खेतीकिसानी को लीलते भूमण्डलीय आदर्श

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प्रमोद भार्गव

यह साफ हो गया है कि भूमण्डलीय आदर्श भारतीय खेतीकिसानी को लील रहे हैं। औद्योगिक विकास और शहरीकरण ने हजारों गांव और हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि निगल ली है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हीं आर्थिक और कृषि सुधारों पर जोर दे रहे हैं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित साधक हैं। प्रधानमंत्री ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के 83 वें स्थापना दिवस के अवसर पर कहा कि खाद्यान्न की बढती मांग और मंहगाई पर नियंत्रण पाने के लिए पैदावार बढानी होगी। इसके लिए आधुनिक तकनीक और जैव एवं आनुवंशिक प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। वैज्ञानिकों को ऐसी कृषि प्रौद्योगिकी विकसित करने की जरूरत है जिससे जल और मॢदा जैसे प्राकृतिक संसाधनों का संवर्धन किया जा सके। लेकिन विडंबना देखिए कि भूमण्डलीय आदशोर्ं को बेवजह तव्वजो देते हुए विदेशी कृषि शिक्षा, जीएम फूड व बीज विधेयक को जबरन किसानों पर थोपने की कवायद की जा रही है। बायो डीजल और अनाज से शराब बनाने के उपायों पर जोर दिया जा रहा है। ऐसे हालातों का विस्तार करने से कृषि उत्पादन बढेगा या घटेगा ?

संविधान में कृषि राज्य का विषय होने के बावजूद राज्यों को विश्वास में लिए बिना इस विधेयक को राज्यों पर थोपा जा रहा है। प्रस्तावित बीज विधेयक में बहाना तो यह जताया जा रहा है कि इसके अमल में आने के बाद किसानों को उचित मूल्य पर उम्दा गुणवत्ता का बीज उचित मूल्य पर उपलब्ध होगा। परंतु हकीकत में यह बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित साधेगा और देश की कृषि भूमि की उर्वरा क्षमता को प्रभावित करेगा।

वैसे भी कृषि वैज्ञनिक शोध बताते हैं आनुवंशिक बदलाव प्रकृति का काम है। प्राकृतिक ढंग से इसमें कालक्रम के अनुसार परिवर्तन खुद होता रहता है। कृत्रिम तरीकों से ऐसा इंसान करेगा तो उसमें खतरा पैदा होने की उम्मीदें ब़ढं जाएगी। प्रस्तावित बीज विधेयक आनुवंशिक तकनीक से परिवद्धित बीजों के इस्तेमाल पर न केवल जोर दिया गया है, बल्कि इनके प्रयोग को अनिवार्य बनाया गया है। जबकि इनके दुष्प्रभाव को हम बीटी कपास और बीटी बेगन में देख चुके हैं। इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनी माहिको ने बिहार में बिना राज्य सरकार की इजाजत के हाइब्रिड मक्का बीज किसानों को खेतों में बोने को दिया। इस बीज से उपज तो ठीक आई पर भुट्टे में दाना नहीं आया। इस वजह से 61 हजार एकड़ खेतो में मक्का की फसल बर्बाद हो गई। आनुवंशिक तकनीक से परिवर्द्धित बीजों को बढ़ावा देने के तो कानूनी प्रावधान और बाध्यताएं हैं, लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं है जिससे किसानों को हुए नुकसान का हर्जाना मिले। बीज कंपनी ने बहाना बना दिया कि किसानों ने समय से पहले बीज बो दिया और ठंड के कारण दाना नहीं पड़ा। बाद में धोखे के शिकार हुए किसानों को राज्य सरकार ने आर्थिक मदद दी।

