खेल को ‘खेल’ मत समझिए

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olympicचलिए इसे खब्त ही मान लीजिए लेकिन मुझे बताइए कि दुनिया के नक्शे पर सालों से अज्ञातवास भोग रहे, क्रोएशिया और सर्बिया जैसे देशों की विश्व मानचित्र पर क्या हैसियत है? क्योंकि खेलों के महाकुम्भ के रोमांचक तमाशे में पदक जीतने के मामलों में इन्होंने भारत जैसे महाशक्ति देश को फिसड्डी साबित कर डाला। ओलंपिक समिति ने जो पदक तालिका जारी की है, उसमें भारत का स्थान पदक पाने वाले 78 देशों में नीचे से 67वां है जबकि क्रोएशिया और सर्बिया हमसे आगे यानि क्रमश: 17वे, 32वें पायदान पर हैं।
ओलंपिक में भारत के दयनीय प्रदर्शनों के जो जहीद रंग दिखे, उसके बाद आरोपों के बगुले उछाले जा रहे हैं। खेलों की दुनिया में हम अछूत ना सही लेकिन बेचारे तो बने हुए हैं। अगर क्रिकेट की तरह ही अन्य ख्ेालों में भी अडक़ट्टा हासिल कर रहे होते तो देश की प्रतिष्ठा पर चार चांद तो लगते ही। क्या हमारे मन में यह सवाल नही उठता कि सवा सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में हम महज दो पदक जीत सके और वह भी स्त्री शक्ति के दम पर। इन छोरियों ने जता दिया कि बेटियों की इज्जत के नाम पर कुछ काले धब्बे जरूर लगे हैं लेकिन शक्ति-योगयता के दम पर इन्होंने साबित किया कि देश में सिर्फ टीबी और एनीमिया से ग्रसित शरीर ही नही रहते बल्कि ताकत और हौसले से इब्त, भारतीय महिलाएं कहीं भी तिरंगा लहरा सकती हैं।
सरपरस्त बात यह है कि हमारे पौरूषत्व को क्या हो गया? व्हाटसएप के एक संदेश को समझते हैं जिसमें कहा गया कि खेल के मैदान में महिलाएं चांदी-तांबा बटोर रही हैं तो बॉर्डर पर पुरूष शहादत देकर हमारी रक्षा कर रहे हैं। मगर ऐसा सोचना खुद को छलने जैसा होगा। कडु़वी हकीकत यह है कि हमने अंग्रेजों से क्रिकेट और हॉकी तो सीखी लेकिन हॉकी में पदक जीतने के मामले में 70 के दशक से जो लुढक़ना शुरू किया तो उसका सिलसिला अभी भी जारी है। आप याद कर सकते हैं कि राज्यवर्धन राठौर-जो अब केन्द्रीय खेल मंत्री हैं या फिर अभिनव बिन्द्रा ने जब शूटिंग में पदक हासिल किये तो निशानेबाजी के प्रति क्रेज पैदा हो गया। अब दीपा कर्माकर, जिमनास्ट और साक्षी कुश्ती की नई मिसाल बनकर उभरी हैं।
मोर फेसबुक फ्रेण्ड अऊ विचारक रायगढ़ के अपन भाई कल्पेश पटेल ह खुशफहम बात कहिस। ओखर मुताबिक अमरीका और दूसरे अन्य देश, खिलाडिय़ों पर दिल खोलकर खर्च करते हैं (अभी ओलंपिक में अमरीका ने जो टीम उतारी, प्रत्येक व्यक्ति औसतन तीन करोड़ का खर्च आया) लेकिन पदक जीतने पर खिलाडिय़ों को मात्र 15000 डॉलर यानि नौ लाख रूपये ही ईनाम मिलता है जबकि भारत में उलटी गंगा बहती है। जिंदगी की आसाइशों से दो-बार होते खिलाडिय़ों को दूध-फल तक के लाले पड़ जाते हैं। अपना घर-बार बेचकर यही खिलाड़ी जब पदक जीत लेते है तो उन पर धन और उपहार की इतनी बारिश होती है कि वे खेलना छोडक़र या तो राजनीति में आ जाते हैं या फिर बिजनेस करने लगते हैं। जब तक हम जिला स्तरीय विजेताओं पर नजर नहीं रखेंगे, उन्हें तराशेंगे या सम्मानित नहीं करेंगे, ओलंपिक में पदकों का अकाल भारत सहता रहेगा।
