स्वाध्याय से जीवनोद्देश्य का ज्ञान व इच्छित फलों की प्राप्ति

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संस्कृत का “स्व” शब्द विश्व के भाषा साहित्य का एक गौरवपूर्ण व महिमाशाली शब्द है। इस शब्द में स्वयं को जानने व समझने की प्रेरणा छिपी है। जिसने “स्व” अथवा स्वयं को जान लिया वह जीवन में सफल हुआ कहा जा सकता है।  जिसने “स्व” को न जाकर अन्य सब कुछ भौतिक सुख समृद्धि को पा लिया, लगता है वह घाटे में रहा है। अतः इस महत्वपूर्ण शब्द को जानकर इस शब्द से जुड़े अध्ययन जो स्वाध्याय कहलाता है, विचार करते हैं।

 

स्वाध्याय शब्द ‘स्व’ शब्द की तरह अति गरिमा एवं महिमापूर्ण शब्द है। इसमें स्वयं वा अपने आप का अध्ययन करने की प्रेरणा व सन्देश निहित है। यह एक प्रकार से मनुर्भव का ही पूरक व पर्यायवाची शब्द लगता है। हम मनुर्भव अर्थात् मननशील कब बनेंगे कि जब हम स्वाध्याय कर यह जान पायेगें कि हम वस्तुतः व स्वरूपतः कौन हैं और हमारे जन्म व जीवन का उद्देश्य क्या है? यदि हम स्वयं को जान ही नहीं पाये तो मनुष्य बनना कठिन ही नहीं असम्भव है। स्वाध्याय से हमें स्वयं को जानने की प्रेरणा तो मिल गई, अब इस अनुष्ठान को अंजाम कैसे दिया जाये। इसके लिए हमें एक गुरू या मार्गदर्शक की आवश्यकता है जो हमें पहले वर्णमाला का उच्चारण करने और मातृभाषा को लिपि में लिखने व उसे समझने के योग्य शिक्षा दे। यह कार्य कुछ ही दिनों में आसानी से हो जाता है। साक्षर एवं भाषा को पढ़ने व लिखने की योग्यता आ जाने पर स्वाध्याय का रास्ता खुल जाता है और हम मनचाही व अपने गुरूओं, ज्ञानियों, योगियों व समाज के सज्जन विद्वान पुरूषों के बतायें हुए मार्ग को जान कर उसका अनुगमन कर सकते हैं।

 

स्वाध्याय एक ओर जहां ईश्वर व जीवात्मा से सम्बन्धित साहित्य को होता है वहीं अन्य अनेकानेक विषयों का भी हो सकता है। ईश्वर व आत्मा के क्षेत्र में भिन्न प्रकार के ग्रन्थ व मान्यतायें पढ़ने को मिलती हैं। इन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। एक ऐसी मान्यतायें जो वेद व सत्य से पुष्ट होती हैं और दूसरी जो वैदिक मान्यताओं से भिन्न हैं जिन्हें अज्ञान, पाखण्ड, अन्धविश्वास आदि कहते हैं। इसमें अन्तर करना विवकेशील ज्ञानी पुरूषों के लिए ही सम्भव है। वैदिक मान्यतायें कौन सी हैं, तो यहां भी इसके भेद हो जाते है। एक तो वह हैं जो वेदों की हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने ग्रन्थों उपनिषद व दर्शनों आदि में दी हैं और उन्नीसवीं शताब्दी में जिनका उल्लेख, वर्णन, विस्तार व समर्थन महर्षि दयानन्द ने वेद प्रमाणों, युक्तियों आदि से किया है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका सहित महर्षि दयानन्द के सभी ग्रन्थ व उनका वेद भाष्य एवं 11 उपनिषद तथा दर्शन ग्रन्थ आदि सम्मिलित हैं। पुराणों व अन्य मतों के ग्रन्थ पढ़ने से भ्रान्ति होने की पूरी-पूरी सम्भावना है क्योंकि  इन सब ग्रन्थों में सत्य और असत्य मान्यताओं का मिश्रण हैं और अप्रमाणिक, काल्पनिक या असत्य कहानी-किस्से हैं। ईश्वर के बारे में यदि जानना है तो वह सत्य, चित्त, आनन्द स्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्व शक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र व सृष्टिकर्ता सिद्ध होता है। इसी प्रकार से आत्मा एक अति सूक्ष्म तत्व, आंखों से न दिखने वाला, शरीर में विद्यमान होकर शारीरिक क्रियाओं द्वारा इसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, यह अनादि, अजन्मा, अविनाशी, अमर, नित्य, एकदेशी, अल्पज्ञ, कर्मो का कर्ता और भोक्ता, अपने संचित कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मरण धारण करने वाला पदार्थ है। ईश्वर जीवात्माओं को कर्मानुसार जन्म देता है और जीवों के लिए सृष्टि बनाता है और 4.32 अरब वर्षों की अवधि पूर्ण होने पर प्रलय करता है। जो जीव अच्छे कर्म करते हैं व वेदानुसार जीवन व्यतीत करते हैं उनके कर्मों का भोग पूरा हो जाने एवं योग समाधि से ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने पर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। वेद व वैदिक साहित्य के अतिरिक्त जिन अन्य प्रकार के साहित्य का मनुष्य अध्ययन करता हैं उन-उन विषयों का उसे ज्ञान होता है जिसका उपयोग कर उन विषयों के ज्ञान व क्रियाओं से होने वाले लाभों को वह प्राप्त कर सकता है। अतः सभी प्रकार के सत्य साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। किसी भी साहित्य मुख्यतः धार्मिक साहित्य को आंख बन्द कर अन्धी श्रद्धा व अन्धी आस्था का दास बनकर नहीं पढ़ना चाहिये। सत्य की खोज करनी चाहिये और तर्क बुद्धि से सत्य व असत्य का निर्णय कर सत्य को स्वीकार और असत्य का तिरस्कार स्वयं भी करना चाहिये और दूसरों को भी समझा कर कराना चाहिये।

