सिर्फ ३००करोड़ की सहायता पर टिकी बोड़ोलैंड स्वायत्तशासी परिषद

0
245

बोड़ो समुदाय की यथावत समस्याएं:

-अनिल अनूप
क्या अगले कुछ दिनों में बोडो आदिवासियों के जमीन से अवैध कब्जे हट जायेंगे? क्या बोडो आदिवासियों की शिकायतें दूर हो गई हैं या हो जाने वाली हैं? क्या भारत–बांग्लादेश सीमा पर घुसपैठ रोकने की उचित व्यवस्था कर दी गई है? स्पष्ट है कि ऐसा कुछ न हुआ है और न होने जा रहा है। समस्या बनी हुई है और केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक की इच्छा अधिक से अधिक दंगापूर्व की स्थिति को कायम करने की है। इस क्षेत्र में अविश्वास और घृणा की खाई अत्यधिक बड़ी हो चुकी है।
इन परिस्थितयों में बोडोलैंड फिर कब जल उठे, कब उसकी आग असम के दूसरे क्षेत्रों तथा पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में फ़ैल जाये, कब अलगाववादी संगठन इस अवसर का उपयोग भारत विरोधी भावनाओं को भडकाने के लिए करें, इसका क्या भरोसा?
दिल्ली, मुंबई में बैठे लोगों को ऐसा लगता है कि बांग्लादेश के अवैध घुसपैठ का अर्थ सस्ते मजदूरों की उपलब्धता, छोटे अपराधों की संख्या में वृद्धि और अवैध झोपड़पट्टियों की संख्या में वृद्धि भर है। लेकिन बेरोजगारी, गरीबी, बुनियादी सुविधाओं की कमी और जनसँख्या के ऊँचे घनत्व के दबाव से जूझ रहे असम और पश्चिम बंगाल में इसका अर्थ जीवित रहने BorB
के सिमित मौकों में भी सेंधमारी है।
वैसे तो मुस्लिम संगठनों की मांग है कि बोडो स्वायत्तपरिषद के प्रावधान को ही खत्म किया जाये। लेकिन वे उन जिलों को तो बोडोलैंड से बाहर रखने के लिए कृतसंकल्प हैं जो अब बोडो बहुल नहीं रहे। प्रथमदृष्टया यह उचित मांग लगती है लेकिन सोचिए कि अवैध घुसपैठ से पहले जनसांख्यिकी संतुलन को बदल दिया जाये और फिर उसी को आधार बनाकर बोडोलैंड को लगातार छोटा करते रहें तो चार जिलों वाले इस स्वायत्तपरिषद को समाप्त होने में भला कितना समय लगेगा? बोडो संस्कृति का क्या होगा? कैसे बचेगी उनकी भाषा? क्या अपने ही देश में वे शरणार्थी बनकर रहेंगे?
असम में हिंसा का बांगलादेशी घुसपैठियों की बहुलता से कोई संबंध नहीं है जबकि वास्तविकता यह है कि घुसपैठियों की बढ़ती संख्या से राज्य का सामाजिक-आर्थिक ढांचा बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इस तर्क से मुंह मोड़ने वाले भी जानते हैं कि दिल्ली सहित देश के हर छोटे बड़े शहर में घुसपैठ कर चुके बंगलादेशी घुसपैठिये आपराधिक और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं। राज्यों के पुलिस प्रमुखों और खुफियों एजेंसियों की रिपोर्ट भी अनेक बार इसकी पुष्टि कर चुकी है परन्तु अभी तक कोई कारवाई न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। जो लोग अब तक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की बात करते थे और उन्हें यहीं रहने देने की वकालत करते थे; अब वे भी स्वीकार करने लगे हैं कि हालात अच्छे नहीं हैं।
असम अपनी संस्कृति, आध्यात्मिक परंपरा और वीरता के लिए जाना जाता है। यहां के अहोम राजाओं की शक्ति से विदेशी आक्रांता भी घबराते थे। आज वही असम जल रहा है। यहाँ बंगलादेशी घुसपैठिये स्थानीय बोडो आदिवासियों का जीना हराम किये हैं। लाखों लोगों के बेघर होने से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि सरकार साप्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने में बुरी तरह नाकाम रही।
