लोकतंत्र बनाम गिरोह-तंत्र

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anil– वीरेन्द्र सिंह परिहार

अभी गत दिनों देश के समक्ष एक ऐसा बाकया सामने आया, जिससे यह पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र का असली संकट क्या है ? शारधा चिटफंड घोटाले के सन्दर्भ में जब सी.बी.आई. ने भूतपूर्व मंत्री मतंग सिंह को गिरफ्तार करने का प्रयास कर रही थी तो तात्कालिक केन्द्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने अपनी हैसियत का दुरुपयोग करते हुए मतंग सिंह को गिरफ्तारी से बचाने का प्रयास किया। यह बात अलग है कि वह मतंग सिंह को गिरफ्तारी से बचा नहीं पाए। इसके उलट उनके इस विधि-विरुद्ध कृत्य की जानकारी केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को भी हो गई, जिसके चलते केन्द्र सरकार ने उन्हें पद-मुक्त भी कर दिया। पर यह तो घटना-क्रम का सतही स्वरूप है, असली समस्या बहुत गहरी है। असल समस्या यह है कि विगत कई वर्षों से हमारे लोकतंत्र का कुछ ऐसा स्वरूप हो गया है जो कुल मिलाकर गिरोह-तंत्र का रूप ले चुका है। सुनने में शायद कुछ अटपटा भले लगे, पर असलियत यही है यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांशतः यही देखने को मिलता है कि भ्रष्ट तत्वों के बीच कहीं-न-कहीं एक अलिखित समझौता है, जिसके तहत एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट का सिर्फ बचाव ही नहीं करता, बल्कि उसे भ्रष्ट कृत्यों को अंजाम देने के लिए भरसक सहयोग भी करता है। क्योंकि इसके चलते ये तत्व एकओर फल-फूल तो रहे ही हैं, दूसरे अपने को सुरक्षित और निरापद भी महसूस करते हैं।

अब सहज ही सवाल उठता है कि केन्द्रीय गृह सचिव आखिर घोटालेबाज मतंग सिंह का बचाव क्यों कर रहा है ? जबकि इसके उलट उसका दायित्व तो यह बनता था कि भ्रष्टाचारियों, घोटालेबाजों को पकड़वाने और उन्हें कठोर दण्ड देने के लिए प्रयासरत होता, जैसा कि अधिकारियों का फर्ज होता है। निश्चितरूप से अनिल गोस्वामी जैसे अधिकारियों ने मतंग सिंह के मंत्री-काल में कई किस्म के अनुचित लाभ लिए होंगे, अवैध सम्पत्ति बनाई होगी। या यह भी कह सकते हैं कि दोनों ने मिलकर कई गुल खिलाए होंगे। तभी तो इतनी दूर जाकर एक उच्च पदस्थ नौकरशाह इस तरह का बचाव कर रहा था, कि अपने आप को भी खतरे में डाल रहा था। संभवतः अनिल गोस्वामी को यह पता नहीं रहा होगा कि अब केन्द्र में ऐसी सरकार आ गई है जो देश को भ्रष्टाचारमुक्त देखना चाहती है और इसके लिए ऐसे नेक्सस पर वह पूरी तरह प्रहार भी कर सकती है।

वस्तुतः मतंग सिंह और अनिल गोस्वामी का गठजोड़ यह बताता है कि इस देश में भ्रष्टाचार, घोटाले और लूट इसलिए लाइलाज हो गए हैं, क्योंकि नेताओं और नौकरशाहों के बीच एक गठजोड़ कायम हो गया है। बड़ी सच्चाई यह है कि 1970 के दशक से ही भारतीय राजनीति में इतनी गिरावट आनी शुरू हुई कि राजनीति क्रमशः-क्रमशः जनसेवा के वजाय व्यवसाय का रूप धारण कर लिया। यह बात भी सच है कि किसी देश में राजनीति की भूमिका इतनी प्रमुख होती है कि वह पूरे समाज जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। तभी तो प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक सर ई.एम. कोल ने कभी लिखा था कि ‘‘आप राजनीति को चाहंे या न चाहें वह आपको चाहेगी। उसके हाथ इतने लंबे हैं कि आपकी गर्दन तक पहंुच जाएंगे।’’ निःसंदेह इस तरह से सत्ता में बैठे राजनीति वर्ग जब भ्रष्टाचार के दलदल में गिरा तो उसने सबसे पहले नौकरशाहों को अपने साथ लिया। क्योंकि किसी भी सही-गलत आदेश का पालन तो नौकरशाहों के द्वारा ही होता है। फिर तमाम सारी जांच-पड़ताल भी वही करती है। इस तरह से यदि सत्ता में बैठे लोग जब नौकरशाही को अपना स्वाभाविक सहयोगी बना लेते हैं- ‘‘तब खुला खेल फर्रुखावादी का दौर शुरू हो जाता है। नौकरशाह तो मूलतः कैरियरिस्ट होते हैं, और ऐसे अवसरों के इन्तजार में रहते हैं। कोई कह सकता है कि आखिर में न्यायपालिका इन सब पर नियंत्रण लगाने के लिए तो है ही। पर इस बात में भी बहुत दम इसलिए नहीं है कि न्यायपालिका के लोग भी इसी समाज से आते हैं और जब समाज के जीवन-मूल्य भ्रष्ट होते हैं, तब स्वाभाविक है कि वे भी भ्रष्ट होंगे। दूसरे सत्ता में बैठे लोग इतनी ताकतवर होते हैं कि वह प्रकारान्तर से न्यायपालिका के आदेशों को भी धता बता देते हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह कि जांच एजेंसियाॅ तो सरकार के ही अधीन होती हैं।

