दलाई लामा के अरुणाचल दौरे पर चीन की कुटनीति

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India-China-Tibetदलाई लामा के अरुणाचल दौरे को लेकर चीन की चिंता बहुत सोची-समझी आशंका का हिस्सा है। यदि दलाई लामा भारत, नेपाल, भूटान, म्यान्मार आदि देशों की यात्रा करते हैं और अपने पक्ष में जनमत एकत्रित करते हैं तो संभव है कि न केवल चीन-अधिकृत तिब्बत बल्कि चीन-अधिकृत कश्मीर पर भी चीन का दावा कमजोर पड़ जाए जिसका परिणाम चीनी हितों के प्रतिकूल हो सकता है।

 

पिछले कुछ समय से हिमालय क्षेत्र में चीन का बढ़ता वर्चस्व संकेत करता है कि चीन की नजर प्राकृतिक एवं भौतिक संसाधनों से सम्पन्न संपूर्ण हिमालय पर है, जिसमें कि भारत, नेपाल, भूटान, म्यानमार के पर्वतीय क्षेत्र पड़ते हैं। भारत-चीन युद्ध भी चीन के इन्हीं इरादों का परिणाम था, जिसमें कि उसने तिब्बत सहित भारत के कई हिस्सों पर पूरे बल के साथ कब्जा कर लिया था। चीन के इन इरादों के पीछे एक ऐसा रहस्य है जो शायद सभी जानते हैं लेकिन पहचानते नहीं। जैसा कि सर्वविदित है कि हिमालय क्षेत्र न केवल प्राकृतिक रूप से बल्कि भौतिक एवं वैज्ञानिक रूप से भी बेहद समृद्ध एवं सम्पन्न क्षेत्र है। हिमालय न केवल वनों, ऊर्जा, वायु, जल-स्रोतों से सम्पन्न है बल्कि इस क्षेत्र के भीतर कुछ ऐसे दुर्लभ खनिज-लवण जैसे नाभिकीय ईंधन, यूरेनियम आदि दबे हुए हैं जो कि संसार में शायद ही कहीं और उपलब्ध हों। भविष्य में आने वाले समय में बदलती ऊर्जा एवं अन्य जरूरतों के लिए यही खनिज अमूल्य होंगे। तो फिर क्यों न सौंदर्ययुक्त इन हिमालय के वनों, पर्वतों, नदियों एवं भूमि पर कोई अपना अधिकार जमाना चाहेगा।

 

माना कि भारत ने अपने ढीले एवं ढुलमुल रवैये के कारण पहले न केवल तिब्बत को उपहार स्वरूप चीन के हाथ में जाने दिया बल्कि कश्मीर का भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र चीन को हथियाने दिया, जिनका वापिस मिलना शायद ही संभव हो। और तो और, अभी भी भारतीय सरकारें इस विशेष मुद्दे का महत्व नहीं समझ रही हैं। हमारे नेतागण जो कि भारत के सर्वेसां बने फिर रहे हैं नहीं जानते कि भूगौलिक एवं अध्यात्मिक दृष्टि से भी तिब्बत सदा से भारत का ही एक अभिन्न हिस्सा है जिसका जिक्र हमारे वेद-पुराणों में भी मिलता है। यह भाग्य की बिडम्बना ही है कि हिन्दू धर्म के ईष्ट देव, देवाधिदेव महादेव का बसेरा कैलाश पर्वत बताया गया है, जो कि सदियों से हिन्दू धर्म की आस्था से जुड़ा है। और ये क्षेत्र जहाँ हमारे पूर्वज बिना किसी वीजा या पासपोर्ट के भ्रमण करते आए हैं, दुर्भाग्यवश अब चीन के कब्जे में है। यदि कोई भारतवासी कैलाश-दर्शन करना चाहते है तो उसे पासपोर्ट एवं चीनी वीज़ा पर ही वह उपलब्ध हो पाएँगे।

 

यदि हमारे उच्चशिक्षा प्राप्त, भारत के इतिहास एवं संस्कृति के परिचायक नेतागणों ने 50-60 के दशकों में ही भारतीय हितों को जानकर दूरदर्शिता का प्रमाण दिया होता तो आज तिबब्त भी नेपाल की ही तरह एक सम्प्रभु एवं स्वतन्त्र राष्ट्र होता तथा भारतीयों के साथ तिबब्त के भी वैसे ही मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होते जैसे कि नेपाल के साथ रहे हैं। जहाँ तक नेपाल की बात है तो चीन ने फौरी तौर पर तो वहाँ भी अपना परचम लहरा दिया है। नेपाल के माओवादियों द्वारा चीन नेपाल में भी खुलेआम राजनैतिक हस्तक्षेप कर चुका है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं होगी जब नेपाल भी तिबब्त की ही भाँति लाल झंडे के अधिकारक्षेत्र में होगा। और फिर नेपाल के बाद भूटान और संभवतः कश्मीर भी।

 

अब समय आ चुका है जब बौद्ध भिक्षुओं एवं लामाओं को एकमत से लामबंद हो जाना चाहिए ताकि पिछले 60 वर्ष से जो अध्यात्मिक क्षेत्र चीन ने हथिया रखा है उसे आजाद कराया जा सके। और इस मुहिम की शुरुआत दलाई लामा को ही करनी चाहिए क्योंकि वही इन शरणार्थी तिब्बतियों के गुरु एवं मार्गदर्शक हैं। जिस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अहिंसा का सहारा लेकर अंग्रेजों को भारत से निकाला था उसी प्रकार दलाई लामा को भी आंदोलनों एवं जनसभाओं द्वारा बड़े स्तर पर जनमत एकत्रित करके चीन को तिब्बत से खदेड़ देना चाहिए। इस कार्य में भारत को भी तिब्बतियों की मदद करनी चाहिए जो कि दुर्भाग्यवश अभी तक नहीं की गई। लेकिन दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश में जनसभा करने की स्वीकृती देकर भारत सरकार ने बहुत प्रशंसनीय कार्य किया है।

 

अब वक्त आ चुका है जब चीन को उसके नापाक़ इरादों एवं कृत्यों के लिए एकजुट होकर कड़ा जवाब दिया जाए। यह तभी संभव होगा जब हम भारतीय तिब्बत के साथ भारत के सम्बन्धों के महत्व को जान पाएँगे। तिब्बत मानसरोवर से ही कितनी ही विशाल नदियाँ भारत को जल-संसाधन प्रदान करती हैं। इनमें सिंधु, सतलुज एवं ब्रह्मापुत्र मुख्य है, किन्तु यदि चीन की मंशा समझी जाए तो शीघ्र ही इन नदियों का अमूल्य जल भारत को नहीं मिल पाएगा क्योंकि इनपर बाँध बनाकर चीन पहले ही इन्हें अपने सुदूर उतरी एवं पूर्वी इलाकों की ओर मोड़ रहा है। यदि भौगोलिक रूप से भी भारत को हिमालय क्षेत्र एवं सम्पूर्ण भारत की रक्षा करनी है तो चीन द्वारा तिब्बत क्षेत्र में किए जा रहे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन दोहन, शोषण एवं अतिक्रमण को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करने के लिए राजनैतिक स्तर पर बड़े कदम उठाने चाहिए।

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