वहाँ हो रहे दंगों में अनेकों कीमती जाने जा चुकी है तो दूसरी ओर मुम्बई में इन दंगों के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान सुनियोजित तरीके से हिंसा का समाचार देश की कानून व्यवस्था ही नहीं प्रभुसत्ता को एक गंभीर चुनौती सरीखा है।
असम की अशांति का कारण सर्वविदित है जहाँ वोट बैंक की राजनीति देशहित पर भारी पड़ रही है। यह साबित करने की हरसंभव चेष्टा की जा रही हैl
असम के गैर सरकारी संगठन, असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू) ने राज्य की मतदाता सूची में अवैध घुसपैठियों के नाम होने के मामले में सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप करने की मांग की है। उन्होंने सरकार को निर्देश देने की मांग करते हुए कहा- 25 मार्च, 1971 के बाद असम में बसे लोगों को बाहरी घोषित करे। इतना ही नहीं, राज्य के विभिन्न संगठनों ने सत्ताधारी दल पर अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया। यह ज्ञातव्य है कि राज्य में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) का 1979 से 1985 तक चला आंदोलन अवैध घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें वापस उनके देश भेजने पर केन्द्रित था। असम आंदोलन के नाम से लोकप्रिय यह संघर्ष राजीव गांधी और छात्र संगठन के बीच 15 अगस्त, 1985 को हुए असम समझौते के बाद समाप्त हो सका था लेकिन उस समझौते को आज तक पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया।
गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने 20 साल पुराने विवादास्पद अवैध प्रवासी पहचान ट्रिव्यूनल अधिनियम (आईएमडीटी) को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त करते हुए इसके नियमों को संविधान की भावना से परे बताया।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि आईएमडीटी अधिनियम अवैध प्रवास की समस्या सुलझाए बिना वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देता है और असम सरकार इसे न्यायोचित बताते हुए इसका समर्थन करती है। इससे पूर्व भी देश की एकाधिक हाई कोर्ट भी बंगलादेशी घुसपैठियों को केवल असम से ही नहीं, बल्कि पूरे देश से निकालने का निर्देश दे चुकी हैं। 1985 के असम समझौते पर अमल में आए इस विशेष कानून (आई.एम.डी.टी एक्ट) की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसके तहत किसी को विदेशी सिद्ध करने की जिम्मेवारी पुलिस पर डाल दी गयी है। जबकि सन् 1946 के विदेशी कानून में यह जिम्मेवारी आरोपित व्यक्ति की होती है। यही नहीं सिर्फ असम के लिए विदेशियों के बारे में पुलिस को रिपोर्ट करने वाला तीन किलोमीटर की सीमा के भीतर रहने वाला व्यक्ति स्थानीय निवासी होना चाहिए। पुलिस में रिपोर्ट करने के लिए उसे 25 रूपये का शुल्क भी अदा करना आवश्यक था और अगर कोई धमकाये तो पुलिस उसे कोई सुरक्षा भी प्रदान नहीं करती थी। नतीजतन ये कानून बांग्लादेशियों की पहचान और निष्कासन में सहायक बनने की बजाय बाधक बन गया।
घुसपैठ का मसला सिर्फ जनजातीय अस्मिता पर संकट ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी एक बड़ा खतरा साबित होता जा रहा है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई अनेक कट्टरपंथी संगठनों की मदद से आतंकवादी फौज खड़ी कर रही है। केंद्र सरकार को इस सबकी पूरी जानकारी हैं लेकिन आईएमडीटी एक्ट के रहते असम में विदेशियों की पहचान या निष्कासन का काम असंभव था। पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा और श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस कानून को निरस्त करने का दावा किया था। वाजपेयी सरकार ने इस बारे में एक विधेयक भी पेश किया था, जिसके अध्ययन का दायित्व श्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व वाली एक संसदीय समिति को सौंपा गया था। लेकिन इसके पहले कि यह समिति अपनी रिपोर्ट सौंपती-संसद भंग हो गयी और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। बाद में मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस कानून को बनाये रखने का फैसला किया गया था।
