आपातकाल के समय उत्तराखण्ड में पत्रकारिता

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राकेश

”भाईयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है….“ 26 जून 1975 की प्रातः 8 बजे आकाशवाणी से इन्हीं शब्दों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने लोकतंत्र के महाभारत में नवीन पर्व का प्रारम्भ किया। आचार्य विनोवा भावे ने इसे ‘अनुशासन पर्व’ का नाम दिया। सरकार के दबाव में     25 जून 1975 की रात्रि को ही राष्ट्रपति फकरूद्दीन अली ने अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्र को आपातकाल की अंधेरी गुफा की ओर अग्रसर कर दिया। इस गुफा का दूसरा छोर कहाँ होगा’, होगा भी या नहीं, वह काल के पाश में कैद था। 1971 के चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से सत्ता में आई इन्दिरा गांधी ने देश को आपातकाल के बन्धनों में बांध करके जेलखाना बना दिया। देश में सम्पूर्ण क्रांति का सपना लेकर चल रहे जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में लाखों देशभक्तों को, लोकतंत्र प्रेमियों को जेलों में बन्द कर दिया। 5 जुलाई 1975 को संघ सहित कई संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। समाचार पत्रों, खबरों पर प्रतिबन्ध व सम्पादकीय खाली छोड़े जाने लगे। कोई स्वतंत्र समाचार देश का प्राप्त नहीं होता था। आपसी संवाद भी सरकार के विरूद्ध नहीं कर सकते थे। रेडियो वही बोलता जो सरकार बोलती थीं। नागरिक अधिकारों का हनन किया गया न्याय पालिका की स्वतंत्रता छीन ली गयी।

लेखनी विचारों का माध्यम है। सरकार ने लेखनी पर अंकुश लगाना चाहा, तो नई प्रकार की पत्रकारिता का जन्म हुआ- भूमिगत पत्रकारिता। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में रेडियो के अतिरिक्त तो कुछ था नहीं अतः प्रिंट मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गई सेंसर अधिकारी नियुक्त किये गये। समाचार पत्रों को अपनी खबरें सेंसर बोर्ड के समक्ष देनी होती थी। सरकार तय करती थी कि कौन सी खबर छापी जाय व कौन सी नहीं। जहां विरोध का स्वर उठता उसका दमन कर दिया जाता।

आपातकाल के समय उत्तराखण्ड अविभाज्य उत्तर प्रदेश का ही अंग था। सरकार के अत्याचारों से उत्तराखण्ड भी अछूता न था। कहीं भय का माहौल था तो कहीं विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी। स्थानीय स्तर पर भी जनसंघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ता व आपातकाल विरोधी विचारों के पत्रकारों को बन्दी बना लिया गया था। कई कार्यकर्ता, पत्रकार भूमिगत हो गये। सरकार के इन कुकृत्यों से आम जन मानुष अनभिज्ञ न रहे अतः कार्यकर्ताओं ने भूमिगत पत्रकारिता का मार्ग अपनाया। स्थान-स्थान से समाचारों का संकलन किया जाता। चिंगारी, हिमवीर, लोकप्रहरी, अंगारा, क्रांतिदूत, बारूद… आदि नामों से समाचार पत्र,पत्रिकायें छापी जाती, बुलेटिन प्रसारित किये जाते, रात में दीवारों में पोस्टर चिपकाये जाते। स्थानीय रुप में उन दिनों देहरादून से साप्ताहिक देहरा पत्रिका का प्रकाशन स्वर्गीय टेकचंद गुप्ता करते थे । आपात काल के धुर विरोधी पत्रकार के साथ साथ वे बहुत अच्छे कवि भी थे। उन्होने लोकनायक जय प्रकाश नारायण पर प्रसिद्ध कविता लिखी थी- ……वचन निभाने कोई तो आता है…’ उनकी भी गिरफ्तारी हुई और पीछे उनकी प्रेस के सारे लेड मुद्रण केस सहारनपुर चौक के नाले में फेंक दिये गये । यह गुप्ता जी के लिये इतना भारी आर्थिक धक्का साबित हुआ कि वे उससे अपनी अंतिम सांस तक नही उबर पाये । उनकी पत्रिका भी उसके बाद अनियमित हो गई।

