
— मनोहर पुरी —
संज्ञावती एक राज्य के मुख्यमंत्री की मुंह लगी थी। कुछ उसे उपपत्नी और कुछ प्रेमिका भी कहते थे। वह राज्य के मुख्यमंत्री महेश कुमार की बचपन की सखी थी,यह सत्य सब जानते थे। दोनों के परिवार एक छोटे से गांव में निर्धनता का जीवन व्यतीत करते थे। उनके पड़ोसी गांव में एक टूटा फूटा स्कूल था। जहां दोनों एक दूसरे का हाथ थामें नदी नालों को पार करके पहुंचते थे। स्कूल में एक ही अध्यापक थे, जो अपनी इच्छा से कभी आते कभी नहीं आते। जिस दिन अध्यापक नहीं आते, दोनों पास के जगंल में मस्ती से खेलते कूदते थे।
स्कूल के दूसरे छात्र उन दोनों से पूरी तरह दूरी बना कर रखते थे क्योंकि गांव में जातीय भेदभाव चरण सीमा पर था। महेश का परिवार निर्धन होते हुए भी उच्च वर्ग का था। गांव में उसकी प्रतिष्ठा थी। जबकि संज्ञा की स्थिति कोढ़ में खाज सरीखी थी। उसने अनुसूचित जाति के एक दरिद्र परिवार में जन्म लिया था। दोनों के मेल जोल की शिकायत अक्सर महेश के पिता तक पहुंचती और उसे कस कर पीटा जाता। इस पिटाई का महेश पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था। न केवल वह संज्ञा के साथ खेलता बल्कि उसका जूठा खाने में भी कोई हिचक नहीं दिखाता था। दोनों एक ही आम को बारी बारी से चूसते। एक दूसरे के मुंह पर लगे रस को अपनी जीभ से साफ करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। कभी कभी संज्ञा के पिता को भी ग्रामवासियों के क्रोध का सामना करना पड़ता। गांव में एक ही परिवार था जो वहां की टूटी फूटी नालियों की सफाई और मरे हुए पशुओं को उठाने का काम करता था। इसलिए उसे गांव में रखना ग्रामवासियों की विवशता थी।
गांव का स्कूल दसवीं कक्षा तक ही था। दसवीं कक्षा तक आते आते दोनों की मित्रता बहुत प्रगाढ़ हो चुकी थी। दोनों किशोरों के मध्य किसी प्रकार की दूरी नहीं रही थी। इस कच्ची आयु में ही दोनों हर प्रकार की सीमा लांघ चुके थे। गांव के किसी भी परिवार की इतनी समर्थ नहीं थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ाई जारी रखने की विलासता का बोझ उठा सकता। महेश को शहर में छोटी मोटी नौकरी करके कुछ कमाने के लिए शहर भेज दिया गया। गांव के प्रायः हर घर के लड़के शहर में जा कर काम करते थे। संज्ञा एक सुन्दर युवती के रूप में बड़ी हो रही थी। गांव के अनेक युवक उसके आगे पीछे भौंरों की तरह मंडराते रहते। अकेले में संज्ञा से बात करने अथवा किसी प्रकार का शारीरिक संबंध बनाने में किसी को गुरेज नहीं होता था। यदा कदा महेश गांव आता तो दोनों पुरानी यादों में खो जाते और एक दूसरे के साथ जीवन व्यतीत करने की कसमें खाते। महेश जानता था कि संज्ञा एक ऐसी बेरी है जिस पर चारों ओर से पत्थर बरसते हैं परन्तु वह कुछ करने अथवा रोक पाने में असमर्थ था। संज्ञा कई बार उसे अपने साथ शहर ले जाने के लिए कहती परन्तु उसका एक ही उत्तर होता कि समय आते ही उसे यहां से निकाल ले जायेगा।
ढाबों पर बर्तन मांजते, किसी घर दुकान पर झाडू पौछा अथवा कोई भी छोटा मोटा काम करते करते महेश एक कपड़ा मिल में काम पा गया था। वास्तव में वह जिस बड़े घर में काम करता था उसकी मालकिन उसे बहुत पसंद करती थी। उसे महेश बहुत भोला भाला और ईमानदार लड़का लगता था। उसी के कहने पर महेश को मिल में मजदूर का काम दिया गया था। बदले में अपनी गारंटी पर वह अपने साथ गांव से एक ऐेसे लड़के को ले आया था, जिस ने घर के काम काज में उसका स्थान ले लिया। अब उसके घर की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक होने लगी थी। वह अपने परिवार के लिये जी तोड़ परिश्रम करता था। कभी भी ‘ओवर टाइम’ पर काम करने से इंकार नहीं करता था। मालकिन भी जब तब उसे कुछ काम करने के लिये घर बुलाती तो वह सहर्ष उसे करता था। मिल के आहते में ही उसे रहने के लिए कमरा भी दे दिया गया था। अवसर पाते ही संज्ञा भी शहर पहुंचती और दस बीस दिन महेश के साथ व्यतीत करके गांव लौट जाती। अपने घर में उस पर कोई अंकुश था ही नहीं।
