कुरान या बाइबल में गोमांस खाने का आदेश नही दिया गया

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गिरीश जुयालcalf-cow

गोवा गोमांस मांग रहा है। पशुओं के वध पर अदालत की सख्ती के बाद गोवा के चर्च ने सरकार से ईसाइयों और मुस्लिमों के लिए गोमांस की जरुरी व्यवस्था करने की मांग की है। चर्च ने गोमांस को लेकर अदालत द्वारा लगाई गई कठोर पाबंदियों को अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए गोवा सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि पर पर भी स्वाल उठा दिए हैं।

रोमन कैथोलिक चर्च की सामाजिक शाखा ‘सोशल जस्टिस एंड पीस काउंसिल’ के कार्यकारी सचिव फादर सेवियो फर्नाडीज ने सरकार पर अपना गुस्सा उतारते हुए उसे सभी धार्मिक समूहों के साथ समान बर्ताव करने की सलाह दी है। सरकार पर चर्च के हमले के बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी मोर्चा खोल दिया है। इन दोनों का कहना है कि सरकार अल्पसंख्यकों को सस्ता भोजन नहीं मिलने देने की साजिश रच रही है।

दरअसल यह सारा विवाद उस समय पैदा हुआ जब ‘गोवंश रक्षा अभियान’ से जुड़े हनुमंत परब ने सरकारी बूचड़खानों में बदइंतजामी का आरोप लगाते हुए बांबे हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी। करीब एक सप्ताह पहले ही याचिका में की गई शिकायतों के आधार पर हाई कोर्ट ने गोवा मीट काम्प्लेक्स के बूचड़खानों को अस्थाई तौर पर बंद कर गड़बडि़यों की जांच के लिए एक समिति का गठन कर दिया। समिति ने गड़बडि़यों और याचिककर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों को सही पाते हुए सख्त शर्तो के साथ बूचड़खानों को चलाने की इजाजत दे दी।

कोर्ट ने बाहरी राज्यों से खरीदे गए पशुओं के साथ ही 12 साल से कम उम्र के गोजातीय पशुओं का वध करने और मांस बेचने पर पबंदी लगा दी है। कोर्ट के इस फैसले पर चर्च का गुस्सा फूट पड़ा है और उसे हवा देने का काम कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कर रहे है। कैथोलिक चर्च द्वारा गोमांस की मांग के लिए इस तरह मोर्चा खोल देने का फैसला हैरानी वाला है, एक तरफ वेटिकन और भारतीय कैथोलिक चर्च देश में ‘बहुधार्मिक संवाद’ चला रहे है। कुछ वर्ष पूर्व मुबंई में ऐसी ही एक बहुधार्मिक वार्ता का आयोजन किया गया था जिस में वेटिकन की अंतरराष्ट्रीय बहुधार्मिक समिति के संयोजक और भारत के कई कैथोलिक बिशपों और कुछ कार्डीनलों के साथ कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती सहित हिन्दू एवं अन्य धर्माावल्बियों ने भाग लिया था। जिसमें सभी धर्मो के प्रतीकों का सम्मान करने और उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने से बचने की सलाह दी गई थी।

प्राचीन काल से गाय हिदुओं के लिए आस्था, श्रद्धा और आदर का पात्र रही है शास्त्रों में गाय को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – प्रदायिनी कहा गया है। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत में गाय आर्थिक प्रगति का आधार रही है इसी के साथ हिदुओं की मान्यता है कि गाय के शरीर में देवताओं का वास रहता है। हिदुओं की पूजा पद्धति से जुडी अनेक परपंराओं में गाय को शामिल किया जाता रहा है इस कारण गाय अपने आप भारत के प्रतीक के रुप में स्थापित हो चुकी थी। विदेशी शासकों ने भारतीयों को अपमानित करने के लिए गोमांस को बढ़वा दिया।