संघ के वरिष्ठ प्रचारक धर्मवीर सिंह उस समय गढ़वाल में जिला प्रचारक थे। आपातकाल घोषित होते ही वे भूमिगत हो गये। गढवाल टाईम्स नाम से  पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित करते थे। वे बताते हैं कि ठभ्म्स् रानीपुर हरिद्वार में अस्सिटैंट इंजीनियर ए.के.सूरी के घर बैठक होती थी, समाचारों का संकलन किया जाता था। उनमें छपने लायक समाचार तय किये जाते कहां कितने लोग पकड़े गये, संघ, जनसंघ व अन्य कितने लोगों ने सत्याग्रह किया, क्या-क्या अत्याचार हुये। ए.के.सूरी अपने आॅफिस से साइक्लोस्टाइल मशीन मंगाकर घर पर ही पत्रिका छापते। एक-एक प्रति डाक द्वारा जिलाधिकारी, एस.पी. एवं शासन के लिये भेजी जाती, शेष थैले में भरकर क्षेत्र में अपने कार्यकर्ताओं को वितरित कर दी जाती। कार्यकर्ताओं द्वारा समाज में विचार प्रेषित किये जाते।

वर्तमान में रा0 स्व0 सं0 के सह प्रान्त संघचालक सरदार गजेन्द्र सिंह उस समय कुमाऊं विभाग में तहसील प्रचारक थे। समाचारों का आदान-प्रदान कर समाज को सूचित करते रहने का जो कार्य उन्हे मिला था उसे ईश्वर प्रदत्त मानते हैं। देशभर से प्राप्त भूमिगत समाचारों को लेकर तथा स्थानीय समाचार जोड़कर पत्रक निकालने की जिम्मेदारी तथा विभाग में भिजवाने की जिम्मेदारी उन पर थी। उनकी मोटरसाइकिल के पीछे एक साइक्लोस्टाइल मशीन बंधी रहती थी। कुछ स्टेंसिल व सादे पेपर रहते थे। उन छपे पेपरों को वितरण के लिये सायं शाखा की टोली सक्रिय रहती थी उन पर किसी को शक करने का कोई कारण ही नहीं था।

63 वर्षीय दून दर्पण के मुख्य संवादाता रवीन्द्रनाथ कौशिक अपनी स्मृति में आपातकाल की उन अंधेरी रातों को याद करते हुये बताते हैं –  “यह आपातकाल विरोधी आंदोलन से निकटता ही थी कि मैने उन दिनों महत्वपूर्ण माने जाने वाले वीर अर्जुन में अपने पेन नेम अग्निनायक’ के नाम से आपात काल के विरोध में लेख लिखे। उसी वर्ष आर्यसमाज का अंतर्राष्ट्रीय शताब्दी समारोह दिल्ली में आयोजित हुआ था । सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वर्गीय रामगोपाल शालवाले इंदिरा गांधी के नजदीकी थे । स्वामी अग्निवेश और स्वामी इंद्रवेश आदि के उकसावे में हम आर्यवीर दल के स्वयंसेवक शोभायात्रा का हिस्सा बनकर इंदिरा जी के आवास में जा घुसे थे और वहां जम कर नारे लगाये थे । उन दिनों सुरक्षा आज जैसी कडी नही थी । वहां पुलिस की एक टुकडी थी जिसने हमें शाम तक थाने में बंद कर छोड दिया था । “

लेाकतंत्र के ऐसे ही कई वीर सेनानियों की गाथा अवर्णनीय है जिन्होने लेखनी के बल से विरोध के स्वरो कों धार दीं। परिस्थितियां चाहे जैसी भी रही आपात काल के विरुद्ध प्रचार सामग्री का वितरण सुचारु रुप से जारी रखा। भूमिगत पत्रकारिता का आन्दोलन ही था कि  18 जनवरी 1977 को लोकसभा भंग की गई एवं 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाया गया ।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की इन पंक्तियों के बिना आपातकाल की गाथा अधूरी है।25 जून 1975 सायं रामलीला मैदान नई दिल्ली में मंच से जननेता जयप्रकाश नारायण ने इन्हे गाया था। जिससे उठे जनसैलाब ने 1977 के आम चुनाव में इन्दिरा सरकार को ध्वस्त कर स्पष्ट संदेश दिया की देश ने नई राह चुन ली है।

सर्दियों की ठंडी, बुझी राख सुगबुगा उठी

मिटटी सोने का ताज पहने इठलाती है

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

 

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