खल्क खुदा का, जैव विविधता इंसानी शिकंजे में

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-अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस पर विशेष-

-अरुण तिवारी-

biological diversity

पहले मैं दिल्ली के जिस मकान में रहता था, वह मकान छोटा था, लेकिन उसका दिल बहुत बड़ा था। क्योंकि वह मकान नहीं, घर था। उसमें चींटी से लेकर चिड़िया तक सभी के रहने की जगह थी। अब मकान थोड़ा बड़ा हो गया है। अब इसमें इंसान के अलावा किसी और के रहने की जगह नहीं है। मंजिलें बढ़ी हैं; लेकिन साथ-साथ रोशनदानों पर बंदिशें भी। मेरी बेटी गौरैया का घोसला देखने को तरस गई है। चूहे, तिलचट्टे, मच्छर और दीमक जरूर कभी-कभी अनाधिकार घुसपैठ कर बैठते हैं। उनका खात्मा करने का आइडिया ’हिट’ हो गया है। हमने ऐसे तमाम हालात पैदा करने शुरू कर दिए हैं कि यह दुनिया.. दुनिया के दोस्तों के लिए ही नो एंट्री जोन में तब्दील हो जाये। ऐसे में जैव विविधता बचे, तो बचे कैसे ? गौरतलब है कि अब इंसानों की गिनती, दुनिया की दूसरी कृतियों के दुश्मनों में होने लगी है। खल्क खुदा का ! जैव विविधता इंसानी शिकंजे में!

 

संसाधन भी गये और संबोधन भी

यह तो दुनिया शहर की। देहात के दरवाजे इतने नहीं, पर कुछ संकीर्ण तो जरूर ही हुए हैं। जहां सरकारी योजना के शौचालय पहुंच गये हैं, वहां शौचालय भले ही बकरी बांधने के काम आ रहे हों, लेकिन शौच संबोधन… ’लेट्रिन’ हो गया है। इसका जैवविविधता कनेक्शन है। शौच की ताजा सुविधा ने गांवों मे झाड़ी व जंगलों की रही-सही जरूरत को ही निपटाना शुरु कर दिया है। जंगल के घोषित सफाई कर्मचारी सियार अपनी डयूटी निपटाने की बजाय खुद ही निपट रहे हैं। भेड़-बकरियों के चारागाह हम चर गये हैं। नेवला, साही, गोहटा के झुरमुट झाड़ू लगाकर साफ कर दिए हैं। हंसों को हमने कौवा बना दिया है। नीलगायों के ठिकानों को ठिकाने लगा दिया है। इधर बैसाख-जेठ में तालाबों के चटकते धब्बे और छोटी स्थानीय नदियों की सूखी लकीरें उन्हे डराने लगी हैं और उधर इंसान की हांक व खेतों में खड़े इंसानी पुतले। हमने ही उनसे उनके ठिकाने छीने। अब हम ही उन पर पत्थर फेंकते हैं; कहीं-कहीं तो गोलियां भी। वन्य जीव संरक्षण कानून आड़े न आये, तो हम उन्हें दिन-दहाड़ों ही खा जायें। बाघों का भोजन हम ही चबा जायें। आखिर वे हमारे खेतों में न आयें, तो जायें, तो जायें कहां ?

 

संसाधन नहीं, संवेदना पर हो जोर

हो सकता है कि जब कभी हम जैव विविधता के मुबाहिसों में मशगूल हों; मेरे मीडिया दोस्त स्पेशल स्टोरी दिखा रहे हों… मेरे गांव के सियार प्यास से बिलबिला रहे हों और पत्थर के निशाने पर आकर कोई बेबस नीलगाय चोट से कराह रही हो। ..तो क्या बाघ, गिद्ध, घड़ियाल, डाॅल्फिन आदि…आदि के बाद अब सियार, नीलगाय, गौरैया वगैरह के लिए भी कोई अभ्यारण्य या आरक्षित क्षेत्र बनाया जाये ? किसी संस्था ने पढ़ लिया तो शायद वह यही मांग कर बैठे। …क्योंकि हमारी रुचि बीमारी के इलाज के लिए तंत्र बढ़ाने और संसाधन जुटाने में ज्यादा है; रोकथाम में तो कदापि नहीं।

