सोने-चांदी के सिक्के और दीपावली पूजन
-लोकेन्द्र सिंह राजपूत
भारत का सबसे बड़ा त्योहार है दीपावली। हर कोई देवी लक्ष्मी को प्रसन्न कर उनका स्नेह चाहता है। इसी जद्दोजहद में व्यक्ति अनेकों जतन करता है धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी को। पूजन के दौरान कोई गुलाब के तो कोई कमल के फूलों से उनका आसन सजाता है। घी-तेल के दिए जलाए जाते हैं। इस तरह के अनेक प्रयत्न बड़े ही उल्लास के साथ होते हैं। एक खास बात देखी है मैंने। दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोग चांदी या सोने का सिक्का खरीदते हैं। जिसे बाद में देवी के पूजन में रखा जाता है। इन सिक्कों पर कुछेक बरस पहले तक ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम के चित्र मुद्रित हुआ करते थे। दीपावली पर सर्राफ विशेष रूप से विक्टोरिया और पंचम के सिक्के बनवाते थे। जिनकी कीमत वजन के हिसाब से अलग-अलग रहती थी। मेरे गांव में अधिकतर सभी लोग ये सिक्के शहर से खरीद कर लाते और देवी पूजन में रखते। विक्टोरिया का चित्र मुद्रित होने के कारण इस सिक्के का नाम भी विक्टोरिया पड़ गया। गांव में कई लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत अधिक संख्या में विक्टोरिया जमा हो गए। संकट के वक्त कई लोगों के काम आई यह जमा पूंजी। इसी बात को ध्यान में रखकर इसे खरीदने पर जोर रहता था कि इस बहाने घर में सोना-चांदी के रूप में बचत जमा हो जाएगी।
अंग्रेजो की गुलामी से आजाद होने के बाद भी कई वर्षों तक हमारे देश के टकसाल में सोने-चांदी के ही नहीं अन्य सिक्कों पर भी रानी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम के चित्र मुद्रित होते रहे। उपरोक्त विवरण के आधार पर मैं इस ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि किस तरह से हमारा स्वाभिमान सोया पड़ा है। हम आज भी मानसिक रूप से गुलामी को भोग रहे हैं। हम देवी लक्ष्मी के पूजन के साथ उस सिक्के को रखते हैं जिस पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया या जॉर्ज पंचम का चित्र मुद्रित रहता है। वैसे अब परिवर्तन आया है। वर्तमान में दीपावली पूजन के लिए जो सिक्के गढ़े जा रहे हैं उन पर देवी लक्ष्मी और प्रथम पूज्य श्री गणेश जी की छवि मुद्रित की जा रही है, लेकिन आज भी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम की छवि वाले सिक्के भी प्रचलन में हैं क्योंकि कई लोग उन्हें ही शुद्ध सिक्का मानते हैं।
सिक्कों का लम्बा इतिहास
देवी लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्कों का प्रचलन अभी का नहीं है। सैंकड़ों वर्षों पहले से राजा-महाराजा ने भी अपने सिक्कों पर लक्ष्मी की विभिन्न मुद्राओं के अंकन की परम्परा विकसित की थी। इतिहासवेत्ताओं ने यह तो स्पष्ट नहीं किया है कि किस राजा ने इस परंपरा का श्रीगणेश किया, लेकिन अब तक लक्ष्मी के अंकनयुक्त जो सबसे पुराने सिक्के प्राप्त हुए हैं, वे तीसरी सदी ईसा पूर्व के हैं। प्राप्त सिक्के कौशाम्बी के शासक विशाखदेव और शिवदत्त के हैं। सोने के इन सिक्कों पर देवी लक्ष्मी खड़ी मुद्रा में अंकित हैं और दोनों ओर से दो हाथी उन्हें स्नान करा रहे हैं। ईसा पूर्व पहली सदी के अयोध्या नरेश वासुदेव के सिक्के पर भी देवी लक्ष्मी का चित्र मुद्रित है। पांचाल नरेश भद्रघोष, मथुरा के राजा राजुबुल, शोडास और विष्णुगुप्त के सिक्कों पर भी कमल पर बैठी एक देवी प्रदर्शित