दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच चल रही तकरार के मायने और इससे होने वाले नुकसान का तकाजा समझना अभी मुश्किल है जबतक कि इन दोनो से जुड़े कानूनी दाव-पेंच को ठीक से समझ न लिया जाए। मालूम हो कि दिल्ली सरकार को वो सारे अधिकार प्राप्त नही हैं जो कि अन्य भारतीय राज्यों को मिले हुए हैं इस कारण केजरीवाल सरकार ही इसका अपवाद नही है बल्कि पिछली सरकारों का भी केन्द्र के साथ तकरार होता रहा है। इस वक्त नजीब जंग उपराज्यपाल हैं और पिछे हटने के मूड मे नही हैं केजरीवाल के हर फैसले को पलट कर वे इस बात को बार-बार जता भी रहे हैं।
देखा जाए तो जंग और केजरीवाल दोनो ही पूर्व नौकरशाह रह चूके हैं और दोनो ने कुछ साल नौकरी करने के बाद अपने लिए अलग-अलग रास्ते चूने हैं आज जब दोनो एक दूसरे के सामने हैं तो इनके अधिकार इनकी तकरार का कारण बन रही है। जैसा कि हम जानते हैं दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नही प्राप्त है परंतु एक संविधान संशोधन के जरिए दिल्ली और पांडीचेरी को अन्य केन्द्रशासित प्रदेशों से परे विशेष दर्जा हासिल है। दिल्ली की अपनी विधानसभा है और कुछ विषयों को छोरकर जैसे कानून-व्यवस्था और भूमि से जुड़े मामले, इसके अलावे वो स्वतंत्र रूप से काम कर सकती है पर ये जो विषय हैं यही अक्सर विवाद का कारण बनते हैं। हर मुख्यमंत्री चाहता है कि वो अपने पसंद का नौकरशाह रखे,उसके जिम्मे राज्य की पुलिस हो,राज्य मे जमीन की लेन-देन कैसी है इस पर निगरानी रखे। लेकिन हमे यह भी याद रखना होता है कि हम जिस देश मे रह रहे हैं वहाँ एक संविधान है जो हर किसी के लिए बराबर है चाहे आप मुख्यमंत्री के पद पे हों या धड़ने पर..! इस पूरी बहस और विवाद मे संविधान के एक अनुच्छेद 366AA का बड़ा महत्व है या यूँ कहे इसी मे पूरे तकरार का जवाब है य़ह संविधान का ऐसा प्रावधान है जिसे बहुत कम लोग जानते हैं यह प्रावधान संविधान के उन्हत्तरवें संशोधन मे जोड़ा गया और 1992 मे एक कानून बनकर हमारे सामने आया सही अर्थों मे यह गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरीटरी ऑफ दिल्ली एक्ट,1992 और ट्रान्जिक्शन ऑफ नेशनल कैपिटल टेरीटेरी एक्ट,1993 के रूप मे पढ़ा जाता है उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री की शक्ति यहीं से परिभाषित होती है।
फिलहाल यह विवाद थमने का नाम नही ले रहा है क्योंकि केजरीवाल इस लड़ाई को प्रधानमंत्री तक घसिट लाए हैं। यह सही है कि यह कानून उपराज्यपाल को असीम ताकत देती है लेकिन उनके लिए यह भी आवश्यक है कि किसी मंत्री के साथ विचारों का मेल न होने पर मंत्रीपरिषद की राय ली जाए। अगर दिल्ली सरकार का विवाद केंन्द्र के साथ य़ा किसी भी राज्य सरकार के साथ है तो यहाँ भी उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि वो मुख्यमंत्री से जवाब मांगे। इसी तरह नियम,45,46 कहीं न कहीं उपराज्यपाल को ताकतवर बनाती है और सिर्फ मुख्यमंत्री से परार्मश लेने की बात कहती है।
सवाल यहाँ किसी के ताकतवर होने या कमजोर होने का नही है, सवाल श्रेष्ठ होने का भी नही है न ही अधिकारों को लेकर खूले आम नाचने का है , सवाल है न्याय का , संविधान का, संर्घष का…! क्या केजरीवाल संविधान को न्यायालय मे चुनौती देंगे या फिर पहले के मुख्यमंत्रीयों के जैसे समय-समय पर वे गीता पाठ करते रहेंगे, यूँ ही चिल्लाते रहेंगे ?? ।