असम के अधिकांश क्षेत्रों में इन घुसपैठिये के नाम मतदाता सूची में हैं। उनके पास राशनकार्ड हैं, पासपोर्ट हैं, बैंक खाते हैं- नौकरियां हैं और इस सबके लिए संरक्षण देने वाले राजनीतिज्ञ हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री स्व. हितेश्वर सैकिया ने विधानसभा में कहा था कि असम में करीब 40 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिये मौजूद हैं। इस पर तूफान उठ खड़ा हुआ। राज्य के अल्पसंख्यक नेताओं ने सैकिया को धमकी दी कि वे अपना बयान वापस लें, अन्यथा 5 मिनट में सरकार गिरा देंगे। और तब सैकिया ने अपना बयान वापस लेते हुए कहा था कि उन्होंने केन्द्र की रिपोर्ट के आधार पर बयान दिया था जो गलत भी हो सकता है। ताजा विवाद की जड़ में 19 जुलाई, 2012 को ऑल बोडो लैंड माइनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन नामक संगठन के अध्यक्ष मोहिबुल इस्लाम और उसके साथी पर मोटर साइकिल पर सवार दो अनजान युवाओं द्वारा गोली चलाना है। वहां दो मुस्लिम छात्र संगठनों में आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण तनाव चल रहा था और गोलीबारी भी केवल घायल करने के उद्देश्य से घुटने के नीचे की गयी लेकिन बांग्लादेशी गुटों ने इसका आरोप बोडो आदिवासियों पर लगाकर शाम को घर लौट रहे चार बोडो नौजवानों को पकड़कर उन्हें तड़पा -तड़पाकर इस प्रकार मारा कि उनकी टुकड़े -टुकड़े देह पहचान भी बहुत मुश्किल से हुई। इसके बाद ओन्ताईबाड़ी, गोसाईंगांव नामक इलाके में बोडो जनजातीय समाज के अत्यंत प्राचीन और प्रतिष्ठित ब्रह्मा मंदिर को जला दिया गया। इसकी बोडो समाज में स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई।
आश्चर्य की बात यह है कि सरकार को घटना की पूरी जानकारी होने के बावजूद समय पर न सुरक्षा बल भेजे गए और न ही कोई कार्यवाही की गयी। स्थानीय सूत्रों के अनुसार आज असम में आधे विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां घुसपैठिये बहुमत हैं। लूट, हत्या, बोडो लड़कियां भगाकर जबरन धर्मांतरण और बोडो जनजातियों की जमीन पर अतिक्रमण वहां की आम वारदातें मानी जाती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे पर बोडो क्षेत्र है, जहां बोडो स्वायत्तशासी परिषद् र्है, जिससे कोकराझार, बक्सा, चिरांग और उदालगुड़ी जिले हैं। इस परिषद् का मुख्यालय कोकराझार में है। बोडो लोग लगातार बांग्लादेशी घुसपैठियों के हमलों का शिकार होते आए हैं। बोडोलैण्ड स्वायत्तशासी परिषद् को 300 करोड़ रुपये की बजट सहायता मिलती है जबकि समझौते के अनुसार आबादी के अनुपात से उन्हें 1500 करोड़ रुपये की सहायता मिलनी चाहिए। केंद्रीय सहायता के लिए भी बोडो स्वायत्तशासी परिषद को प्रदेश सरकार के माध्यम से केंद्र सरकार को आवेदन भेजना पड़ता है जिसे प्रदेश सरकार जानबूझकर
