केदारनाथ अग्रवाल शताब्दी के मौके पर विशेष जन्म 1 अप्रैल 1911-मृत्यु 22 जून 2000)
केदारनाथ अग्रवाल के बारे में हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों ने खूब लिखा है। हिन्दी के बड़े लेखकों में एक फिनोमिना है वे महानगरीय हलचलों से दूर रहे हैं। महागनरीय जोड़तोड़ उन्हें रास नहीं आयी है। इन लेखकों में सबसे बड़ा नाम है केदारनाथ अग्रवाल का। इस साल उनका जन्म शताब्दी वर्ष चल रहा है । उनके विचारों की रोशनी में हमें विश्व साहित्य में इनदिनों उठे कुछ बुनियादी सवालों पर विचार करना चाहिए।
केदारनाथ अग्रवाल के विचारों का दायरा व्यापक है उसे मात्र प्रगतिशील आंदोलन के दायरे में बंद करके नहीं रखा जा सकता। उनके नजरिए में एक ओर प्रगतिशील लेखकों की रूढ़िबद्ध मान्यताओं के प्रति आलोचनात्मक स्वर है तो दूसरी ओर कलावादी नजरिए के प्रति भी आलोचनात्मक नजरिए के दर्शन होते हैं। उनके नजरिए का एक तीसरा स्तर है जिसमें वे साहित्य को निजी अनुभवों के दायरे में कैद करने वाले नजरिए से मुठभेड़ करते हैं। इन तीनों ही स्तरों पर वे विश्वदृष्टिकोण के आधार पर संघर्ष करते हैं। केदारजी ने साहित्य में विश्वदृष्टिकोण को प्रतिष्ठित किया है और यही किसी भी लेखक के मूल्यांकन का प्रस्थान बिंदु हो सकता है।
साहित्य में निजी अनुभवों पर जोर देने की प्रवृत्ति इन दिनों जोरों से चल रही है। इस प्रवृत्ति के दायरे में स्त्री और दलित साहित्य के अनेक लेखक आते हैं। इसके बहाने साहित्य में ‘मैं’ की आंधी चल रही है। ‘मैं’ की आंधी पर ही सवार होकर आत्मकथाओं का तांता लगा हुआ है। इस तरह के लेखन की एक सीमा तक प्रासंगिकता है। लेकिन इससे समाज और साहित्य के जटिल संबंधों में छिपी संश्लिष्टता का उदघाटन करने में मदद कम मिलती है।
लेखक का ‘मैं’ यदि लिखने के बाद भी ‘हम’ में रूपान्तरित नहीं होता तो यह उसके नजरिए की सबसे बड़ी सीमा है। ‘मैं’ का ‘हम’ में रूपान्तरण करने के बाद ही साहित्य में मौलिकता आती है। इसके अलावा प्रत्येक लेखक के पास देश-दुनिया और निजी संसार को देखने का दार्शनिक नजरिया भी होना चाहिए।
इन दिनों लेखकों का एक ऐसा समूह पैदा हुआ है जिनके पास अनुभव हैं लेकिन जीवन देखने का दार्शनिक नजरिया नहीं है। बिना दार्शनिक नजरिए के लेखक अपाहिज होता है।
इसी प्रसंग में केदारनाथ अग्रवाल ने अपने मैं,हम,समाज,निजी और दार्शनिक नजरिए के बीच के अंतस्संबंधों पर रोशनी डालते हुए लिखा – “में मात्र निजी व्यक्तित्व का रचयिता नहीं रहा और न मैंने आज तक अपने-ही अपने को कविताओं में रचा है। मैं समाज और देश से ऊपर उठकर कोई ऊँचा आदमी नहीं बना और न मैंने ऐसा कुछ बनने का प्रयास ही किया। हाँ, यह अवश्य है कि एक दार्शनिक दृष्टि से, मैं, जग और जीवन से घटनाक्रम को देखता और समझता रहा हूँ और उनका मानवीय मूल्यांकन उसी के बल पर करता रहा हूँ। ऐसी रही है मेरी प्रगतिशीलता -इसी से बनी है मेरी मानसिकता-यही मानसिकता कविताओं में व्यक्त हुई है। इसीलिए यह कविताएँ न क्षणिक अनुभूति की प्रामाणिकता की पुत्रियाँ हैं ,न अकेलेपन की निजता की राजकुमारियाँ।”
