सीखना- कुछ मुश्किलें

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सीखना एक जटिल प्रक्रिया है। जीवन भर व्यक्ति कुछ न कुछ सीखता रहता है। सीखने का सबसे महतवपू्र्ण समय बच्चे के जीवन के आरंभिक वर्ष होते हैं जब वह पलटना, पहचानना ,बैठना खड़े होना फिर बोलना सीखता है। इसके बाद अक्षर आकृतियां और रंग पहचानता है धीरे धीरे वर्णमाला लिखना, शब्द लिखना, फिर वाक्य बनाकर लिखना सीखता है। अंको को भी मौखिक फिर लिखित मे सीखकर अंक गणित सीखता है। आरंभिक वर्षो मे ये सब चीज़े थोड़ा आगे पीछे सभी बच्चे सीख लेते हैं।

कुछ बच्चों को ये सामान्य सी बातें सीखने मे दिक्क़त होती है,ये दिक्क़तें कई तरह से सामने आती हैं और इनकी गंभीरता भी अलग अलग होती है। कभी कभी माता पिता को बच्चों की मानसिक स्थिति का अंदाज़ा भी नहीं होता इसलियें कभी वो उन्हे आलसी मान लेते हैं कभी बेहद शर्मीला या शैतान मान लेते हैं फिर डांटडपट शुरू होजाती है और बच्चे की सीखने की दिक्कते बढती जाती हैं। कभी कभी उन्हे मन्द बुद्धि भी मान लिया जाता है।

सीखने की क्षमता कम होने का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि बच्चे का बौद्धिक स्तर कम है। उनका सुनना और देखना भी सामान्य होता है फिर भी सीखना मुश्किल होता है।मस्तिष्क की नाडियाँ कुछ अलग तरह से गठित होती हैं कि कानो और आँखों से मिली सूचना का मस्तिष्क ठीक से विश्लेषण और संस्लेषण (प्रौसैसिंग) नहीं कर पाता कुछ चीज़े ये बच्चे बड़ी जल्दी सीख लेते हैं जबकि कुछ को सीखना काफी कठिन होता है।

बच्चों को कभी न कभी किसी न किसी चीज़ को सीखने मे कठिनाई हो सकती है, यह स्वाभाविक है,पर लगातार बहुत समय तक ज़ोर से न पढ पाना, या लिख न पाना या अंको और गिनती को सही न पहचान पाना संकेत हो सकता है कि यह सीखने मे आने वाली(लर्निंग डिसआर्डर) समस्या है।ये कई प्रकार की हो सकती हैं,जिनके लक्षण व निदान भी अलग अलग होते हैं। इन्हें मनोरोग नहीं कहा जा सकता।

सीखने मे यदि कोई विशेष दिक्कत आती है तो सबसे पहले तो सही निदान होना आवश्यक है। हर बच्चे की समस्या एकसी नहीं होती उन्हे प्रशिक्षित शिक्षक अपने अलग तरीकों से सिखा कर बहुत हद तक उनकी क्षमताओं का विकास करने मे सहायक हो सकते हैं। सीखने मे आई मुशकिलों पर क़ाबू पाया जा सकता है। माता पिता को धैर्य रखने और सोच को सकारात्मक रखकर बच्चे का मनोबल बढाने की ज़रूरत होती है।

जब भी ऐसा लगे कि बच्चा पिछड़ रहा है तो एक बार स्कूल काँउसैलर या बाल मनोवैज्ञानिक से संपर्क करने मे हिचकिचाना नहीं चाहिये हो सकता है कोई समस्या हो ही नहीं और अगर होगी भी तो जल्दी निदान होने से समस्या पर क़ाबू पाना भी अपेक्षाकृत आसान होगा, पर अक्सर देखा गया है कि मनोवैज्ञानिक से सलाह लेना लोगों को पसन्द नहीं होता। ये धारणा सही नहीं है।

सबसे पहले मै पढने लिखने और गणित सीखने की समस्या के बारे मे चर्चा करूँगी। पढने की समस्या को डायसलैक्सिया (dyslexia) कहते हैं, आवाज़ के साथ अक्षर को जोडकर समझना, अक्षरों से शब्द बनाना शब्दों के अर्थ समझना फिर वाक्य बनाना डायसलैक्सिया से पीड़ित बच्चों के लियें कठिन होता है ,इससे पढने की सामान्य क्रिया मे आयु के अनुसार वे पिछड़ते जाते हैं। डायसलैक्सिया बहुत हल्का भी हो सकता है थोड़ा अधिक भी। इन बच्चों को शब्दों को, विचारों को समझना,अच्छी तरह पढ पाना मुश्किल होता है जा़हिर है कि शब्द कोश भी आयु के साथ नहीं बढ पाता।

लिखने की दिक्कत को डायसग्राफिया (dysgraphia) कहते हैं ।इसमे शब्दों को समझकर लिखने की प्रक्रिया आती है। अक्सर लिखाई बेहद ख़राब होती है शब्द उलटे पुलटे हो जाते हैं जैसे d,b मे या ज,च मे अंतर कर पाना मुशकिल होता है।बहुत धीरे लिखते हैं,। अलग अलग जगह पर एक शब्द के स्पैलिंग अलग अलग लिख देते हैं।कभी कभी नक़ल करके लिखना भी संभव नही होता।

जिन बच्चों को अंको को समझने मे या गिनती और सामान्य जोड़ घटाना सीखने मे कठिनाई होती है उसे डायसकैलकुलिया(dyscalculia)कहते हैं।

