मीडिया विविधा सार्थक पहल

“काये मेडम जो टूटर का होत ?”

Farmerकीर्ति दीक्षित

 

“काये मेडम  जो टूटर का होतकि ? सुनत हैं इसे पिरधान मंत्री लौ सुन लेत ?” पिछले दिनों बुंदेलखंड के गाँव में कुछ खबरें कवर करने गई हुई थी l किसानों से बात कर ही रही थी कि पीछे से आये इस सवाल ने मेरे ध्यान को उस तरफ खीचा , मैंने उस मजदूर को गे बुलाया और ट्विटर के बारे में बताने कि कोशिश करने लगी . तभी दुसरे किसान ने कहा – “ मैडम हमऊ को टूटीर  बना दो , तो हमे समस्या को समाधान मिल जाये” l ऐसे में इन समस्याओ के बीच इस ग्रामीण भारत में अब कुंठा नामक रोग भी व्याप्त होता दिखाई देने लगा है l

 

आजकल के डिजिटल इंडिया में शायद लोग ठहाका मारकर हंसने लगें लेकिन वास्तविकता यही है l हम भले ही अबकी डिजिटल दुनिया में अपना सारा काम घर बैठे कर लेते हों लेकिन हमारा अन्नदाता दिन प्रतिदिन अक्षमता कि ओर बढ़ रहा है l खेत सूखे पड़े हैं, घरों में ताले पड़े हैं , बच्चे स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं l भवानी कहते हैं – “अब तो भगवान के आँख को पानी भी मर गो बहिन जी, अगर होतो तो ओई से हमे लोगन के खेत गीले हो जाते सरकार तो सुनत नैया, अब कोनौ माई बाप नैया अपनों l”

दूसरी तस्वीर देखिये तो आज की सरकारों में सोशल मीडिया इतना महत्वपूर्ण किरदार निभा रहा है कि जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक महिला चलती ट्रेन में अपने बच्चे के लिए ट्विटर पर रेल मंत्री से दूध की मांग करती है या डॉक्टर की या फिर सुरक्षा मांग करती है , और दूसरे स्टेशन पर उसको सारी  सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाती हैं l

इसी तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ट्वीट पर किसी का जीवन बचा लेती हैं या विदेश में सुरक्षा मुहैया करा देती हैं l तो दूसरी तरफ एक बूढ़े टाइपिस्ट को सोशल मीडिया के दबाव के बाद न्याय मिल जाता है l और हाल ही में तो प्रधानमंत्री एक ट्वीट के जरिये अपने पाकिस्तान जाने कि सूचना देकर पूरी दुनिया को चौंका देते हैं l अब तो स्थिति यहाँ तक है कि सोशल मीडिया के दबाव के आगे लंबित पड़े कानून भी संसद में पास हो जाते हैं l ट्वीट पर रार, ट्वीट पर गलियां, ट्वीट की चर्चाएँ चारों ओर बस ट्वीट ही ट्वीट , ऐसा लगने लगा है मानो अब सारी  राजनीति  ट्वीट पर ही चलने लगी है l

हालाँकि ये अच्छे संकेत हैं , व्यवस्था में एक पारदर्शिता आई है, लोग जागरूक हुए हैं l पूरा देश एक डिजिटल क्रांति कि ओर तेज़ी से बढ़ रहा है l लेकिन इन पहलुओं से इतर जब मेरी नजर भारत की उस ६५ प्रतिशत आबादी कि ओर जाती है जो गाँव में रहती है, सीमित साधनों के सहारे, जिसे ये भी नहीं पता कि सोशल मीडिया नामक ये चिड़िया है कौन ? तब देश दो धड़े में बटा नजर आने लगता है l वो ६५ प्रतिशत जनता आज भी कतारों में खड़े होकर अपने लिए न्याय का इन्तजार करती नजर आती है l ये लोग आज भी अपनी समस्या के समाधान के लिए हाथ जोड़ मिन्नतें करते नजर आते हैं l

