क्या वेदों की रक्षा हो पाती यदि ऋषि दयानन्द वेद प्रचार न करते?

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मनमोहन कुमार आर्य

महाभारत काल के बाद ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान बताकर वेदों से सम्बन्धित अनेक तथ्यों पर प्रकाश डाला और उन्हें शास्त्रीय प्रमाणों, तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध भी किया। वेदों का यथार्थ महत्व बताने के लिए उन्होंने पहले सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखा और उसके बाद ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखकर ऋग्वेद एवं यजुर्वेद भाष्यों के लेखन का अपूर्व कार्य भी किया। उनके इन कार्यों के परिणामस्वरूप ही देश देशान्तर में वेदों का प्रचार हुआ और आज सहस्रों व लाखों लोगों के घरों में वेद व उनके हिन्दी अंग्रेजी भाष्य विद्यमान हैं। यह वास्तविकता है कि ऋषि दयानन्द के समय में चार वेदों में से किसी एक वेद की प्रति प्राप्त करना भी असम्भव था और वेदमंत्रों के सत्य व यथार्थ अर्थों की उपलब्धि होना और वह भी हिन्दी व अंग्रेजी भाषाओं में, यह भी सम्भव नही था। ऋषि दयानन्द जी के प्रयत्नों व पुरुषार्थ का ही परिणाम है कि आज हिन्दी भाषी साधारण लोग भी वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हैं, प्रातः व सायं सन्ध्या करते हैं और स्वयं ही अपने घरों में प्रातः व सायं देवयज्ञ अग्निहोत्र का अनुष्ठान भी करते हैं और ऐसा करके निरोग रहते हुए स्वस्थ रहने के साथ दीर्घजीवी भी हो रहे हैं। आज जो अपने आपको सनातनधर्मी कहते हैं वह सनातन ईश्वरीय वेद ज्ञान को भूलकर व छोड़कर अर्वाचीन वेद विरुद्ध पुराणों के प्रचार में लगे थे, आज भी हैं, जिसके कारण हम गुलाम व मुस्लिम व अंग्रेज शासकों से अपमानित हुए थे।

 

महर्षि दयानन्द का धर्म के क्षितीज पर सन् 1863 में प्रादुर्भाव हुआ। इससे पूर्व वह संन्यासी, योगी, आर्ष व्याकरण के सफल अभ्यासी सहित ईश्वर व वेद के सच्चे अपूर्व विद्वान वा ऋषि बन चुके थे। उनके विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ने उन्हें संसार से अविद्या हटाने और विद्या स्थापित करने की प्रेरणा की थी। इस परामर्श को गुरु का आदेश समझ कर स्वामी दयानन्द जी ने इसका अपने पूरे जीवन में आदर्श रूप में पालन किया। स्वामी जी के समय में चार वेद आसानी से कहीं मिलते नहीं थे। उनके समय तक चारों वेदों की संहिताओं व उनके संस्कृत भाष्यों का प्रकाशित वा मुद्रित संस्करण उपलब्ध नहीं होता था। इंग्लैण्ड में अवश्य सायण भाष्य पर आधारित ऋग्वेद का संस्करण अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रोफेसर मैक्समूलर के अनुवाद व सम्पादन सहित अनेक टिप्पणियों सहित प्रकाशित हुआ था। हमारा अनुमान है कि यह संस्करण भी भारत में पुस्तक विक्रेताओं आदि के पास कहीं प्राप्त नहीं होता था। स्वामी जी के जीवन में एक घटना भी आती है कि गुरु विरजानन्द से दीक्षा लेकर स्वामी जी सन् 1863 में आगरा आये और वहां कुछ महीने निवास किया और प्रचचनों के माध्यम से प्रचार करते रहे। वहां उन्होंने अपने सहयोगियों को वेद लाने को कहां। उन लोगों ने प्रयत्न किये परन्तु उन्हें वेदों के कुछ पत्रे ही प्राप्त हो सके, पूर्ण वेद प्राप्त नहीं हुए थे। इसका अर्थ है कि उन दिनों पूरे आगरा में चार वेद बिक्री आदि के लिए कहीं सुलभ नहीं थे। देश में भी उन दिनों यदि कहीं वेद सुलभ रहे होंगे तो वह हस्तलिखित प्रतियां ही हो सकती हैं जो वर्षों, दशकों व इससे भी पूर्व कुछ वेद प्रेमी पण्डितों ने तैयार की होंगी। जिन भी पण्डितों से स्वामी दयानन्द जी को चार वेद प्राप्त हुए हम उन पण्डितों को सादर नमन करते हैं। वह ही वस्तुतः सच्चे वेदरक्षक सिद्ध हुए। वेदों की प्राप्ति के लिए स्वामी जी आगरा से ग्वालियर, वहां से धौलपुर, फिर करौली और जयपुर आदि होते हुए हरिद्वार के कुम्भ के मेले में पहुंचे थे। इससे हमें अनुमान होता है कि स्वामी जी को करौली व धौलपुर में कहीं वेद प्राप्त हुए होंगे क्योंकि इन स्थानों पर उनका प्रवास अन्य स्थानों की तुलना में अधिक था। इस स्थिति से अनुमान लगाया जा सकता है कि सन् 1863 में वेद संहिताओं का मिलना असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन हो गया था।