इस तरह से देश में जहां आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, करोड़ों-करोड़ लोगों के लिए भरपेट भोजन, तन ढकने को कपड़ा और बीमार पड़ने पर दवा एक अहम समस्या है, वहीं इन राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के पास करोड़ों-अरबों की अवैध सम्पत्ति जमा रहती है। अब कहने वाले भले कहें कि कानून अपना काम करेगा। लेकिन बड़ा सच यही है कि आम लोग जहां कानून से शासित होते हैं, वहीं ये लोग कानून पर ही शासन करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘राजा कालस्य कारणं’’ यानी कि राजा काल का कारण होता है। कहने का तात्पर्य यदि राजा या शासक ईमानदार है, जनसेवी है, सच्चाई के रास्ते पर चलने वाला है, तो प्रजा या आमजन भी उसी रास्ते पर चलेंगे। गीता में कृष्ण ने भी कहा है कि श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं, आमजन उसी का अनुकरण करते हैं।

उसी तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि निःसंदेह अंधेरा घना है। फिर भी देश के सामने उम्मीद की किरणें हैं। अनिल गोस्वामी की अपने पद से विदाई यह बताती है कि नरेन्द्र मोदी के दौर में अब ऐसे गिरोह-तंत्र चलने वाले हैं नहीं। चाहे वह राजनीतिज्ञ हो या नौकरशाह सभी को ईमानदारी से अपने अपने विहित कर्तव्य पथ पर चलना होगा। वह दिन गए जब देश उनका जागीर हुआ करता था। इसलिए चाहे मतंग सिंह जैसे नेता हों या अनिल गोस्वामी जैसे नौकरशाह सभी को कठघरे में खड़े रहने को तैयार रहना चाहिए। देश में लोकतांत्रिक ढांचे के चलते यह प्रक्रिया धीमी भले हो, लेकिन ऐसी अपेक्षा है कि यह प्रक्रिया अंजाम पर पहंुचकर रहेगी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जहां पहले लोग यह मान बैठे थे कि ऐसे ही सब चलने वाला है, वहीं अब यह मानने लगे हैं कि परिवर्तन संभव है। पर दूसरा बड़ा सच यह भी है कि जन-समुदाय की भी इस दिशा में महती जिम्मेदारी है। एकओर जहां उसकी यह जिम्मेदारी है कि धनबल, जाति और सम्प्रदाय से परे होकर अपना नेतृत्व चुनें, वहीं अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति सचेत हों। कुल मिलाकर गांधी के शब्दों में देश का छोटा से छोटा व्यक्ति भी यह महसूस करे कि इस देश को चलाने में, बनाने में उसकी भी हिस्सेदारी है, जिम्मेदारी है। निःसंदेह यदि ऐसा हो सका तो प्रसिद्ध कवि नीरज के शब्दों में यह कहा जा सकेगा-

‘‘मेरे देश निराश न हो फिर मग बदलेगा, जग बदलेगा।’’

 

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  1. परिहार साहेब आपने नेक्सस के दो बिन्दुओं को ही उल्लेखित किया है. एक और संगठन है धेर्म् के ठेकेदारों का . अभी दो तीन संतों और भगवानो का भंडाफोड़ हुआ है. हरियाणा में ये महान आत्मायें लाखों लोगों को संमार्ग दिखाने के कार्य में व्यस्त थी. इन्हे राजनीतिक दलों का ही तो सहारा था की नहीं/इन सत्तदिशों ने कभी यह जेहमत नहीं उठाई की पता तो करें की इन उच्च आत्माओं के पास महंगी गाड़ियां ,स्विमिंग पूल, आलिशान कोठियां आखिर कहां से आयी?कोनसा पैसा लगा है इसमें?किसका पैसा लगा है/आयकर चुकाया है या नहीं/ आयकर इन के लिए है की नहीं/ परिहारजी अब समय आ गया है की नियंत्रित प्रजातंत्र को लागु किया जाये. एक व्यक्ति की पारिवारिक आवश्यकता के अनुसार उसका मकान ,उसकी गाड़ियां कितनी होना चाहिए यह परिभाषित हो. अन्यथा दिन ब दिन हालत ख़राब होंगे. राजनीतिक लोग/नौकरशाह/और बाबाओं का एक अलिखित समझोता है. हमारे रतलाम (म. प्र. )में एक शिक्षक कम बाबा अधिक थे। उनके यहाँ देखा गया की नेता/अधिकारी /अक्सर अपना जनम सुधारने। और कष्टों को दूर करवाने जाया करते थे। अब ये पता नहीं कहा हैं?आपको हर जिले,हर प्रान्त में ये मिल जाएंगे. वैसे परिवर्तन आ रहा है. यदि स्वामी दयानंद की शिक्षाओं को प्रचारित किया जाय तो बाबाओं से छुटकारा हो जाएगा. रही बात नेताओं की तो आज ही दिल्ली के नतीजे देख लो. नौकरशाहों के पर नकेल तो मोदीजी कस ही रहे हैं.

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