
प्रभुनाथ शुक्ल
चलो एक नई उम्मीद बन जाऊँ!
बसंत सा बन मैं भी खिल जाऊँ!!
प्रकृति का नव रूप मैं हो जाऊँ!
गुनगुनी धूप सा मैं खिल जाऊँ!!
अमलताश सा मैं यूँ बिछ जाऊँ!
अमराइयों में मैं खुद खो जाऊँ!!
धानी परिधानों की चुनर बन जाऊँ!
खेतों में पीली सरसों बन इठलाऊं!!
मकरंद सा कलियों से लिपट जाऊँ!
बसंत के स्वागत का गीत बन जाऊँ!!
आधे आँगन की धूप सा बन जाऊँ!
मादकता का मैं संगीत बन जाऊँ!!
बनिता का मैं नचिकेता बन जाऊँ!
टेंशू बन उसके केशों में सज पाऊं!!
बहुरंगी जीवन में बसंत हो जाऊँ!
मादकता का मैं मलंग हो जाऊँ!!