महेश अब शहर में रहने वाला कमाऊ युवक था। बिरादरी में उसका आदर बढ़ गया था। उसके घर वाले उस पर विवाह का दबाव बनाने लगे। उसके लिये अच्छे अच्छे घरों से रिश्ते आने लगे। उसका विवाह एक अच्छे परिवार में करवा दिया गया। अच्छा दान दहेज मिला और महेश शहर में स्कूटर पर घूमने लगा। इससे मजदूरों में उसका महत्व बढ़ गया था। वहा लोगों को ब्याज पर पैसा उधार भी देने लगा। रिवाज के अनुसार उसकी पत्नी गांव में आ कर उसके परिवार के साथ रहने लगी। संज्ञा ने तो महेश को अपना पति मान ही रखा था। किसी भी प्रकार के मान मौनव्वल का उस पर केई प्रभाव नहीं होता था। जगंल की हिरणी की भांति वह इधर उधर चैकड़ी भरती रहती। जहां भी हरा चारा दिखता मुंह मार लेती।
महेश अच्छी कद काठी का परिश्रमी युवक था। उसमें नेतृत्व के गुण दिखाई देने लगे थे। जल्दी ही वह मिल के श्रमिकों का नेता बन गया। मिल मालिकों द्वारा भी उसे बढ़ावा मिलने लगा। उस पर मिल मालिकों की कृपा थी। मजदूरों की छोटी मोटी समस्याओं का समाधान वह सुगमता से करवा देता था। इससे श्रमिक और मालिक दोनों का ही लाभ होता था। कपड़ा मिल के स्वामी सेठ धर्म पाल सूर्यवंशी नगर के नामी गिरामी और सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे। कपड़ा मिलों के अतिरिक्त उनके अन्य व्यापार भी थे। देश की स्वतंत्रता से पूर्व ही उनके परिवार ने स्थान स्थान पर कारखाने लगा कर बड़ी मात्रा में धन अर्जित किया था। देश के विभिन्न भागों में उनके पास बहुत से भूखंड थे। वर्षों से देश की सबसे बड़ी और शक्तिशाली राजनैतिक पार्टी के साथ उनके परिवार के गहरे संबंध रहे थे। वह भी निरन्तर पार्टी की धन से सहायता करते थे। सेठजी पार्टी की राजनैतिक गतिविधियों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते थे। इन दिनों पार्टी पर युवा नेतृत्व हावी होता जा रहा था। पार्टी के युवा अध्यक्ष के मन में बुजूर्ग पीढ़ी के लिये कोई आदर भाव नहीं था।
अचानक न जाने क्या हुआ कि सेठ धर्म पाल ने आगामी विधान सभा चुनाव में प्रत्याशी बनने का मन बना लिया। पार्टी उन्हें सहर्ष अपना प्रत्याशी बना लेगी इसमें किसी को सन्देह नहीं था। उनकी जीत को सुनिश्चित मानते हुए उनका टिकट पक्का माना जा रहा था। परन्तु पार्टी ने उन्हें टिकट देने से साफ इंकार कर दिया। इतना ही नहीं उन्हें इसके लिये अपमानित भी किया गया। सेठ जी अपनी सेवाओं का मूल्य नहीं मांग रहे थे परन्तु इस प्रकार से तिरस्कृत होना भी उन्हें मंजूर नहीं था। विधान सभा के इस क्षेत्र से केवल वही प्रत्याशी विजयी होता था जिस के सिर पर मिल मलिकों का हाथ होता। इस क्षेत्र में मिल के श्रमिक भारी संख्या में निवास करते थे।
सेठ जी बुरा न मान जायें इसलिये पार्टी ने उनके क्षेत्र से एक नामी गिरामी और विद्वान व्यक्ति को चुनाव का टिकट दिया। परन्तु सेठ जी तो बुरा मान चुके थे। टिकट न मिलना उनके लिये अपमान की बात थी। अपने अपमान का बदला लेने के लिए सेठ धर्मपाल ने अपने अदने से कर्मचारी महेश कुमार को निर्दलीय प्रत्याशी बना कर चुनाव में उतार दिया। पार्टी के पुराने नेताओं ने उन्हें बहुत मनाने की कोशिश की परन्तु तीर कमान से छूट चुका था।
