ था, तब तक बेतार के तार की जानकारी नहीं थी। औरंगबाद-देवगिरी के किले में शत्रु को चकमा देकर सूर्यकांत माणि से परितप्त मार पर भटकाने का प्रबंध था। झालावाड़ जिले में इकताशा-पनवासा के तालाब की बुर्जों में वायु का दबाव बनाकर पानी निकालने की विधि अपनाई गई थी। इस तरीके से पानी को प्रवाहित करके सिंचाई भी की जाती थी। बुरहानपुर में धरती के नीचे बनी सुरंगों में पानी का दबाव बनाकर नगर में जल की आपूर्ति की जाती थी। पानी संग्रह के लिए विशेश प्रकार कि जलकुंडिया भी बनाई गई थी। कालगणना हमारे यहां बहुत पहले शुरू हो गई थी। विक्रम संवत्सर से कालगणना की तामी थी।

यह जानकर आष्चर्य होता है कि हड़प्पा सभ्यता की खुदाई में हाथी-दांत से निर्मित स्केल मिले है। इनकी सटीकता आज के स्केल के समान ही है। ऐसे ही कुछ स्केल दक्षिण भारत में भी मिले है। 476 ईंसवी में कुसुमपुर के खगोलशास्त्री व गणितज्ञ आर्यभट्ट ने सूर्य एवं चंद्र ग्रहण की वैज्ञानिक स्थिति का आकलन किया। धरती अपनी धुरी पर धूमकर सूर्य की परिक्रमा करती है इस सिद्धांत को पहले नहल आर्यभट्ट ने ही प्रतिपादित किया था। आर्यभट्ट ने ही शून्य का आविष्कार किया था। इससे पूरी दुनिया में गिनती करने में सरलता हुई। बड़ी संख्याओं के जोड़-बांकी एवं गुणा-भाग संभव हुए। महान वैज्ञानिक कणाद ने आणविक सिद्धांत को प्रतिपादित किया। ज्ञातव्य है पश्चिमी जगत से वर्शों पूर्व ही कणाद ने अणु की अवधारणा विज्ञान को दे दी थी। 499 ईंसवी में कपित्य (उज्जैन) के खगोनविद व गण्तिज्ञ वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ ‘पंचसिंद्धांतिका‘ बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर होता है। इन्होंने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय सूत्रों को परिभाशित किया। 1000 ईंसवीं में काशी के हलायुध वैज्ञानिक ने अभिधानरत्नमाला एवं मृत- संजीवनी नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें पारकल त्रिभुज (मेरु-प्रस्तार) का स्पश्ट वर्णन मिलता है।

20वीं सदी में महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने रेडियो तरंगों पर गंभीर शोध किया था। उन्होंने ही पौधों में जीवन की खोज की थी। वैज्ञानिक चंद्रषेखर ने कृष्ण विवर (बलैक हाॅल) के सिद्धांत को गणितय आधार पर सुलझाया। सीवी रमन ने प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्क्रिष्ण कार्य किया। इस हेतु उन्हें 1930 में भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका यह आविष्कार ‘रमन प्रभान‘ के नाम से जाना जाता है। होती जाहंगीर भाभा ने भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का स्वप्न देखा। नाभीकीय ऊर्जा से विद्युत उत्पादन की कल्पना को साकार करके दिखाया। हरगोविंद खुराना ने ऐमिनो अमलों की सरंचना तथा अनुवंशकीय गुणों के संबंधों की खोज की। इसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उनकी खोज का अनुवांशिक रोगों के कारण व निदान में उल्लेखनीय योगदान रहा है। एपीजे कलाम ने रक्षा और अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में देश के लिए अहम् योगदान दिया। बैलेस्टिक मिसाइल के निर्माण और प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी के भारत में जनक कलाम ही रहे हैं। उनकी इस परंपरा को अब आगे महिला वैज्ञानिक टीसी थाॅमस बढ़ा रही है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डाॅ एसडी बिजू द्वारा कर्नाटक और केरल के पश्चिमी घाटों में मेंढकों की सात नई प्रजातियां खोज निकालीं हैं। ये मेंढक किसी कीड़े के समान है। आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिक डाॅ केदार खड़े ने ऐसा सूक्ष्मदर्शी यंत्र तैयार किया है, जिसकी मदद से मनुष्य की एक कोशिका को थ्री-डायमेशन में देखा जा सकता है। भविष्य में इस यंत्र से कैंसर का रोग पहचानने में आसानी होगी।

इन सब उपलब्धियों के बावजूद हमें विज्ञान के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना है। यदि हम आने वाली पीढ़ियों को विज्ञान के प्रति जागरूक बनाना है और बेहतार वैज्ञानिकों की नस्ल सामने लानी है तो हमें मौजूदा र्कई िस्थतियों में बदलाव लाने होंगे। सबसे पहले तो यदि किसी विद्यार्थी में विज्ञान संबंधी चेतना और जिज्ञासा है तो उसे प्रोत्साहित करना होगा। तत्पष्चात उसे आविष्कार का परिवेश देना होगा। दुर्भाग्य से आज हमारे यहां ऐसा माहौल महाविद्यालय तो क्या विश्व विद्यालय स्तर पर भी नहीं है। शिक्षा का निजीकरण तो लगभग पूरे देश में हो गया है। बावजूद हमारी विज्ञान संस्थाएं नए अनुसंधनों के लिए सरकारी आबंटन पर ही आंख टिकाए रहती है। जबकि यह काम निजी विवि अब अपने स्तर पर भी कर सकते है। निजी कंपनियां भी नई खोजों में गति लाने के लिए नवोन्वेशी वैज्ञानिकों को धन देने लग जाए तो नवाचारों की जिज्ञासाएं फलीभूत हो सकती है। हमारे देश के अनेक वैज्ञानिक औैर इंजीनियर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इनमें से कई निजी संस्थान हैं। जबकि हमारे यहां ऐसे अवसर निजी संस्थान नहीं दे रहे है। इसरो की तरह यदि डीआरडीओ और विवि अपने आविष्कारों का व्यावसायिक दोहन करने लग जाएं तो नए वैज्ञानिकों को प्रयोग की पुख्ता आधारभूमि मिलना शुरू हो जाएगी। साथ ही शोध को बढ़ावा देने की दृष्टि से यदि वैज्ञानिकों को अपने आविष्कारों को सीधे बाजार में उतारने की अनुमति मिलने लग जाए तो भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हो सकती है। हमारे देश में ऐसे भी कई आविष्कारक सामने आए हैं, जिनका आकादमिक ज्ञान शून्य है। बावजूद उनके प्रयोग कसौटी पर खरे उतरे है। इन वैज्ञानिकों को भी अपने उपकरण बाजार में उतारने की अनुमति मिलनी चाहिए। ऐसे प्रयोगों से ही देश विज्ञान के क्षेत्र में दिन दूनी, रात चौगनी प्रगति करने में सक्षम हो सकेगा।

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