 

स्वाध्याय के बारे में हमारे शास्त्रकारों ने इसे नित्य कर्म में सम्मिलित किया गया है। स्वाध्याय का प्रमुख ग्रन्थ तो वेद और वैदिक साहित्य ही है। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं। विद्या उसे कहते हैं जो बन्धनों से, जो दुःख और पुनर्जन्म का कारण होते हैं, मुक्ति दिलाती है। मुक्ति ज्ञान से होती है अतः विद्या का मुख्य प्रयोजन सभी विषयों का सत्य-सत्य ज्ञान होता है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम एक घंटा तो नियमित स्वाध्याय करना ही चाहिये। हमारा अनुमान है कि एक घंटे में व्यक्ति किसी ग्रन्थ के 15 पृष्ठ पूर्ण तल्लीन होकर पढ़ सकता है। इस प्रकार से एक वर्ष में 5,475 पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। इन पृष्ठों में हम सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, पंचमहायज्ञ विधि, 11 उपनिषद् व 6 दर्शन पढ़ सकते हैं। इसके बाद एक वर्ष में इतने ही पृष्ठ और पढ़े जा सकते हैं जिसमें चार वेदों का अध्ययन पूरा किया जा सकता है। शेष जीवन में इसी प्रकार से अन्य उपयोगी साहित्य पढ़ा जा सकता है। अतः स्वाध्याय का स्वभाव सभी व्यक्ति को अपने अन्दर उत्पन्न करना चाहिये। इससे हानि तो कुछ नहीं होगी परन्तु लाभ अनेकों हैं जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। शास्त्रों में स्वाध्याय की महत्ता अथवा लाभ बताते हुए कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति सारी पृथिवी को रत्नों से ढक कर दान कर दें तो भी उसको वह फल प्राप्त नहीं होता जो कि एक सुविधापूर्वक स्थिति में नियमित स्वाध्याय करने वाले को प्राप्त होता है। हमें लगता है कि स्वाध्याय से इस जन्म में तो लाभ होता ही है इसके साथ स्वाध्याय से जो संस्कार बनते हैं वह सभी हमारे अगले जन्म में भी हमें प्राप्त होते हैं। स्वाध्याय से इस जन्म में भी शारीरिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति होती है और अगले जन्म में भी। स्वाध्याय करते हुए हम ईश्वर, जीव व सृष्टि के स्वरूप को भली भांति जानकर उससे लाभ उठा सकते हैं। स्वाध्याय करने से पाप से बचा जा सकता है और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानकर उसे प्राप्त भी किया जा सकता है। हम तो कहेंगे कि स्वाध्याय व्यक्ति का ऐसा धन है जिसके सामने अन्य सभी भौतिक धन तुच्छ है। इसी कारण प्राचीन काल से हमारे देश में धन कुबेरों की पूजा व स्तुति न होकर सर्वस्व त्यागी ज्ञानवान समाज के सर्वहितकारी साधुओं की पूजा व सम्मान किया जाता था। यही सच्चे ज्ञानी परोपकारी साधु-महात्मा ही सच्चे तीर्थ कहलाते थे न कि आजकल के गंगा-स्नान, बद्रीनाथ नाथ व अन्य स्थान आदि। वैराग्य की परिभाष भी यही है कि ज्ञान की पराकाष्ठा। यह पराकाष्ठा स्वाध्याय से ही प्राप्त की जा सकती है। इससे वैराग्य होगा जिसका अर्थ है कि भौतिक पदार्थों व अपने सम्बन्धियों से राग नहीं रहेगा। इस स्थिति के बनने पर मन स्वतः ईश्वर की शरण में जायेगा व उसमें लगेगा और ईश्वर की कृपा से ईश्वर प्राप्त होगा। यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। आईये, नियमित स्वाध्याय का व्रत लें और अपने जीवन को पूर्ण उन्नत बनायें।

 

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