महेश ने बहुत उत्साह से चुनाव लड़ा। धन का कोई अभाव था ही नहीं और श्रमिकों को भी चुनाव प्रचार करने के लिये पूरी छूट दे दी गई। इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या कुम्हारों की रहती थी। उसे मटका चुनाव चिन्ह मिला तो सबके सब कुम्हार उसे विजयी बनाने में जुट गये। महेश भारी बहुमत से विजयी घोषित हुया। राज्य में उसने जीत का नया रिकार्ड बनाया। इतने पुराने राष्ट्रीय दल को न केवल पहली बार पराजय का सामना करना पडा बल्कि जमानत से भी हाथ धोना पड़ा। सेठ जी बहुत उत्साहित और गद्गद् थे। राज्य में 20 अन्य निर्दलीय निर्वाचित हुए थे। किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। अब सेठ जी पूरी तरह से राजनीति में उतर आये। उन्होंने तनिक भी समय गवांये बिना सभी निर्दलीयों के एक गुट का गठन कर डाला। निर्दलीयों की सहायता के बिना किसी के लिये भी सरकार का गठन होना संभव दिखाई नहीं देता था। दोनों राजनैतिक पार्टियों को लगभग बराबर बराबर स्थान मिले थे। राज्यपाल के सामने भी यह समस्या थी कि वह सरकार गठित करने के लिये पहले किस पार्टी के नेता को निमंत्रण भेजे। निर्दलीय सदस्य दोनों पार्टियों के सदस्यों से भी अधिक एकजुट हो चुके थे। उन्हें कोई भी प्रलोभन आकर्षित नही ंकर पा रहा था। वे जान चुके थे कि उनके बिना सरकार का गठन होना असंभव है।
एक लंबे समय तक दांव पेच चलते रहे परन्तु समस्या का कोई समाधान सामने नहीं आया। सेठ जी अपनी पुरानी पार्टी के साथ नहीं जायेंगे यह मान कर दूसरी पार्टी के नताओं ने उनके साथ सम्पर्क साधा। सेठ जी की एक ही मांग थी कि मुख्य मंत्री हमारा होगा। अतं में समझौता हुआ और महेश कुमार को मुख्य मंत्री बना दिया गया। विधान सभा का अध्यक्ष भी सेठ जी ने अपने ही व्यक्ति को बनवाया ताकि किसी संवैधानिक संकट के समय बाजी अपने ही हाथ में रहे। अन्य निर्दलीय सदस्यों को भी मंत्री मंडल अथवा अन्य अति महत्वपूर्ण स्थानों पर समायोजित कर लिया गया।
सरकार के पास आरामदायक बहुमत था। महेश कुमार मुख्य मंत्री थे परन्तु सरकार की सारी बागडोर सेठ जी के हाथों में थी। संज्ञा सहित पूरा गांव खुशी से फूल्ला कर कुप्पा हुआ जा रहा था। संज्ञा तो अपने आप को मुख्य मंत्री ही मान रही थी।
मंत्री मंडल की पहली बैठक के बाद सेठ जी ने सत्ता पक्ष के सभी सदस्यों को अपने घर निंमत्रित किया। अपने संक्षिप्त भाषण में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि किसी भी सदस्य को तनिक भी आर्थिक संकट से दो चार नहीं होना पड़ेगा। आवश्यकता और समर्थ के अनुसार सब को काम और दाम मिलता रहेगा परन्तु इस बात की शपथ लेनी होगी कि कोई बेईमानी और भ्रष्टाचार नहीं करेगा। कोई कोटा परमिट और ठेका लेने देने में भले ही हम बेईमानी और हेरा फेरी करें परन्तु काम पूरी तरह से कानून दायरे में रहते हुए नियमानुसार ईमानदारी से होगा। पुल,सड़क अथवा भवन बनाने में जितनी और जैसी सामग्री चाहिए हो वह अवश्य प्रयोग की जाये। काम करने अथवा करवाने का जो आवश्यक लाभ है वह तो मिलता ही है। उन्होंने कहा कि धर्म का थोड़ा थोड़ा लाभ लेते रहेगें तो जनता आपके साथ जुड़ती जायेगी। काम ठीक ठाक नियमानुसार होते रहें लोग मात्र इतना ही चाहते हैं। अनावश्यक सिफारिश और गलत काम करवाने और उचित काम में अंडगा लगाने से भले ही कुछ लोग आपसे जुड़ जायें परन्तु बहुमत दूर होता जायेगा। थोड़ा कमायें,उचित कमायें हक का कमायें। इसे कानूनी भ्रष्टाचार कहा जाये तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिये।
