बह चली चुनावी बयार, दिखने लगे सपनों में सत्ता के आसार, शुरू हो गई वायदों की बौछार लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि क्या वास्तव में होगा सपना साकार…? यह एक बड़ा सवाल है। क्योंकि, देश की जनता जिस प्रकार से अबतक ठगी गई है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। सत्य यह कि जब भी देश अथवा प्रदेश में चुनाव का मौसम आता है तो प्रत्येक प्रकार के उपयोग आरम्भ हो जाते हैं तरह-तरह की लुभाऊ घोषणाएं होने लगती हैं। मतदाता अपनी खुली हुई आँखों से दिन के उजाले में सपनों को साकार होने की एक किरण देखने लगता है लेकिन सत्य यह नहीं है। अपितु सत्य यह है कि जो भी सपने मतदाताओं ने देखें वह वास्तव में सपने ही थे। क्योंकि सपनों का कोई भी आधार नहीं होता। क्योंकि सपने मात्र सपने ही होते हैं उनका वास्तविकता से किसी भी प्रकार का कोई संबन्ध एवं लेना देना नहीं होता। देश की आजादी से लेकर अब तक के किसी भी राजनीतिक पार्टी के चुनावी भाषणों को पुनः सुन लीजिए उसके बाद धरातल पर उस घोषणा की वास्तविकता का आंकलन करिए कि क्या चुनावी घोषणाएं वास्तव में पूर्ण रूप से स्थापित की गईँ अथवा चुनावी बयार की हवाओँ में बह गईं। क्योंकि, चुनावी वायदों से लेकर घोषणा पत्रों को यदि उठाकर देख लीजिए तो सब कुछ स्वयं ही समझ आ जाएगा जिसको परिभाषित करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी पूरी स्थिति बिलकुल साफ एवं स्पष्ट हो जाएगी। आज देश की जनता का दृश्य बद से बदतर होता चला जा रहा है। आर्थिक स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है गरीब और मध्यम वर्गीय परिवार भुखमरी के कगार पर खड़ा हुआ है। किसानों की स्थिति और भी चिंताजनक है कर्ज की बोझ में दबा हुआ किसान फाँसी के फंदे पर झूलता हुआ दिखाई दे रहा है। जीवन संकट में है। स्थिति विकराल है युवाओं हेतु रोजगार के नए अवसर स्थापित नहीं किए जा रहे। पुराने रोजगार के ढ़ांचों को भी बंद किया जा रहा है। बहुत ही विकट स्थिति है। जबकि नेतागण लगातार चुनावी मौसम में अनेकों प्रकार के वायदे करते आए हैं लेकिन क्या वायदों को पूरा भी किया जा रहा है…? यह बड़ा सवाल है।
सच यह है कि एक के बाद दूसरे वायदे होते चले गए वायदों की लम्बी चौड़ी सूची बन गई। सभी चुनावी वायदों एक के ऊपर एक लाद दिया गया। परन्तु समस्या जस की तस हैं। देश का युवा दो जून की रोटी के लिए दर-दर भटकने पर मजबूर है। दो जून की रोटी का ठोस कोई भी प्रबन्ध नहीं है। दो जून की रोटी का मुद्दा इस समय युवाओं के लिए एक बड़ा मुद्दा है। इसलिए नेताओं की नजरें भी इकठ्ठे जनाधार पर जाकर टिक गईं हैं क्योंकि देश की मतदाता आबादी में युवाओं का बहुत बड़ा जनाधार है जिसको देखते हुए नेताओं ने अपने सुर भी बदल लिए। जातिवाद एवं फूटवाद तथा सेक्युलरवाद की दुहाई देने वाली सियासी पार्टियों ने इस बार अपने सुर बदलते हुए नौकरी और रोजगार को अपना चुनावी मुद्दा बना दिया। यह अलग बात है कि किसी पार्टी ने पहले घोषणा की तो किस पार्टी ने बाद में घोषणा की। आज रोजगार और नौकरी को अपने-अपने ढ़ंग से परिभाषित भी किया जा रहा है। रोजगार और नौकरी देने की क्षमताएं एवं सीमाएं भी बताई जा रही हैं। सभी सियासी पार्टी अपनी-अपनी चुनावी गणित के अनुसार नौकरी के शब्द को बखूबी परिभाषित भी कर रही हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि क्या यह मुद्दा भी प्रत्येक मुद्दो की भाँति ही विलीन हो जाएगा अथवा यह मुद्दा कहीं कोने में सिसकता एवं हाँफता हुआ साँसे फुलाता रहेगा…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि अबतक के अधिकतर वायदों की तो अर्थी निकल चुकी है। कोई भी वायदा जीवित ही नहीं बचा। अबतक के किसी भी वायदे ने पूरी जिम्मेदारी एवं ईमानदारी के साथ धरातल पर अपने पैर भी नहीं पसारे और परलोक सिधार गया। तो क्या इस बार का