समस्या को सुलझाने के बजाय उलझाने के प्रयास / आशुतोष

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 आशुतोष भटनागर

जम्मू-कश्मीर के विषय में सामान्य सी जानकारी रखने वाले लोग भी यह समझते हैं पिछले 65 वर्षों में इस समस्या को सुलझाने के बजाय उलझाने के ज्यादा प्रयास हुए हैं। राज्य के राजनेताओं और नौकरशाहों ने इन उलझनों में ही अपने निजी हित तलाश लिये हैं और अब उनकी प्राथमिकता इस समस्या को कभी न सुलझने देने की है। केन्द्र में अधिकांश समय सत्तारूढ़ रही कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता में भागीदार रही, आज भी है। वह उन फैसलों में भी शामिल है जिनके कारण समस्या उलझी है और उसके स्थानीय नेतृत्व के भी हित इस उलझाव से पोषित होते हैं।भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 13 अक्तूबर 2010 को जम्मू-कश्मीर की समस्या का समाधान खोजने के लिये तीन सदस्यीय वार्ताकार दल का गठन किया। दल में जिस प्रकार गैर-राजनैतिक लोगों का चयन किया गया उससे लोगों को लगा कि सरकार वास्तव में किसी ठोस पहल की इच्छुक है। दो शिक्षाविदों के साथ दिलीप पड़गांवकर जैसे वरिष्ठ पत्रकार से शोधपूर्ण, पूर्वाग्रहविहीन और वास्तविक समाधान की ओर ले जाने वाले सुझावों की उम्मीद थी।

12 अक्तूबर 2011 को वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी। सात माह तक उसे दबाये रखने के बाद 24 मई 2012 को मंत्रालय ने इसे सार्वजनिक कर दिया। प्रथम दृष्ट्या ही यह प्रतिवेदन निराशाजनक ही नहीं, आपत्तिपूर्ण भी था। सवाल केवल यह नहीं कि यह सुझाव किसी समाधान तक नहीं पहुंचते अपितु समस्या को और अधिक उलझाने का माद्दा रखते हैं।

वार्ताकार स्वयं स्वीकार करते हैं कि वे कोई नयी बात नहीं कह रहे, किन्तु वे वह बात कह रहे हैं जो अभी तक अलगाववादी कहा करते थे। एक प्रकार से इस रिपोर्ट के माध्यम से पृथकतावादी मांगों को आधिकारिक रूप देने का प्रयत्न किया गया है। यह प्रयास इस दल की मंशा पर भी सवाल खड़े करता है।

आजादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर समस्याग्रस्त राज्य रहा है और इसके हल के लिये समय-समय पर तमाम कमेटियां और कमीशन बनाये जाते रहे हैं। प्रायः सभी में शामिल लोग दिल्ली से एक निश्चित दृष्टि और पूर्वाग्रह के साथ जाते थे और श्रीनगर में कुछ दिन रुक कर, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के कुछ गिने-चुने चेहरों से मिल कर वापस लौट आते थे। हुर्रियत से भी मिलने की प्रार्थना करते थे, कभी-कभी उनमें से किसी से मिलने में कामयाब भी हो जाते थे। सरकारी खर्च पर बहुत सी कमेटियों और कमीशनों को आते और पत्नी-बच्चों के लिये गिफ्ट ले जाते श्रीनगर ने देखा है। पर इस बार वार्ताकरों का दल कुछ अलग था। अलग इस मायने में कि उसमें शामिल तीनों सदस्य- वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पड़गांवकर, पूर्व सूचना आयुक्त एम एम अंसारी तथा शिक्षाविद राधा कुमार अपने-अपने क्षेत्र में साख रखते थे।

दल ने एक वर्ष तक राज्य के विभिन्न जिलों में जाकर लगभग सात सौ प्रतिनिधिमंडलों से भेंट की तथा उनकी मांगों को ध्यान से सुना। वास्तव में यह अभूतपूर्व था। उनकी यह पहल नागरिकों के मन में विश्वास जगाने में कामयाब रही। लेकिन राजनैतिक प्रेक्षकों का एक वर्ग प्रारंभ से ही इस पर संदेह व्यक्त कर रहा था। अपने अनुभव के आधार पर उनका मानना था कि इस बार भी नतीजा ‘ढ़ाक के तीन पात’ ही रहेगा। जब तीन में से दो वार्ताकारों के आई एस आई एजेंट डॉ गुलाम मुहम्मद फई के निमंत्रण पर भारत विरोधी गोष्ठी में भाग लेने का खुलासा हुआ तो उनकी आशंकाओं को बल मिला। इसके बाद वार्ताकारों में आपस में ही कलह शुरू हो गयी।