खेल में एक आदमी, उसका समाज, उसका देश और उसकी सभ्यता व संस्कृति भी प्रगट होती है इसलिए भारत की श्रेष्ठता साबित करने के लिए खेल नीति में आमुल-चूल परिवर्तन करने होंगे। खेल को मिशन के तौर पर लें और बिना किसी धर्म, जाति, आबादी या बोली की संकीर्णता या सिफारिश को धता बताते हुए श्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुनें और फिर भारी-भरकम बजट के साथ गोपीचंद जैसे द्रोणाचार्यों के हाथों में सौंप दीजिए। फिर देखिए, पदकों की कैसी बारिश होती है! जहां तक छत्तीसगढ़ का मसला है, हरियाणा, दिल्ली या पंजाब के मुकाबले वह अभी भी काफी पीछे है।
नही , यह निराश होने का क्षण नही है बल्कि कठोर फैसलों के साथ आगे बढऩे का ठौर है। खेलों के सबसे बड़े दुश्मन खेल संघों के सम्राट हैं। यहां सियासत के पहलवान जमे हुए हैं। कईयों ने तो इसे ही रोजगार मान रखा है। वे खिलाडिय़ों को मिलने वाली डाइटमनी तक हजम कर जाते हैं। नौकरशाह भी इसमें पीछे नहीं रहे। इतिहास के पन्ने पलटिए : सालों पहले केपीएस गिल ने भारतीय हॉकी संघ का अध्यक्ष बनने के लिए अपने अंगरक्षकों की फौज से लोगों में आतंक पैदा करके चुनाव जीते थे। असलम शेर खां जिस हॉकी के अध्यक्ष रहे, उन्ही के कार्यकाल में हॉकी की दुर्दशा सबसे ज्यादा हुई जबकि वे खुद ओलम्पियन रह चुके हैं। छत्तीसगढ़ में भी ओलंपिक कमेटी का सरपरस्त कौन है, बताने-छुपाने की जरूरत नही।
अहमफहम ढंग से समझें तो अगले राष्ट्रीय खेल छत्तीसगढ़ में ही होने हैं, इस दृष्टि से काफी कुछ बदला भी है। आईपीएल, गोंडवाना कप और रणजी टीम के साथ-साथ यदि अंतरराष्ट्रीय मैचों के बलबूते छत्तीसगढ़ ब्राण्ड के तौर पर उभरा है तो इसके लिए भागीरथी प्रयास करने वाले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, विक्रम सिसोदिया, पप्पू भाटिया सहित खेल-संघों का तहेदिल से शुक्रिया । सनद रहे कि भारत जिस महिला हॉकी टीम का ओलंपिक में पठोइया बना है, उसमें एक महिला खिलाड़ी छत्तीसगढ़ से भी है लेकिन अन्य खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने तथा खेल संसाधन बढ़ाने की दरकार फिर भी बनी हुई है। लगभग सभी नगर निगमों में जिम या व्यायाम-शालाएं संचालित हैं लेकिन वहां की स्थिति दयनीय है। राजधानी में खेल स्टेडियम तो काफी हैं लेकिन अभी भी वहां राजनीतिक रैलियां ज्यादा होती हैं। इस राज्य को कई खेल प्रतिभाएं देने वाले भिलाई को हम खेलगांव के तौर पर डवलप क्यों नहीं करते?
वैसे नवजागृति के दिमागी खमीर का असर कह लें कि राज्य के उद्योगपतियों ने दरियादिली दिखाते हुए कुछ खिलाडिय़ों को गोद लिया है लेकिन उन्हें ईमानदारी से अपना वादा निभाना चाहिए। हम ओलंपिक में भारत के दयनीय प्रदर्शन पर मगरमच्छी आंसू तो बहाते हैं लेकिन अपने सुपुत्रों या सुपुत्री को महज इंजीनियर, डॉक्टर या आइएएस बनाने से इतर नहीं सोचते। मैं खुद एथलेटिक का राज्य स्तरीय मेडलिस्ट रहा हूं इसलिए माहौल को ज्यादा अच्छे से समझता हूं। सरकारी नौकरी कर रहे एक इंजीनियर ने अपने भाई और मेरे दोस्त को सबके सामने पीटा था क्योंकि वह 100 मीटर रेस का धावक बनना चाहता था। और वे उसे डॉक्टर बनना देखना चाहते थे। अफसोस 25 साल बाद वह ना तो डॉक्टर बन सका और ना ही एथलीट। थ्री इडियटस फिल्म का वह सीन याद कीजिये जिसमें एक पिता अपने बेटे को इंजीनियर बनाने की जिद करता है और बेटा वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर्स बनना चाहता है।
अनिल द्विवेदी

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