इन दिनों मौलिकता के साथ एक नई साहित्यिक बीमारी आ गई है निजता की। निजता को ही मौलिकता मानने का चलन भी चल पड़ा है। इस पर टिप्पणी करते हुए केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा है ‘‘मौलिकता भी निजता का रूपायन करने वाली नहीं होती। जो रचनाकार ऐसा समझते हैं ,वह मौलिकता,युग और यथार्थ को तजकर,केवल मनोवैज्ञानिक लोक में प्रविष्ट हो जाती है,वह अमानवीय होती है और उसकी भाषाई अभिव्यक्ति भी सम्प्रेषणविहीन होती है। ऐसी मौलिकता से साहित्य का मौलिक सृजन नहीं होता।”
केदारजी ने यह भी लिखा कविता केवल आत्म-बोध या आत्म-तुष्टि का साधन नहीं होती। यह कृतिकार की आत्मा को,भीतर से बाहर लाकर,विशाल मानवता का स्वरूप प्रदान करती है। वही वैयक्तिक ‘आत्मानन्द’ की परिधि से निकलकर लोक मांगलिक ‘आनन्द’ की प्रदाता होती है।”
प्रगतिशील कविता को महज राजनीतिक प्रचार नहीं होना चाहिए। उसे मात्र राजनीतिक बयान नहीं होना चाहिए। कविता को राजनीति में रिड्यूज करके देखने वालों की कमी नहीं है। अनेक रूढ़िबद्ध प्रगतिशील लेखक कविता को राजनीति में रिड्यूज करने का प्रयास करते रहे हैं । उसी तरह इन दिनों साहित्य को मात्र अनुभूति में रिड्यूज करके देखने की परंपरा भी चल पड़ी है। कविता या साहित्य मात्र अनुभूति नहीं है।
कविता या साहित्य बकौल केदारजी ‘एक संश्लिष्ट इकाई’ है। समाज की मौजूदा स्थिति पर उनकी ‘पैटर्न’ कविता बेहद सुंदर ढ़ंग से रोशनी ड़ालती है। लिखा है- ‘‘ ‘पैटर्न’ / वही है/ पैसेवाला/ब्याह हो या चुनाव। पैसे के / अभाव में/ न ब्याह हुआ अच्छा/ न चुनाव। बड़ा बोलबाला है / पैसे -ही पैसेका/ घर और देश में । पैसे पर टिका-टिका/पैसे का प्रजातंत्र/ जगह-जगह जीता है-/सिर धुनता /धुआँ-धुआँ पीता है।’’
टेलीविजन के आने के बाद लोकतंत्र में बक-बक बढ़ जाती है। लोग कहते हैं यह बोलने की आजादी का सुंदर नमूना है। लोकतंत्र में भाषण और सिर्फ भाषण का जलवा चल रहा है। वे चाहते हैं जीवन की ज्वलंत समस्याओं को भाषणों या टॉक शो के जरिए हल कर लिया जाए। इस रवैय्ये की आलोचना करते हुए केदारनाथ अग्रवाल ने ‘देश में लगी आग को‘ नामक कविता में लिखा है।
लिखा है- ‘‘ देश में लगी आग को/ लफ्फाजी नेता /शब्दों से बुझाते हैं/वाग्धारा से /ऊसर को उर्वर / और देश को / आत्म-निर्भर बनाते हैं/ लोकतंत्र का शासन /भाषण-तंत्र से चलाते हैं।’’
लोकतंत्र में किसी भी मामले पर हंगामा होने पर आयोग बना देने की परपाटी है। इस आयोग संस्कृति पर केदारजी ने ‘अंडे पर अंडा’ शीर्षक कविता लिखी है। बानगी देखें- ‘‘अंडे पर अंड़ा/ और/अंडे पर अंडा/देती है/जैसे मुर्गी/रोज-ब रोज/ सरकार भी /देती है उसी तरह/आयोग पर आयोग/रोज-ब-रोज।’’
On the birth centenary year of Grand poet Kedarnath Agrawal, prolific writer prof. Jagadishwar chaturvedi correctly depicted that kedarnath Agarwal can not be assessed only in circumsphere of progressive poetry. He had been an universal poet of great dimensions.
जगदीश्वर जी आपके सभी आलेख बेहद सार्थक ,देशभक्तिपूर्ण ,तो होते ही हैं साथ ही भारतीय और हिंदी साहित्य परम्परा में प्रगतिशील जनोन्मुखी सृजन के ध्वजवाहकों को आप बहुत ही कौशल से जीवंत प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं ….बधाई …..अच्छे संस्म्र्नात्म्क आलेख के लिए धन्यवाद …..प्रवक्ता .कॉम को आपके आलेखों से चार चाँद लगे की नहीं ,ऐ तो नहीं कह सकता …किन्तु साहित्य ka ककहरा जानने वाले लगातार शिक्षित हो रहे हैं ….