प्रधानमंत्री ने कृषि वैज्ञानिकों को कृषि संसाधनों को बचाने के उपाय सुझाने को भी कहा है। जिससे जल और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित रहें। उन्होंने वैज्ञानिकों से यह भी अपील की प्रयोगशालाओं में सत्यापित नए ज्ञान को किसानों तक पहुंचाकर उनकी आमदनी बढ़ाने मे मदद की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा कैसे संभव होगा जब हम भारतीय भौगोलिक विविधता और ज्ञान परंपरा को दरकिनार करके अमेरिका की भूमि व कृषि से जुड़ी प्रणालियों को आदर्श मानकर अपनी धरती पर लागू करेंगे। हमारे देश में 42 कृषि विश्वविद्यालय और 193 कृषि महाविद्यालय हैं। आधुनिक शिक्षा के बहाने हमने अपनी संपूर्ण कृषि शिक्षा को अमेरिकी लैंड ग्रांड सिस्टम ऑफ एज्युकेशन के पाठ्यक्रम में प्रस्तावित मॉडल में ढ़ाल दिया है। इसी पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाई कराई जा रही है। जबकि भारत और अमेरिका का भूगोल व जलवायु एकदम भिन्न व विपरीत हैं। हमारे यहां अनेक प्रकार की कृषि भूमियां हैं। उनमें स्थानीय जलवायु के प्रभावानुसार फसलें पैदा होती हैं। हमारी मिट्टी में केंचुए व अन्य ऐसे कीड़ेमकोड़े हैं जो मिट्टी की उर्वरा क्षमता ब़ाते हैं और फसल को हानि पहुंचाने वाले कीटों का नाश करते हैं। इसके उलट अमेरिका में केंचुआ पाया ही नहीं जाता। इसे हम एक व्यावहारिक कठिनाई भी कह सकते हैं। क्योंकि जब अमेरिकी धरती में भूमि की उर्वरा क्षमता बढाए जाने वाले केंचुए पाए ही नहीं जाते तो वहां के वैज्ञानिकों को क्या पता कि भारतीय धरती में पाए जाने वाले केंचुए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कीटनाशकों से नष्ट हो जाएंगे और भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाएगी।

लेकिन इस अमेरिकी शिक्षा आदर्श को हमने अपनी कृषि शिक्षा का जरूरी हिस्सा बना दिया है। यह अंधानुकरण कृषि को हानि पहुचाएगा ही। यही कारण है कि आजादी के समय देश की मिट्टी में केवल नाइट्रोजन की कमी पाई जाती थी, लेकिन आज अनेक प्रकार के रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल होने से मिट्टी को स्थायी रोगी बना दिया है। इसके बावजूद अमेरिकी दबाव में प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एक और हरित क्रांति के लिए आधुनिक तकनीकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

इसके बावजूद कृषि में पैदावार बढ़ रही है। वह इसलिए क्योंकि बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और कुछ अन्य प्रदेश सरकारों ने जैविक व पारंपरिक खेती को बढ़ा वा दिया है। इसी तरह पंजाब और हरियाणा खाद्यान्न उत्पादन की स्थिति मजबूत सिंचाई संसाधनों के चलते पुख्ता हुई है। इसके बावजूद साद्यान्न उत्पादन का जो 4 प्रतिशत का लक्ष्य है वह पूरा नहीं हो रहा। २००६-०७ से 3 फीसदी पर ही अटका हुआ है। २०१०-११ में कुल खाद्यान्न उत्पादन की उम्मीद 24.1 करोड़ टन थी, लेकिन पैदावार इस लक्ष्य से 50 लाख टन ज्यादा हुई। ऐसा गेंहू, मक्का और दलहनों की अच्छी पैदावार से संभव हुआ। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि २०२०-२१ में देश में आबादी के अनुपात में खाद्यान्न की मांग 28 करोड़ टन तक पहुंच जाने का अनुमान है। इसे पूरा करने क लिए कृषि उपज दो प्रतिशत वार्षिक दर से बढाने की जरूरत है। यह एक बड़ी चुनौती है। इससे मुकाबला करना तब और मुश्किल है जब हम उच्च गुणवत्ता वाली कृषि भूमि को औद्योगिक विकास के लिए भेंट चढ़ाते रहेंगे। किंतु केंद्र सरकार की सवोर्च्च प्राथमिकता यही है, जिससे विदेशी पूंजी निवेश का प्रवाह बना रहे और विदेशी कंपनियों के अंग्रेज मालिकान रूठकर मुंह न मोड़ लें। खाद्यान्न से बायो डीजल और शराब बनाने के उपायों को भी यदि औद्योगिक विकास की तरह प्रोत्साहित किया जाता रहेगा तो इस लक्ष्य के करीब भी पहुंचना नमुमकिन होगा ? लिहाजा खेतीकिसानी को लीलने वाले आदशोर्ं से बचने की जरूरत है,तभी हम कृषि उत्पादन के 50 करोड़ टन अनाज पैदा करने के लक्ष्य को पा सकेंगे।

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