विलंब से भेजती है और केंद्र में सुनवाई नहीं होती। इसके अलावा बोडो जनजातियों को असम के ही दो इलाकों में मान्यता नहीं दी गयी है। कारबीआंगलोंग तथा नार्थ कछार हिल में बोडो को जनजातीय नहीं माना जाता और न ही असम के मैदानी क्षेत्रों में। ये बांग्लादेशी घुसपैठिये एक व्यापक साजिश के तहत धीरे-धीरे चरणबद्द तरीके से भारत के विभिन्न हिस्सो विशेष कर उत्तर-पूर्व में अपनी तादात बढाते जा रहे है।
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि वोट बैंक व तुष्टीकरण के राजनीति के कारण हमेशा से इस पर परदा डाला जाता रहा है लेकिन असम की वर्तमान स्थिति ने इसका असली चेहरा सबके सामने रख दिया है। दरअसल बांग्लादेशी घुसपैठिए बड़े पैमाने पर असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, नागालैंड, दिल्ली और जम्मू कश्मीर तक लगातार फैलते जा रहे हैं। जिनके कारण जनसंख्या असंतुलन बढ़ा है। सबसे गंभीर स्थिति यह है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का इस्तेमाल आतंक की बेल के रूप में हो रहा है, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और कट्टरपंथियों के निर्देश पर बड़े पैमाने पर हुई बांग्लादेशी घुसपैठ का लक्ष्य भारत की एकता को तोड़ने और भारत के अन्य हिस्सों में आतंकी घटनाओ को अंजाम देने के लिए भी इनका प्रयोग किया जा रहा है जिसके लिए भारत के सामाजिक ढांचे का नुकसान व आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल हो रहा है। सीमा पर तैनात रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार पिछले एक दशक में सीमावर्ती क्षेत्रों में साजिश के तहत बांग्लादेश से सटे क्षेत्रों में कोयला, लकड़ी, जाली नोट, मादक पदार्थ तथा हथियारों की तस्करी की जा रही है। इन क्षेत्रों में अलगाववादी संगठनों को लगातार मजबूत किया जा रहा है। इन देशद्रोही तत्वो से क्षेत्र को मुक्त करना जरूर्री है। अगर अलगाववादी तत्व किसी प्रकार से असम में अपना प्रभुत्व स्थापित कर पाने में सफल हो गए तो उत्तर-पूर्व के राज्यों को भारत से अलग करने के षड़यंत्र तेज हो सकते है।
असम ही तो उत्तर-पर्व को शेष भारत से जोड़ता है। आज की सबसे बड़ी मांग यह है कि सभी राजनैतिक दल देश की एकता से जुड़े इस मुद्दे पर वोट बैंक की राजनीति करने की बजाय गंभीरता से विचार करें कि जिन वोटों के लालच के लिए वे इन तत्वों को बढ़ावा दे रहे हो क्या वे कल उन्हीं के काल का कारण नहीं बनेगें? भारत भूमि को असामाजिक तत्वों का आश्रय स्थल बनाने वालों को समझना होगा कि दुनिया भर के हिन्दुओं की स्वाभाविक पुण्य भूमि को अशान्त बनाना आत्मघाती होगा। आज पाकिस्तान में हिन्दुओं की क्या स्थिति है। वे नरकीय जीवन जीने को विवश हैं लेकिन हम उन्हें शरण देने में पहल करने की बजाय अवैध रूप से घुसपैठ कर हमारी सामाजिक संरचना को बर्बाद करने पर आमादा लोगों को इसलिए बसा ले क्योंकि वे एक खास समुदाय से हैं। देश के शासन को धार्मिक आधार पर भेदभाव और तुष्टीकरण की नीति त्याग संविधान के आधार पर कार्य करना चाहिए। क्या यह आश्चर्य कि बात नहीं कि जो दूसरों को न्यायालय का सम्मान करना सिखाते हैं वे स्वयं देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसलों की अनदेखी करने के दोषी हैं? हमारे ही कुछ साथी जिनमें पूर्व मंत्री भी शामिल हैं बंगलादेशी घुसपैठियों को मानवीय आधार पर भारत में रहने देने की वकालत करते हैं। उन्हें चाहिए कि वे इन घुसपैठियों को वापस बंगलादेश भेज कर उनके माध्यम से बंगलादेश के भारत में विलय का आंदोलन चलवाये। अपनी सफलता के बाद वे पूर्ण रूप से वैध भारतीय बन कर कहीं भी रह सकेंगेl

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here