हैं। जिन्हें कई इतिहासविद हालांकि लक्ष्मी नहीं अपितु गौरी या दुर्गा मानते हैं। उपरोक्त प्रसंग में गुप्तकाल (319 ईस्वी से 550 ईस्वी) का योगदान उल्लेखनीय है। लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्के इस काल में बहुत मिलते हैं। गुप्तवंश के शासक वैष्णव पंथ के उपासक थे। चूंकि लक्ष्मी विष्णुप्रिया हैं। संभवत: यही कारण रहा कि इस काल के देवी लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्के बहुतायत में थे। चंद्रगुप्त प्रथम ने सन् 319 ईस्वी में एक सोने का सिक्का ढलवाया था। सिक्के के एक पट पर चंद्रगुप्त अपनी रानी कुमार देवी (जो बेहद खूबसूरत थीं) के साथ अंकित हैं वहीं दूसरे पट पर सिंह पर सवार लक्ष्मी अंकित हैं। इसके बाद समुद्रगुप्त ने अपने शासन में सोने के छह प्रकार के सिक्के चलाए। इसमें ध्वजधारी मुद्रा पर एक ओर गुप्त राजाओं का राजचिह्न ‘गरुड़ध्वज’ और दूसरी ओर सिंहासन पर विराजमान लक्ष्मी अंकित हैं। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (375 ई. से सन् 415 ई.) ने सोने-चांदी के अलावा तांबे के सिक्के भी ढलवाए। जिन पर सिंहासन पर सुशोभित लक्ष्मी चित्रित हैं और नीचे श्री विक्रम: लिखा है। कुमार गुप्त (415 ई. से 455 ई.) ने अपने सिक्कों पर लक्ष्मी का चित्रण करवाया। स्कंदगुप्त (455 ई. से 467 ई.) के भी दो सिक्के प्राप्त होते हैं। एक सिक्के पर एक ओर धुनषवाण लिए राजा और दूसरी ओर पद्मासन पर लक्ष्मी को अंकित किया गया है। सिक्के पर श्री विक्रम: की तरह ही श्री स्कंदगुप्त: लिखा गया है। वहीं दूसरे सिक्के पर राजा को कुछ प्रदान करते हुए लक्ष्मी का चित्रण हैं।
गुप्त काल के बाद महाराष्ट्र और आंद्र प्रदेश के सातवाहन वंश के ब्राह्मण, राजाओं, दक्षिण भारत के चालुक्य नरेश विनयादित्य और कश्मीर के हूण शासक तोरमाण, यशोवर्मन और क्षेमेंद्रगुप्त के सिक्कों पर भी लक्ष्मी का अंकन है। इसके अलावा राजपूत काल में यह परंपरा प्रचलन में रही। इस दौरान मध्यभारत के चेदिवंश के शासक गांगेयदेव ने अपने राज्य के सिक्कों पर सुखासन मुद्रा में बैठी चार हाथों वाली देवी लक्ष्मी का अंकन कराया। बुंदेलखण्ड के चंदेल शासक कीर्तिवर्धन के चांदी के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की सुंदर व कलात्मक मूर्ति का अंकन है।
श्री प्राप्ति के लिए शास्त्र एवं परम्पराओं के अनुकुल आचरण करना आवश्यक है। आर्यावर्त (जम्बुद्धीप) या कहे आज का दक्षिण एसिया इसलिए कंगाल है क्यो कि हम शास्त्रों के निर्देशो का पालन नही कर रहे है। हमारे यहाँ अमीर भी कंगाल जैसा हीं है। अगर हम सामुहिक रुप से शास्त्रो के निर्देशों के अनुकुल आचरण करें तो कोई कारण नही की हमारा देश समृद्ध एवं सुखी नही बन सकता। शास्त्रों में यह बात बहुत स्पष्ट रुप से कही गई है कि स्वर्ण मे कलि का वास होता है। कलि दुषित है एवं सत्य के विपरीत भी है। अतः अपने पास स्वर्ण रखना शास्त्र के प्रतिकुल है।
हिरण्यकश्यप का अर्थ सोने का राक्षस होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने पास एक रती भी सोना रखता है तो उसे गो-हत्या के आघे का पाप चढता है। अगर आप व्यक्तिगत एवं राष्ट्रिय समृद्धि चाहते है तो अविलम्ब अपने पास रखे स्वर्ण एवं उससे बने आभुषण आदि बेच डाले। बेच कर प्राप्त होने बाले धन का निवेश रोजगार, उद्योग, शेयर अथवा स्वदेशी बैंक में करें। यही मुक्ति का मार्ग है यही स्वराज्य का रास्ता भी है