संरक्षण हेतु संप्रग शासन में ने जैव संपदा रजिस्टर योजना घोषित की। घोषित किया कि बाघ अभ्यारण्य अभी और बढेंगे। मगर हम आंकड़ों की दुनिया को कैसे झुठला सकते हैं ! गुजरात में शेरों की संख्या बढ़ने की खबर हो सकता है कि सच हो; किंतु सच यह भी है कि देश में अभ्यारण्य बढ़े हैं और बाघ घटे हैं।

 

दुनिया में दोस्त हुए कम

आंकड़े कह रहे हैं कि हमने पिछले 40 साल के छोटे से कलैंडर में प्रकृति के एक-तिहाई दोस्त खो दिए हैं। एशियाई बाघों की संख्या में 70 फीसदी गिरावट आई है। मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 70 फीसदी तक घटे हैं। भागलपुर की गंगा में डाॅलफिन रिजर्व बना है; फिर भी डाॅलफिन के अस्तित्व पर ही खतरे मंडराने की खबरें मंडरा रही हैं। क्यों ? उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है। यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीकत इससे भी बुरी हो सकती है। जैव विविधता के मामले में दुनिया की सबसे समृद्ध गंगा घाटी का हाल किसी से छिपा नहीं है। हकीकत यही है कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है। हर रचना के नष्ट होने का मतलब है कि कुदरत की गाड़ी से एक पेच या पार्ट हटा देना। यही हाल रहा, तो एक दिन यह जीव चक्र इतना बिगड़ जायेगा कि इंसान वहीं पहुंच जायेगा, जहां था। शायद उससे भी बदतर हालत में। पुनः मूषकः भव !!

 

लालच बढ़ा, नियामतें घटी

दरअसल, हमने अपने लालच इतने बढा लिए हैं कि हर चीज कम पड़ गई है, सिवाय हमारे लालच के।यह काल्पनिक बात नहीं कि धरती, पानी, हवा, जंगल, बारिश, खनिज, मांस, मवेशी… कुदरत की सारी नियामतें अब इंसानों को कम पड़ने लगी हैं। इंसानों ने भी तय कर लिया है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ और सिर्फ इंसानों के लिए है; वह भी सबसे पहले मेरे लिए। इसीलिए ये सारी लूट है; विवाद हैं; रसहीन होते रिश्ते हैं। यही रफ्तार जारी रही, तो एक दिन यह पृथ्वी कम पड़ जायेगी, इंसानी लालच के लिए और आंसू कम पड़ जायेंगे अपनी गलतियों पर रोने के लिए।

प्रकृति अपना संतुलन खुद करती ही है। एक दिन वह करेगी ही। यह तय है। अब तय तो सिर्फ हमे करना है कि सादगी को शान बनायें, प्रकृति व उसकी दूसरी कृतियों को उनका हक लौटायें, ’’जिओ और जीने दो’’ का सिद्धांत अपनायें, जैव विविधता बचायें या गायें, छटपटायें – आ ढूंढ़ लें ग्रह और कोई …। दिल्ली गेट के चैराहे पर दाना चुगाने का अवसर, फिलहाल मेट्रो के काम से भले ही कम किया हो, किंतु आर्यशेखर ने अपट्रान चैराहा, इलाहाबाद के ठीक सामने स्थित घर की छत पर पक्षियों को दाना-पानी देने का काम बढा दिया है। पुणे की एक संस्था इस गर्मी में पंछियों को पानी पिलाने के मिट्टी के बर्तन बांट रही है। लक्ष्य है कि पानी पीने के लिए पंछी को 100 मीटर से अधिक न उड़ना पड़े। दिल्ली की अदालत ने भी पंछियों की आजादी का अधिकार एक बार पुनः रेखांकित किया है। ऐसे छोटे-छोटे कदमों से जैव विविधता लौटा लाने का मानसिकता लौटेगी और हमारी संवेदना भी।

ध्यान रहे कि भौतिक विकास की दृष्टि से 20वीं सदी भले ही भौतिक शास्त्रियों की रही हो, जीवन विकास की दृष्टि से 21वीं सदी जीव और पर्यावरण विज्ञानियों और प्रेक्टिशनर्स की ही हो, तो बेहतर।

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