आखिर कौन हैं ये लोग, और कैसे बेवकूफ हैं इस डिजिटल होते इंडिया में पेन कॉपी लिए पढ़े लिखे लोगों के पीछे फिरते हैं l किसी को किसी अपने कि आत्महत्या का मुआवजा लेने के लिए फॉर्म भरना है, किसी को पुलिस में शिकायत दर्ज करनी है l और तो और  कोई एक गरीब अपने बच्चों का पेट काटकर अपने दिन भर कि मजदूरी उस अफसर के हाथ में धर देता है जिससे उसे अपने खेत का मुआवजा लेना है l और बच्चों को पढ़ायें भी तो कैसे एक तो पैसे नहीं और यदि पेट काटकर स्कूल भेज भी दो बच्चों को तो या मैडम आती नहीं या फिर मास्टर साहब अपने डिजिटल फ़ोन पे सर झुकाए रहते हैं l

जब ये भारत नजर के सामने आता है तो यही प्रश्न चीर के निकलता है कि क्या ये भी इसी इंडिया का हिस्सा नहीं हैं ? क्या सरकारें इनकी मदद इसलिए नहीं करेंगी क्यूंकि ये किसी प्रकार का ट्वीट करना नहीं जानते या फिर सोशल मीडिया के किसी प्लेटफार्म पर बवाल खड़ा करने कि हिम्मत नहीं कर सकते l हालाँकि बुद्धिजीवी इसके तमाम तर्क दे सकते हैं कि सरकार जानकारी होने पर कार्यवाही करती है …. पर सवाल ये ही है कि आखिर कब…और कहाँ होती है कार्यवाही क्यूंकि धरातल पर तो मिन्नतें करते मरते लोग ही दिखते हैं l बुंदेलखंड के नाम पे ही देखिये अरबों के पैकेज दिए जाते हैं लेकिन उस पैकेज का एक हिस्सा भी बुंदेलखंड में नहीं दिखाई देता l रिपोर्ट्स आती हैं कि १७ प्रतिशत लोग घास कि रोटियां खाने को मजबूर हैं l ६५ प्रतिशत से ज्यादा बुंदेलखंड वासी दूध पीना नहीं जानते l  और पलायन और आत्महत्याओ के कागजी आंकड़े भी वास्तविकता कि नोक तक भी नहीं पहुच पाते l

प्रधानमंत्री जी भले ही दुनिया में भारत की छवि मजबूत करने में लगे हों , ट्विटर, फेसबुक अकाउंट भी खुद ही हैंडल करते हों, अपने काम से  एक दिन कि छुट्टी न लेते हों लेकिन वास्तविकता यही है कि ट्विटर के बाहर के भारत में किसान मर रहे हैं , गरीब फांकों पे जी रहे हैं l आपका डिजिटल इंडिया का नारा भले देश को डिजिटल क्रांति कि ओर ले जा रहा है लेकिन एक बार डिजिटल शब्द के मायाजाल से बहार झांककर देखिये कही कोई वर्ग विशेष ही तो नहीं क्रांति के पथ पर है l क्यूंकि भारत आज भी अक्षमता कि ओर बढ़ता दिख रहा है उसकी सुनाने वाला कोई नहीं न ट्विटर न प्रशासन ना सरकार  वो हाथ जोड़कर मिन्नतें करता ही मर जाता है और विडम्बना देखिये मुआवजा भी तब ही मिलता है जब किसी डिजिटल दुनिया कि सुर्ख़ियों में आता है l ये वाला भारत भी इसी डिजिटल इंडिया का हिस्सा है इसे भी सहायता का उतना ही अधिकार है जितना किसी ट्विटर पर लिखने वाले को l  एक बार डिजिटल खिड़की से बहार झांक कर उस रोते बिलखते भारत कि ओर भी देखिये l