यह चुनावी वायदा भी चंद दिनों का ही मेहमान है और चुनाव के समाप्त होने के बाद यह भी परलोक सिधार जाएगा। यह बड़ा सवाल है। क्योंकि, बिहार में इस बार हो रहे विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने नौकरियों की बारिश कर दी है। अगर सच में राजनीतिक दल इतनी नौकरियां उपलब्ध करा दें तो बिहार में पलायन की समस्या ही दूर हो जाए। वैसे सबसे मजेदार बात है कि पिछले तीस साल से बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, जनता दल युनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी ही सत्ता में रही है लेकिन आज भी यहां के युवाओं को शिक्षा या नौकरी के लिए अन्य राज्यों में पलायन करना पड़ता है। इस चुनाव में यही राजनीतिक दल अपने-अपने सियासी मंचो से नौकरी और रोजगार की झड़ी लगाकर युवाओं को आकर्षित करने में जी जान से जुटे हुए हैं हालांकि इस दौरान सभी राजनीतिक दल खुद की कमीज दूसरों से सफेद बताने में भी ज्यादा लगे हुए हैं। आरजेडी और कांग्रेस ने जहां बिहार में दस लाख युवाओं को नौकरी देने का वादा किया है वहीं भाजपा ने उन्नीस लाख युवाओं को रोजगार देने का वादा किया है। भाजपा का कहना है कि हम एक हजार नए किसान उत्पाद संघों को आपस में जोड़कर राज्यभर के विशेष सफल उत्पाद जैसे- मक्का, फल, सब्जी, चूड़ा, मखाना, पान, मशाला, शहद, मेंथा, औषधीय पौधों के लिए सप्लाई चेन विकसित करेंगे जिससे दस लाख रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। इसके अलावा स्वास्थ और शिक्षा क्षेत्रों में भी रोजगार देने का वादा किया गया है। काग्रेंस ने दस लाख युवाओं को रोजगार और जिन लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा उन्हें पंद्रह सौ रुपए मासिक बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया गया है। इधर जेडीयू ने भी कौशल विकास को आधार बनाया और लोगों को रोजगार देने का वादा शुरू कर दिया। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने पार्टी का घोषणा पत्र जारी करते हुए संकल्प लिया कि उनकी सरकार बनते ही पहली कैबिनेट में युवाओं को दस लाख रोजगार देने पर मुहर लगेगी इस मामले को वह सभी चुनावी सभाओं में जिक्र भी कर रहे हैं। जिस पर वार पलटवार भी शुरू है। तेजस्वी के रोजगार देने के वायदे को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने सवाल उठाए कि आखिर इतना पैसा कहां से आएगा सुशील मोदी ने कहा यदि वास्तव में दस लाख लोगों को सरकारी नौकरी दी जाए तो राज्य के खजाने पर भारी-भरकम अतिरिक्त बोझ पड़ेगा जिसका पैसा कहाँ से आएगा। इसके अलावा पूर्व से कार्यरत 12 लाख से ज्यादा कर्मियों के वेतन मद में होने वाले खर्च जोड़ लें तो यह राशि बहुत ही भारी हो जाती है। इस राशि की पूर्ति कैसे होगी।
लेकिन कुछ भी हो यदि इस ओर राजनेताओं ध्यान गया है तो उसे ही अमृत समझ लीजिए क्योंकि जाति एवं धर्म के इर्द परिकरमा करने वाली सियासत ने इस बार अपने मूल चेहरे में बदलाव किया है। जिसका आधार नौकरी एवं रोजगार है। यदि वास्तव में इस मुद्दे पर अगर कार्य हो जाए तो देश की स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलेगा क्योंकि दो जून की रोटी आज के समय में सबसे बड़ा संकट है जिससे निपटने की आवश्यकता है। यदि देश की राजनीति आर्थिक स्तर पर मजबूत होने के लिए कार्य करती है तो यह देश के स्वास्थ के लिए अच्छी खबर है। कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। यदि आज भी देश की राजनीति आर्थिक सशक्तिकरण की ओर जाग जाती है तो देश के भविष्य के लिए बहुत ही अच्छा होगा जिससे की देश मजबूत एवं प्रबल होगा। परन्तु होगा क्या यह तो समय ही बताएगा क्योंकि यह तो चुनावी समय है। लेकिन देश के लिए आर्थिक मुद्दे पर कार्य करना बहुत ही आवश्यक है जोकि देश की रीढ़ की हड्डी है जिसे मजबूत करने की बहुत ही जरूरत है।