सेठ जी की छोटी सी सीधी बात को सबने गांठ में बांध लिया। राज्य विकास के मार्ग पर बढ़ चला। अन्य गांव देहातों की ही तरह महेश के गांव का भी विकास होने लगा। नदी नालों पर आवश्यकतानुसार पुल पुलिया बनने लगे। गांव को मुख्य सड़क से जोड दिया गया। स्कूल और हस्पताल बनाने का काम शुरु हो गया। क्योंकि काम करने में कोई बेईमानी नहीं हो रही थी इसलिए पहली सरकार के मुकाबले कम लागत पर काम हो रहा था। ठेकेदार स्वयं कम कमा रहा था क्योंकि उसे कहीं रिश्वत नहीं देनी पडती थी। काम ठीक था इसलिए इन्सपैक्टर अपने वेतन पर ही गुजारा करने लगे। कुछ अधिकारी और कर्मचारी नाराज हुए परन्तु जनता खुश थी। सेठ जी और विधायकों के चहेतों को लाइन तोड़ कर काम मिलने लगा परन्तु इसी शर्त के साथ कि काम में कोई कोताही और बेईमानी नहीं होगी। जो होगा नियमानुसार होगा।
महेश का परिवार अब मुख्यमंत्री निवास में आ गया था। संज्ञा भी राजधानी में आ कर रहने की जिद्द करने लगी। महेश अपनी नाजुक स्थिति को समझता था परन्तु संज्ञा को छोड़ना भी नहीं चाहता था। सेठजी उसके असमंजस को जानते थे और किसी समाधान की खोज में थे। दिल्ली में प्रायः हर राज्य के अपने अतिथिगृह थे जबकि उनके राज्य का कोई नहीं था। सेठ जी ने सोचा क्यों न वहां एक अतिथिगृह किराये पर ले लिया जाये और संज्ञावती को अतिथिगृह की केयरटेकर नियुक्त करवा दिया जाये। इस प्रकार वह गांव से बाहर निकल कर दिल्ली में रहने लगेगी और उसका महेश के परिवार से आमना सामना भी नहीं होगा। राज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते महेश को अक्सर देश की राजधानी दिल्ली के चक्कर लगाने ही पड़ते थे।
नई दिल्ली में सेठजी का एक प्लाॅट पड़ा था जिसे वह बेचना चाहते थे। उन्होंने महेश से सलाह की और प्लाॅट संज्ञावती को बेच दिया गया। राज्य के नियमानुसार संज्ञावती ने भवन निर्माण के लिए ऋण प्राप्त करने का आवेदन किया। प्लाॅट और दास्तावेजों के परीक्षण पर आवेदन को ऋण देने योग्य पाया गया। फलतः संज्ञावती को ऋण दे दिया गया। सेठजी ने राज्य में बन रहे एक बडे बांध के ठेकेदार को इस भूखंड़ पर एक ऐसा भवन बनाने का दायित्व सौंपा जो राज्य सरकार के अतिथिगृह बनने के योग्य हो। जल्दी ही भवन बन कर तैयार हो गया।
सरकार ने दिल्ली में अतिथिगृह किराये पर लेने के लिये विज्ञापन दिया। कुछ लोगों के साथ साथ संज्ञा ने भी आवेदन किया। नवनिर्मित्त भवन होने के कारण उसका भवन मोटे किराये पर ले लिया गया। क्योंकि भवन का निर्माण राज्य से प्राप्त ऋण से हुआ था इसलिए किराये की एक तिहाई राशि उधार की अदायगी में काटी जाने लगी। एक हिस्सा सेठजी को भूमि के मूल्य के रूप में वापिस मिलने लगा। संज्ञा को अतिथिगृह की केयर टेकर के रूप में नियुक्त कर लिया गया। सरकारी वेतन और सुविधाओं से उसका जीवन मजे में चलने लगा। हर राज्य के अतिथिगृह में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के सुसज्जित कक्ष आरक्षित रहते हैं। यहां भी आरक्षित कर दिये गये। केयर टेकर होने के नाते संज्ञा के आवास की उसी भवन में व्यवस्था थी ही। अक्सर वह मुख्यमंत्री कक्ष का ही उपयोग करती थी। अब मुख्यमंत्री के दिल्ली दौरे तेजी से होने लगे थे और ठहरने की अवधि भी लंबी होती जा रही थी। हर कार्य नियमानुसार हो रहा था।