अंग्रेजों के शासनकाल में योजनाबद्ध रुप में गोहत्या और गोमांस को बढ़वा दिया गया, अंग्रेजों की कूटनीति ने गोहत्या और गोमांस को मुस्लिमों और ईसाइयों के महजब से जोड़ दिया जबकि कुरान या बाइबल में कहीं भी गोहत्या करने या गोमांस खाने का आदेश नही दिया गया। अंग्रेजी शासकों को इस से दोहरा लाभ मिला उन्होंने मुस्लिमों की कई जातियों को गोहत्या के काम में नियुक्त कर अपनी सेना के लिए गोमांस का प्रबंध भी कर लिया और हिदुओं एवं मुस्लिमों के बीच बैर के बीज भी बो दिये।

11वीं शताब्दी में जन्में इस्लाम महजब के विद्वान तथा बगदाद इस्लामिया संस्थान के तत्कलीन प्रमुख अल गजाली द्वारा लिखित अरबी ग्रन्थ ‘इह्म उलूम अल दीन’ जिसका उर्दू अनुवाद मजाकुल आरफिन में कहा गया है कि गाय का गोश्त मर्ज हैं, उसका दूध शफा और घी दवा है। कुरान की शूर -ए-हज में लिखा है कि ‘हरगिज नहीं पहुँचगें खुदा के पास उसके गोश्त और खून’ – हाँ पहुँचती है, खुदा के पास तुम्हारी परहेजगारी। इसी तरह ईसाइयत में भी गोवंश वघ का विरोध किया गया है। ‘याशायाह’ की पुस्तक में कहा गया है कि जिसने बैल की हत्या की मानों उसने मनुष्य की हत्या की। ‘भजन संहिता’ में गोमांस खाना तो दूर उसकी ईश्वर को भेंट चढ़ाने पर भी एतराज जताया गया है। ‘ईश्वर’ अपने अनुयायियों से कहता हैं-कि ‘‘मैं न तेरे घर से बैल न तेरे पशुशालों से बकरे लूगा।’’ ईसा का जन्म ही एक गोशाला में हुआ था और आज भी ईसाई लोग ईसा का जन्म दिन मनाने के लिए हर साल अपने घरों और चर्चो में गोशाला बनाते है। संत पोलुस मसीहियों से कहते है कि ‘भला तो यह है कि तू न मांस खाए और न दाखरस पीए।’ हैरानी होती है जब कुछ धर्म गुरु गोमांस को अपना धार्मिक अधिकार बताते है।

दरअसल देश में रुढिवाद को चुनौती देने के नाम पर भड़काऊ हरकतें करने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। पिछले साल हैदराबाद के ऐतिहासिक उसमानिया विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों, चर्च समर्थक सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक आग्रहों से प्रेरित विश्वविद्यालय के कुछ कर्मचारियों ने गोमांस उत्सव का आयोजन कर धार्मिक आधार पर छात्रो को बांटने का कार्य किया गया इसमें योजनाबद्ध तरीके से दलित छात्रों को उकसाया गया कि गोमांस खाना उनका अधिकार है। जबकि आज भी दलित गाय को श्रद्धा की नजर से देखते है।

उसमानिया विश्वविद्यालय में मनाया गया यह उत्सव 19वीं सदी में ‘यंग बंगाल मूवमेंट’ की यादें ताजा कर गया। उस समय कोलकाता की कथित अगड़ी जातियों के कुछ उत्साही छात्रों ने यूरोपीय ज्ञान से प्रभावित होकर ईसाई पंथ में दीक्षित होकर बड़ी शान के साथ गोमांस खाया था। खुद के शुद्धीकरण के उत्साह में गोमांस का सेवन करके वह हिदुओं से टकराव मोल लेते रहे कि ऐसा करने से हिन्दुओं पर सामाजिक कलंक लगेगा और हताशा में ईसाई बनने पर मजबूर होंगे लेकिन उन्हें निराश होना पड़ा। सामाजिक बहिष्कार और हिंसा के कारण उन्हें बंगाल छोड़ना पड़ा। आजादी के छह दशकों बाद भी वर्ग विशेष और जाति के नाम पर इस तरह का दुष्प्रचार करके उन्हें बांटने को क्या कहा जाए? आंध्र प्रदेश की राजनीति के कुछ जानकारो का मानना है कि तेलंगाना आदोंलन को कमजोर करने और छात्रों की एकता को तोड़ने के लिए गोमांस उत्सव का साहारा लिया गया। कांग्रेस और चर्च अलग तेलंगाना का विरोध कर रहे है।