 

आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व सनातनी लोग ही वेदों का नाम लेते थे। जैनी, बौद्ध, सिख, ईसाई व मुसलमानों को वेदों से कुछ लेना देना नहीं था। इन्हें वेदों के संरक्षण की किंचित चिन्ता नहीं थी। इनमें से कुछ तो वेद विरोधी थे और हमारे सिख भाईयों को वेदों की अहमियत का पता नहीं था। अन्य मतों की तरह वेद विरोधी यह लोग नहीं थे। अन्य जैनी, बौद्ध, ईसाई व मुस्लिम मत शायद वेदों को ही अपने धर्म के प्रचार प्रसार में बाधक मानते थे। इसलिये एक ओर मुसलमानों व जैनियों ने जहां वेदों को नष्ट किया वहीं ईसाईयों वा अंग्रेजों ने वेदों के मिथ्या अर्थों का प्रचार प्रसार करने की योजनायें बनाई जिसके प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं और इसे सभी लोग जानते हैं। विद्वान लेखक श्री ब्रह्मदत्त भारती की पुस्तक ‘मैक्समूलर अनमासक्ड’ से इस विषय को विस्तार से जाना व समझा जा सकता है। उन दिनों अन्य यदि कोई प्रभावशाली मत या मतान्तर बचता है तो वह सनातनी मत अथवा पौराणिक मत ही था जो वेदों का नाम तो लेते थे परन्तु वेदों से विशेष रूप से उनका कुछ भी लेना देना नहीं है। आज भी वह वेदों का प्रचार, प्रकाशन, वेद कथायें आदि न कर भागवत, रामचरित मानस, गीता, शिवपुराण, देवीभागवत तक ही सीमित हैं। ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों का उद्धार करने के बाद भी किसी पौराणिक व सनातनी बन्धु व संस्था ने वेदों की संहिताओं व उसके भाष्य के प्रचार का कभी विचार किया हो, ऐसा सन्दर्भ व उल्लेख कहीं नहीं मिलता। अतः वेदों की रक्षा ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज व उनके शिष्य विद्वानों ने ही की है। ऋषि दयानन्द ने महाभारतकाल के बाद सर्वप्रथम वेदों का देश भर में प्रभावशाली प्रचार किया। इसके लिए विधर्मियों से शास्त्रार्थ भी किये। उन्होंने वेदों के संस्कृत व हिन्दी अर्थों का प्राचीन परम्परा के अनुसार भाष्य करके प्रकाशित व प्रचारित भी किया। वेदों की महत्ता व उसकी मान्यताओं का प्रचार प्रसार करने के लिए ही ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन व प्रकाशन किया। वेदों के उच्च ज्ञान गौरव ऋषि दयानन्द के प्रचार के कारण ही आज वेद भारत व विश्व में सुरक्षित व उपलब्ध हैं तथा धर्म के आदि स्रोत एवं प्रमुख ग्रन्थ हैं। आर्यसमाज के प्रत्येक सदस्य को वेदों का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना अनिवार्य किया गया है। आर्यसमाज के अनुयायियों के घरों में वेद, वेदभाष्य और वैदिक साहित्य आज सर्वत्र उपलब्ध होता है। वह उसे पढ़ते भी हैं व उनकी शिक्षाओं पर चलते हुए उसके अनुसार ही सन्ध्या, अग्निहोत्र व अन्य कार्य करते हैं।

 

स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव के समय वेद देश व विश्व से लुप्तप्राय हो चुके थे। वेदों के सत्यार्थ व यथार्थ अर्थ विद्वानों को भी ज्ञात न थे। यदि स्वामी दयानन्द न आते तो आज वेद और वेदों के यथार्थ अर्थ हमें प्राप्त न होते और उनके द्वारा सामाजिक कुरीतियों व अन्धविश्वासों के उन्मूलन के साथ जो समाज सुधार के अनेकानेक कार्य उन्होंने आरम्भ किये, वह भी न होते। हिन्दु समाज टूट चुका होता और अधिकांश लोग विधर्मी बना दिये गये होते। हमें तो यह भी लगता है कि यदि स्वामी दयानन्द जी न आते और प्रचार व समाज सुधार के कार्य न करते तो देश भी शायद आजाद न होता और देश की स्थिति सन्तोषजनक नकर दयनीय होती। हिन्दुओं का जीवन अत्यन्त दयनीय होता और हो सकता है कि यह औरंगजेब जैसे हिन्दू विरोधी शासक के काल जैसा व उससे कुछ कम बुरा वा अधिक बुरा होता। आज हिन्दुओं व आर्यों के लिए जो कुछ अच्छी स्थितियां है उसमें ऋषि दयानन्द के वेद व ज्ञान के प्रचार, डीएवी कालेज व गुरुकुलों द्वारा शिक्षा का प्रचार, सामाजिक कुप्रथाओं का उन्मूलन व समाज सुधार आदि कार्यों का प्रमुख योगदान है।