यह विडंबना ही है कि राज्य ही नहीं, दिल्ली के राजनैतिक समीकरण भी गत छः दशकों से अधिक समय में जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी तथा भारत विरोधी तत्वों को ही प्रोत्साहन देते रहे हैं। विपरीत परिस्थितियों में रह कर भी भारतीय हितों की बात करने वाले लोग कश्मीर में तो आतंकियों के निशाने पर रहे ही, सरकारों ने भी उन्हें उपेक्षित ही किया। अधूरी और अपुष्ट सूचनाओं के सुनियोजित प्रसार द्वारा भ्रम का एक वातावरण निर्माण किया गया। भ्रम उत्पन्न करने के इस निरंतर अभियान के चलते न केवल आम आदमी के, अपितु देश के बुद्धिजीवी वर्ग के मन में भी कश्मीर के भारत के साथ एकीकरण को लेकर संशय उत्पन्न हो गया। वार्ताकारों की रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है।

केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर पर नियुक्त वार्ताकार दल द्वारा दी गयी रिपोर्ट विभिन्न वर्गों के 700 प्रतिनिधिमण्डलों से भेंट, तीन गोलमेज सम्मेलनों तथा राज्य के सभी 22 जिलों में बड़ी संख्या में लोगों से मिलने से उभरी राय को नहीं व्यक्त करती। वस्तुतः यह हितग्राहियों (स्टेक होल्डर) तथा नागरिकों की सर्वसम्मति के नाम पर केन्द्र व राज्य सरकार की मांग पर तैयार की गयी मनचाही रिपोर्ट है। यह मुठ्ठी भर लोगों के सामने भारत की भ्रमित और घुटनाटेक नीति के कारण उत्पन्न अलगाववाद को संबोधित करती है। इस नीति का आधार वे मिथ्या धारणाएं रही हैं जिन्हें गत 64 वर्षों से उन्होंने पाला है।

जिन प्रतिनिधिमण्डलों ने वार्ताकार दल से भेंट की उन्होंने अपनी मांगों को मीडिया के माध्यम से भी सार्वजनिक किया। राज्य के प्रवास के दौरान दल के सामने उठाये जाने वाले मुद्दों की चर्चा वहां की मीडिया में होती रही। इसी प्रकार, दिल्ली में भी विज्ञान भवन स्थित उनके कार्यालय में अनेक प्रतिनिधिमण्डलों ने अपना पक्ष उनके समक्ष रखा। रिपोर्ट देखने के बाद वे सभी लोग अचम्भित थे कि उनका पक्ष वार्ताकारों की रिपोर्ट में स्थान न पा सका।

गृह मंत्रालय द्वारा रिपोर्ट का स्वागत करते हुए कहा गया कि सरकार इस पर बहस चाहती है। जबकि कुछ ही दिन पहले संसद का सत्र समाप्त हुआ है, यदि सरकार सच-मुच इस पर बहस चाहती तो इसे संसद में प्रस्तुत कर सकती थी। मंत्रालय द्वारा रिपोर्ट को सार्वजनिक करते समय कहा गया कि इस रिपोर्ट में व्य क्त किये गए विचार वार्ताकारों के हैं। सरकार ने रिपोर्ट पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है । सरकार रिपोर्ट की विषय वस्तुि पर एक सुविज्ञ बहस का स्वातगत करेगी। यह अजीब बात है कि जिस रिपोर्ट को सरकार अपना न मान कर उसे वार्ताकारों का विचार मान रही है उस पर देश बहस करे। आखिर क्यों। यदि यह किन्हीं तीन ऐसे लोगों का फितूर है, जिनका कश्मीर से कोई संबंध नहीं है, सरकार जिससे सहमत नहीं है, देश उस पर सुविज्ञ बहस करे, सरकार की यह अपेक्षा अपने-आप में विचित्र है।

प्रायः सभी पक्षों ने रपट में की गयी सिफारिशों को सिरे से खारिज किया है। एक वर्ष का समय और 50 करोड़ रुपये खर्च कर तैयार इस पुलिंदे का कोई व्यावहारिक मूल्य नहीं है। ज्यादातर सिफारिशें लागू करना प्रायः असंभव है वहीं अनेक सिफारिशें ऐसी हैं जिन्हें लागू करने के लिये न केवल अलगाववादियों को बल्कि पाकिस्तान और चीन को भी वार्ता के लिये राजी करना होगा। जमीनी हकीकत को समझने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें शेखचिल्ली की कहानियों के आधुनिक पाठ का ही दर्जा देगा।

लेकिन बात इतने से ही नहीं समाप्त होती है। रिपोर्ट की सिफारिशों से वार्ताकारों की मंशा भी जाहिर होती है और उन पर सरकार की मूक सहमति भी। पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि सरकार ऊपर से ऐसी रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डालने का दिखावा करती है लेकिन अंदर-अंदर इसे लागू करने के लिये खामोश चालें चलती है। अगर सरकार का मंसूबा इस रिपोर्ट के साथ भी ऐसा ही कुछ है तो उसे समझ लेना चाहिये कि वह आग से खेल रही है। स्वायत्तता और सेल्फरूल की मांग को इस रिपोर्ट ने जिस दूरी तक पहुंचाया है, अगर उसे लागू करने की कोशिश की गयी तो यह देश की संप्रभुता के साथ विश्वासघात से कम नहीं होगा।

(लेखक जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र, दिल्ली के सचिव भी हैं)

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