देश का गोवंश आज खतरे में है विशाल यांत्रिक बूचड़खानों में प्रतिदिन हजारों गाय-बैल की हत्या करके उनका मांस निर्यात किया जा रहा है। 1994 में ‘पशु कल्याण बोर्ड’ ने भारत सरकार से गोमांस निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया था। ‘लैदर इन्स्टीट्यूट चैन्नई’ के सर्वेक्षण के अनुसार 1951 में देश में प्रति एक हजार व्यक्तियों पर 430 गोवंश की संख्या थी जो 2001 में घट कर 110 रह गई है। देश में आज करीब चार हजार मान्यता प्राप्त और हजारों अवैध बूचड़खाने चलाए जा रहे है जिनमें हर साल चार करोड़ से भी ज्यादा नरीह पशुओं को काटा जा रहा है।

साल 2001 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने संसद से अपील करते हुए कहा था कि वह जनभावनाओं का समादर करते हुए सम्पूर्ण गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध का कानून बनाए और सरकार पशु मांस निर्यात पर रोक लगाने के साथ बूचड़खानों तथा मांस निर्यात पर दिए जाने वाली आर्थिक सहयाता बन्द करें। गोमांस का उत्सव मनाकर या उसे अपनी धार्मिक आस्था से जोड़कर दूसरों की भावनाओं को आहत करने से बचा जाना चाहिए। भारत बहुलवादी समाज के रुप में आज भी इस लिए बचा हुआ है कि छूट में अंकुश पर बेहद ध्यान दिया जाता है। जब भी अघोषित लक्ष्मण रेखा लांघी जाती है, सामाजिक सौहार्द्र पर संकट मडराने लगता है। इसलिए हमें बेहद सावधनी बरतनी होगी।

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  1. गो रक्षा केवल मात्र केवल मात्र भारतीय पंथों व सम्प्रदायों की भावनाओं का विषय नहीं है. गोरक्षा से देश की समृधी व स्वास्थय प्राप्ति नाम मात्र के खर्च पर सम्भव है.
    – गत २ अगस्त को लुधियाना में एक सेमीनार हुआ जिसके मुख्या वक्ता डा. देवेन्द्र कुमार सदाना ( भारत सरकार का शोध संस्थान एनबीजीआर, करनाल ) थे. इस आयोजन के मुख्या अतिथि लुधियाना के विश्व विद्यालय के कुलपति थे. इस अवसर पर डा. सदाना ने विदेशी गोवंश के विषाक्त होने और भारतीय गोवंश के विश मुक्त होने पर शोधपत्रों के इलावा विश्व भर में हुई अनेक खोजों की भी प्रमाणिक जानकारी दी.
    – इसी अवसर पर दो प्रमुख किसानों ने बतलाया कि विदेशी गोवंश के गोबर-गोमूत्र से जैविक खेती सम्भव नहीं है, उसके लिए भी स्वदेशी गोवंश चाहिए.
    – स्वदेशी गोवंश के गोबर व गोमूत्र से मैं अपने औषधालय में अनेक असाध्य रोगों का इलाज सफलता कर चुका हूँ.
    # मेरा विश्वास बना है कि हम आसानी से स्म्रिधि और स्वास्थ्य प्राप्ति कर सकते हैं, यदि हम अपने गोवंश की रक्षा व सही उपयोग सीखें-करें.

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