 

एक प्रश्न भी यह उठता है कि कहीं ईश्वर ने ही तो वेद रक्षा के लिए ऋषि दयानन्द जैसी पवित्रतम जीवात्मा को तो जन्म नहीं दिया था? हमें तो ऋषि दयानन्द का गुजरात में जन्म लेना, शिवरात्रि के दिन मूर्तिपूजा से विरत होना, ईश्वर प्राप्ति व मृत्यु पर विजय के लिए घर से भागना, योगियों व ज्ञानियों की संगति करना, सफल योगसाधक बनना और गुरु विरजानन्द जी के पास पहुंच कर सच्चा वेदज्ञ बनने की योग्यता प्राप्त करना आदि कार्य चमत्कारों से कुछ कम दृष्टिगोचर नहीं होते। हम यह बातें भावुकता में नहीं पूरी सजगता से लिख रहे हैं। गायत्री मंत्र में ईश्वर से बुद्धि को सन्मार्ग में चलाने की प्रेरणा की प्रार्थना की जाती है और ईश्वर मनुष्यों को प्रेरणा करता भी है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ईश्वरीय प्रेरणा का परिणाम ही ऋषि दयानन्द जी के जीवन के सभी प्रमुख देश व धर्म हितैषी कार्य थे। एक भजन की पंक्ति है ‘कैसा सुन्दर खेल रचाया हे मेरे भगवान, करते हैं तेरा गुणगान’। भजन की यह पंक्तियां और कहीं सत्य हों या न हों, परन्तु लगता है, अनुमान होता है, हो सकता कि यह सत्य ही हों कि वेद प्रचार द्वारा वेदों की रक्षा की ईश्वरीय प्रेरणा ऋषि दयानन्द को ईश्वर ने ही की हो और उन्हें स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी व अन्य योग्य शिष्य दिए हों व उन्हें मिले जिन्होंने उनके कार्य को तीव्र गति से आगे बढ़ाया। इनके कार्यों से देश एक लम्बी नींद से जागा। आज आर्यसमाज द्वारा देश के अनेक भागों में कन्या और बालकों के गुरुकुल चल रहे हैं जो संस्कृत और वेद के विद्वान तैयार कर रहे हैं। आज भी आर्यसमाज में सबसे अधिक वेदों के विद्वान हैं। स्थान स्थान के आर्यसमाजों में वेद सम्मेलन होते हैं। वेदों के सत्य अर्थों वाले हिन्दी व अंग्रेजी में भाष्य भी हमारे पास हैं। निरन्तर इनका प्रकाशन किया जाता है। हमारे अपने पास ऋषि दयानन्द व अनेक आर्य विद्वानों के वेदभाष्य व इतर वैदिक साहित्य है जिसका अध्ययन करने का हमें अवसर मिला है। यह सब ऋषि दयानन्द की कृपा का ही परिणाम है।

 

हमारा अनुमान है कि यदि ऋषि दयानन्द न आते और वेदप्रचार न करते तो आज वेदों का अस्तित्व उनके समय की तुलना में अधिक धूमिल होता और पूर्णतया न सही, परन्तु प्रचार न होने के कारण लुप्त व नष्ट प्रायः हो गया होता। नष्टप्राय से हमारा अभिप्रायः वेदों का प्रचलन कहीं दृष्टिगोचर न होता। कहीं से उनका प्रकाशन न होता। वेदों के सत्य अर्थ किसी को ज्ञात न होते। लोगों को वेदों का यथार्थ महत्व पता न होता जो कि आज है। यह हमारा अभिप्राय है। लोग उसे गड़रियों के गीत व जाने क्या क्या कहते। देश में आर्य व हिन्दुओं की दशा भी अति दयनीय होती। ऋषि का ऋण मनुष्य जीवन में कभी चुका नहीं सकता। लेख को यही विराम देते हैं।

 

“ऋषिवर तेरे अहसां को न भूलेगा जहां बरसो।

तेरी रहमत के गीतों को ये गायेगी जुबां बरसों।।” 

 

 

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