डायसप्रेक्सिया (dyspraxia) मे हाथ पैरो उंगलियों आँखों के काम मे ताल मेल बिठाना कठिन होता है इसलिये आयु के अनुसार बटन लगाना, ज़िप लगाना ,कूदना या लिखना मुशकिल हो जाता है।

डायसफेसिया (dysphasia) मे भाषा के ज्ञान की कमी की वजह से अपनी बात दूसरों से कह पाना या उनकी बात समझ पाना कठिन हो जाता है। कोई कहानी सुना पाना या कविता सुना पाना मुशकिल होता है। विचारों का संचार, आदान प्रदान करना आयु के अनकूल विकसित नहीं हो पाता।

इन पररेशानियों मे घिरे बच्चे बहुत दबाव मे रहते हैं ,जब वे देखते हैं कि जो काम उनके साथी इतनी सरलता से पूरा कर लेते हैं से उसे पूरा करना उनके लियें बड़ा संघर्ष होता है, फिर अगर अध्यापक और माता पिता भी उनकी परेशानी न समझकर उन्हें प्रताड़ित करते रहें तो वे आत्म ग्लानि, हीन भावना और चिन्ता से ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे मे उनकी कार्यक्षमता और गिर जाती है। सबसे ज्यादा ज़रूरी है समस्या का सही आँकलन होना उसके बाद काँसैलिग और योग्य प्रशिक्षित अध्यापक द्वारा शिक्षा मिलना, धीरे धीरे सिखाने की ये तकनीकें माता पिता भी सीख लेते हैं।

पहले माना जाता था मस्तिष्क की हालत मे सुधार नहीं होता ,पर नये अनुसंधानों से पता चला है कि मस्तिष्क की नई कोशिकायें प्रशिक्षण और लगातार अभ्यास से से धीरे धीरे अपनी बनावट बदल सकती हैं और ये दोष बड़े होते होते बहुत कम हो सकते हैं।

इसके अतिरिक्त औटिज़्म (autism) और अटैंशन डैफिसिट हायपर ऐक्तिविटी डिसऔर्डर

(attention deficit hyper activity disorder) का जिक्र करना भी आवश्यक है। इन दोनो मे भी सीखना कठिन हो जाता है।जबकि बुद्धि का स्तर कम नहीं होता। औटिज़्म से ग्रस्त बच्चे सामाजिक व्यवहार मे बहुत कच्चे होते हैं। वे आँख मिला कर बात नहीं कर पाते भाषा भी टूटी टूटी होती है,सीधी सीधी बात समझ लेते हैं हंसी मज़ाक नहीं समझ पाते।दूसरों की बात या हाव भाव समझना इनके लियें मुशकिल होता है। वख़्त के हिसाब से अपनी दिनचर्या के काम करते हैं कोई बदलाव पसन्द नहीं करते। कुछ भी सिखाने के लियें काफी महनत करनी पड़ती है। औटिज़्म बहुत ह्लका भी हो सकता जो ज़्यादा प्रभावित न करे।

अटैंशन डैफिसिट हायपर ऐक्टिविटी डिसऔर्डर( ADHAD) मे बच्चे को ज़रूरत से ज़्यादा शैतान या चंचल मान लिया जाता है। ये बच्चे ज़रा सी देर भी एक जगह बैठे नहीं रह सकते,किसी चीज़ मे ध्यान लगाना कठिन होता है, इसलियें ये सीखने मे या पढने मे पिछड़ जाते हैं। अपने व्यवहार पर क़ाबू रखना इनके बस मे नहीं होता अतः डांटडपट का कोई असर नहीं होता इन्हे इलाज की ज़रूरत होती है।

सीखने की सीमित क्षमताओं के बावजूद इन सभी बच्चों को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है।सबसे पहले सही निदान के लियें विशेषज्ञ चुनने का सवाल है, स्कूल के काँउसलर से बात करनी चाहिेये अध्यापकों की राय भी लेनी चाहिये,माता पिता को भी बच्चे की क्षमताओं और सीमाओं को समझना चाहिये, इसके बाद बाल मनोवैज्ञानिक ,न्यूरोसायकोलोजिस्ट, क्लिनिकल सायकौलोजिस्ट तथा कुछ और विशेषज्ञ या उनमे से कोई एक या दो लोग सही निदान करने के लियें कुछ मनोवैज्ञानिक परीक्षण करेंगे। माता पिता स्कूल काउंसलर और अध्यापकों से भी बच्चे का ब्योरा लेना पडता है। जब एक निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे तो प्रशिक्षण की दिशा निर्धारित की जायगी विशेष प्रशिक्षित अध्यापक बच्चे को विभिन्न तरीकों से सिखाते हैं।बच्चों की क्षमताओं का सर्वाधिक विकास करके उन्हें योग्य बनाया जा सकता है।

जिस प्रकार जिन बच्चों को कोई समस्या नहीं होती उनकी सीखने की क्षमतायें, पढाई की प्रगति एकसी नहीं होती वैसे इन बच्चों को भी उनकी सीमा मे रहकर ही योग्य बनाना पडता है।माता पिता के लियें ज़रूरी है कि सबसे पहले वे स्थिति को स्वीकार करें फिर उसपर विजय पाने की दिशा मे क़दम बढाये।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

1 COMMENT

  1. बीनू भटनागर जी प्रबुद्ध रचनाकार हैं . उनके इस
    विचारणीय लेख के लिए मैं उन्हें बधाई और शुभ
    कामना देता हूँ .

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